क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?

 

प्रिय मित्रो,

सभी मित्रों को दीपावली और भैया-दूज की शुभकामनाएँ। यह ऋतु त्योहारों की है। नव वर्ष तक निरंतर त्योहार चलते हैं। आज रात को यहाँ पश्चिमी जगत में हैलोविन है। कुछ सप्ताह पूर्व यहूदी त्योहार ‘योम किपुर’ था। यह त्योहार यहूदी धर्म का सबसे पावन त्योहार होता है। माना जाता है कि परमात्मा ‘रोश हशानाह’ के दिन आने वर्ष के लिए मानवों के भाग्य को “जीवन की पुस्तक” में लिखना आरम्भ करता है और योम किपुर को इस लेख पर अपनी स्वीकृति की “मुहर” लगा देता है। यहूदी धर्म में भी सनातन धर्म की तरह ही वर्ष और महीने सूर्य पर नहीं बल्कि चन्द्रमा की गति पर आधारित होते हैं। इसलिए यहूदी त्योहारों की तिथि सनातनी त्योहारों की तरह प्रचलित कैलेंडर में बदलती रहती है।

विडम्बना है कि यहूदी धर्म ने भी सहस्त्राब्दियों से केवल दर्शन और आध्यात्मिक विचारों के लिए वैश्विक स्तर पर प्रताड़ना सही है। चाहे वह मिस्र के फ़ैरो वंश की दासता हो या द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर द्वारा जन संहार हो। इस युद्ध के पश्चात वापिस पैतृक पैलेस्टीन की भूमि पर लौटने पर भी कौन-सी शांति मिल पाई। इस्रायल के जन्म के साथ ही इसको नामो-निशान मिटा देने के युद्ध घोषित हो गए। कई बार सोचता हूँ कि भारत में जन्मे सनातन धर्म का इतिहास लगभग ऐसा ही रहा है। हज़ारों वर्षों से विदेशी आक्रांता आते रहे हैं। लूट में केवल धन ही नहीं बल्कि बहू-बेटियों को दास बना कर दमिश्क और तुर्की के बाज़ारों में निलाम करते रहे हैं। पंजाब की भूमि की संस्कृति की तुलना अगर शेष भारत की संस्कृति से करें तो बहुत अन्तर दिखाई देते हैं। पंजाब सदा से ही आक्रान्तों के मार्ग में होने के कारण रौंदा जाता रहा है। जब जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़े तो संस्कृति को बचाए रखने का संघर्ष तो एक प्रकार से विलास ही हो जाता है। इन संघर्षों का इतिहास पुरातन से लेकर स्वतंत्रता के सम्य तक का है; यह अधिक पुराना नहीं है। गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान भारत के इतिहास के अनुसार अभी कल की ही बात है। बचपन में गुरु गोबिन्द सिंह जी के साहबज़ादों को दीवार में चिने जाने की कहानियाँ सुना करता था। सरहिन्द खन्ना से केवल १२ मील की दूरी पर ही तो था। जब भी दिल्ली या अम्बाला जाते हुए बस जीटी रोड पर सरहिन्द को पार करती तो सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी क्या माँग रहे थे? कोई राज-पाट का झगड़ा तो नहीं था। संघर्ष केवल आस्था का था जो कि ओरंगज़ेब को स्वीकार नहीं थी। संघर्ष अपनी आस्था के अनुसार जीने के अधिकार का था। यहूदी धर्मावलम्बी भी तो हज़ारों वर्ष से इसी अधिकार के लिए लड़ते रहे हैं और लड़ रहे हैं।

दोनों धर्मों में समानताएँ अनगिनत हैं। दीपावली की बात करता-करता यहूदी धर्म पर संकटों पर चला गया। संभवतः मध्य-पूर्व में विनाश के बादल विचारों पर छाए हुए हैं। कब तक यह बर्बरता चलती रहेगी। एक ही परमात्मा के प्रति आस्था रखने वाले धर्म-परिवर्तन के लिए क्यों विवश करते हैं? कई बार तो यह अनुभव होता है कि यह उन प्राइवेट बस-कंडक्टरों की तरह हैं जो यात्रियों को आकर्षित करने के लिए गुहार लगाते रहते हैं, कि बस सीधी मंज़िल पर उतारेगी। धर्म क्या व्यापार है? समय के साथ सभी मतों में कुछ विकृतियाँ आ जाती हैं और समय-समय पर सुधारक भी उसी धर्म में पैदा होते हैं। सदा से ही होते रहे हैं। यीशु मसीह भी धर्म सुधारक ही तो थे। वह स्वयं यहूदी थे और यहूदी धर्म में आए विकारों को नष्ट करने के लिए तो उन्होंने आंदोलन चलाया था। अगर कोई धर्म अपने विकारों को परम्परा बना ले और सुधारकों का घातक विरोध करने पर उतारू हो जाए तो क्या कहा जा सकता है! महात्मा बुद्ध, प्रभु महावीर, स्वामी दयानन्द सरस्वती भी सनातन के सुधारक थे। सनातन ने सुधारों को अपनाया या सुधारों की आवश्यकता को समझा और आत्मसात भी किया। गुरु नानक देव जी भी इसी परम्परा के संत थे। गुरुग्रंथ साहब भक्तिकालीन साहित्य का संकलन है। भक्ति कालीन साहित्य के कई कवि संत सुधारक परम्परा के ही प्रवर्तक थे।

दशहरा और दीपावली के अवसर आसुरी शक्तियों पर विजय कामना करना शुभेच्छा है। पूर्व मानव जगत के लिए शुभकामना करता हूँ, कि आसुरी भाव समाप्त हो। शांति की स्थापना हो और सबका कल्याण हो!

— सुमन कुमार घई

2 टिप्पणियाँ

  • वैश्विक चिंतन के माध्यम से धर्म के सही मार्ग को तलाशते हुए यह आलेख अत्यंत ही शानदार बना है। धर्म भी बस कंडक्टरों की तरह ही है कि वे गुहार लगाते है, सही रास्ते पर पहुंचाने की, मगर होता कुछ और ही है ! इसलिए जरूरत पड़ती है धर्म के साथ-साथ समाज सुधारकों की, यह दूसरी बात है कि लोग उनकी जान लेने पर आमादा हो जाते हैं।

  • 8 Nov, 2023 02:14 PM

    उचित और विचारणीय बात उठाई है सुमन जी ने। लड़ाई धरातल पर ही नहीं मन मस्तिष्क की भी है, सिद्धांतों की भी है। अपने विचारों, तर्कों में जब पिछड़ने लगें तब युद्ध से मनवाने की जिद्द। उसमें जब भारी ना पड़ें फिर विक्टिम कार्ड खेलना। पीड़ित दयनीय दिखाना। स्वतंत्रता है पर शिष्टाचार भी होना चाहिए डिबेट में हारने लगे तो क्या गाली गलौज, मारपीट पर उतर आना चाहिए ? नहीं,यह तो उचित नहीं। अतीत में कितने कष्ट झेलें है अपनो से। उनकी पीड़ा को स्मरण कर किसी की मान्यता, जीवन को ठेस नहीं पहुँचाना चाहिए। युद्ध के भीतर विद्वानों का लुप्त हो जाना बहुत बड़ी क्षति है। महाभारत के युद्ध के बाद अब तक इस क्षति से भारत उभरा नहीं है। -----हेमन्त

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