प्रिय मित्रो,
आज सुबह से बाहर लॉन को पानी दे रहा था। घास हरे से स्लेटी रंग की आभा ले चुकी थी। अगला चरण पीला होने का होता है। दो दिन पहले वर्षा तो हुई थी, पर संभवतः घास को नवजीवन देने के लिए पर्याप्त नहीं थी इसलिए आज पानी देना ही पड़ा। यह जानते हुए भी कि आज चौदह तारीख़ है, साहित्य कुञ्ज का अंक अपलोड करने के लिए काम को समेटना है, पानी देने का काम निरंतर चलता रहा। ऐसा नहीं है कि पानी देने के लिए मुझे वहाँ खड़े होना था, परन्तु घर के अगले और पिछले लॉन में स्प्रिंकलर को एक जगह से दूसरी जगह तो बदलना ही पड़ता है। अंक प्रकाशन से एक दिन पहले तो एक-एक पल बँधा हुआ होता है।
ऐसे पलों में प्रायः कुछ नकारात्मक विचार भी मन में सिर उठाने लगते हैं। क्या साहित्य कुञ्ज प्रकाशित करना मेरे लिए कोई बन्धन है? अगर मैं यह नहीं करूँगा तो क्या साहित्य-धारा बहनी बंद हो जाएगी? साहित्य के जगत में मेरा अस्तित्व ही कितना है? अगर आज नहीं भी रहूँ तो कौन सा अंतर पड़ने वाला है! प्रायः ऐसे विचारों से दो-चार होता रहता हूँ। अनचाहा तनाव मन-मस्तिष्क पर हावी हो रहा था। इन्हीं विचारों में गोते खाता हुआ ऊपर चला आया। लैपटॉप की स्क्रीन पर फिर से आँखें गड़ा दीं।
अपनी गूगल ड्राईव और साहित्य कुञ्ज के लोकल फ़ोल्डर हो खंगालने लगा कि कोई नया लेखक तो ऐसा नहीं है जो रह गया हो। एक-दो थे जिनसे परिचय माँगा हुआ था और अभी उनके फ़ोल्डर नहीं बने थे। उनके फ़ोल्डर बनाए, रचनाएँ सम्पादित कीं, अपलोड कीं और उन्हें ई-मेल द्वारा सूचना भी दे दी।
३१ जुलाई को स्व. प्रेमचन्द जी की जयंती है। कई लेखकों ने इस अवसर के लिए रचनाएँ भेजी थीं। एक बार पुनः देखा कि ऐसी रचनाएँ अपलोड कर चुका हूँ कि नहीं। ई-मेल और व्हाट्स ऐप के संदेश देखे। सब ठीक था, बस डॉ. आरती स्मित की प्रेमचंद के कृतित्व पर वीडियो शृंखला के कई अंश अभी साहित्य कुञ्ज से लिंक नहीं किए थे। डॉ. आरती स्मित ने प्रेमचंद को एक विषय के रूप में पढ़ाया है। अभी गत महीनों में उन्होंने प्रेमचंद के कृतित्व पर एक वीडियो शृंखला अपने यूट्यूब चैनल पर अपलोड की है। साहित्य कुञ्ज में इसी शृखला के लिंक वीडियो सेक्शन में दे रहा हूँ। जो पाठक प्रेमचंद के साहित्य को गहराई से समझना चाहते हैं, या जो छात्र प्रेमचंद के साहित्य का अध्ययन कर रहे हैं, उनके लिए यह लेक्चर बहुत उपयोगी हैं। मैं सभी को आमन्त्रित करूँगा कि साहित्य कुञ्ज के होमपेज पर इन विडियो के लिंक द्वारा इन्हें देखें और इनका लाभ उठाएँ। प्रेमचंद साहित्य पर यह वीडियो डॉ. आरती स्मित के प्रयासों का अंत नहीं है। अभी तो कहानी शुरू हुई है। उनसे जब भी बात होती है, हम दोनों यूट्यूब पर साहित्य की संभावनाओं पर घंटों बात करते हैं। धीरे-धीरे यह सम्भावनाएँ साकार रूप लेंगी।
जिन नकारात्मक विचारों की आरम्भ में बात की थी, वह यहीं पर आकर ध्वस्त हो जाते हैं। २००३/०४ में जब साहित्य कुञ्ज आरम्भ किया था तो मैंने ऐसे ही समय की कल्पना की थी। इंटरनेट की पूरी शक्ति का उपयोग हिन्दी साहित्य के लिए करना। आज हम तकनीकी युग में हैं और हिन्दी साहित्य इंटरनेट की सीमाओं को जाँच रहा है, सम्भावनाओं को भाँप रहा है। चाहे हमें विश्वविद्यालय छोड़े दशकों बीत चुके हैं, फिर भी साहित्य के सभी पक्षों को समझने में जो आनन्द आता है, वह शायद विद्यार्थी होते हुए नहीं आता था। मुझे एक घटना याद आ रही है शायद 1974 की है। मैं अभी कैनेडा में नया था। मेरे ताया जी के बेटे रणवीर भाईसाहिब हैमिल्टन (ओंटेरियो) में थे। एक बार उनसे मिलने गए तो देखा कि ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर एक कॉपी में कैल्कुलस के कुछ फ़ार्मूले लिखे हुए थे और लग रहा था कोई केल्कुलस की समस्याओं को सुलझा रहा है। पूछने पर भाईसाहिब ने बताया कि वह ख़ाली टाईम में यह करते हैं। रणवीर भाईसाहिब मुझ से शायद सोलह वर्ष बड़े थे। मैंने अपनी हैरानी जताई, “मुझे तो कॉलेज में कैल्कुलस से बहुत चिढ़ थी। बस एक विषय के रूप में इसे पढ़ना पड़ता था, और आप . . .” भाईसाहिब मुस्कुराए, “बिलकुल सही, यही मेरा भी हाल था। पर न जाने क्यों अब मुझे इसमें आनन्द आता है।” बात शायद दृष्टिकोण की है। पहले कैल्कुलस को सीखना विवशता थी, और अब भाईसाहिब के लिए एक चुनौती और मनोरंजन का साधन।
क्या ऐसा ही हिन्दी साहित्य के बारे में नहीं हो सकता? पहले साहित्य का अध्ययन करना हिन्दी विषय को उत्तीर्ण करने के लिए विवशता थी, परन्तु अब यह मनोरंजन का साधन हो सकता है। जब अनिवार्यता का अंकुश हट जाता है तो पाठक का दृष्टिकोण भी बदल जाता है।
साहित्य कुञ्ज में आलेख मेन्यू के अन्तर्गत उपविधाओं में ऐसे ही आलेखों का भण्डार है। आप सभी को आमन्त्रित करता हूँ कि इन्हें पढ़ें और अगर आप इस विधा में योगदान देना चाहते हैं तो अवश्य दें। आपका स्वागत है। अगर आपके पास पूर्व प्रकाशित शोध-निबन्ध हैं, वह भी भेजिए। अगर चाहें तो उनकी ऑडियो फ़ाइल भी भेज दें। इस तरह से आलेख की ऑडियो और लिखित रूप से, दोनों ही साहित्य कुञ्ज में आपके फ़ोल्डर में पाठक को मिलेंगे।
हालाँकि डॉ. आरती स्मित प्रेमचंद शृंखला अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर रही हैं और उसके लिंक मैं साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित कर रहा हूँ, पर मैं प्रत्येक लेखक को ऐसा करने का परामर्श नहीं देता। इसके कई कारण हैं। पहला कारण है कि मैं चाहता हूँ कि एक ही जगह पर ऐसे आलेख/ऑडियो, पाठक/श्रोता को मिलें। दूसरा, यूट्यूब में अपलोड करने के लिए ऑडियो को वीडियो में परिवर्तित करना पड़ता है। इसके लिए ग्राफ़िक्स या कई बार पार्श्व संगीत भी लोग मिश्रित कर देते हैं। अगर इनमें से किसी एक पर भी कॉपीराइट है तो यूट्यूब उसे पकड़ लेता है और इसका दोष अपलोड करने वाले यानी साहित्य कुञ्ज पर लग जाता है। अगर ऐसा बार-बार हो तो दोषी की चैनल को हटा दिया जाता है और उस पर नई चैनल बनाने का प्रतिबंध भी लग जाता है। इसलिए वीडियो नहीं मुझे ऑडियो फ़ाइल ही भेजें। तीसरा कारण यह है कि एक-दो बार ऐसा भी हुआ है कि किसी लेखक ने मुझे अपनी रचनाओं के लिंक भेजने के कई माह बाद अपनी चैनल का नाम बदल दिया। साहित्य कुञ्ज में अपलोड किए हुए लिंक बेकार हो गए और मुझे फिर से सब कुछ करना पड़ा।
यहीं पर सम्पादकीय को विराम देता हूँ। शायद पूरे लॉन को पानी दिया जा चुका है। अब एक-दो दिन में घास के फिर से हरी होने की प्रतीक्षा भी करनी है। अँग्रेज़ी में एक दो कहावते हैं, “वाच द ग्रास ग्रो” और दूसरी है “सी द पेंट ड्राई” दोनों का अर्थ एक ही है। सब कुछ करने हटने बाद परिणाम की प्रतीक्षा करने की मनःस्थिति की बात है।
— सुमन कुमार घई
4 टिप्पणियाँ
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आदरणीय आप कितनी सहजता से सब की मन कह देते हैं। यह विचार कभी न कभी सभी के मन मे आता है। आप इतने वर्षों से साहित्य की सेवा कर रहे हैं, इतने नए पुराने लेखकों को निरन्तर मंच प्रदान कर रहे हैं, आपका योगदान प्रेरणा का स्रोत है। आपकी ऊर्जा और समर्पण अनुसरणीय है। एक कर्मठ योगी की तरह आप चले जा रहे हैं, आप को शायद अंदाजा नहीं कि कितने लोग आपके पीछे चल रहे हैं। आपको व आपकी लेखनी को नमन!!
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आभार सर! आपने अपने सम्पादकीय में हर एक बिंदु को जिस खूबसूरती से रखा है, वह लालित्यपूर्ण है। मुझे तो दूब की नोक पर टिकी मुस्कुराती शबनम दिख रही है। साहित्य की बगिया में आपका योगदान सार्थक और सराहनीय है। निश्चित तौर पर हम आगे भी भिन्न-भिन्न वर्ग और वय के पाठक/श्रोता मित्रों के लिए साथ-साथ बेहतर करते जाएँगे। साधुवाद!
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लॉन की घास हो या साहित्य -सृजन हो - सबको अपनी ऊर्जा की फुहार से सींचना ही पड़ता है। हमारे सक्रिय होने से हरियाली बनी रहती है। हर जगह हरियाली की ज़रूरत है। अच्छे संपादकीय के लिए बधाई !
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बहुत हीं सुंदर संपादकीय। आपने सोंचा "अगर मैं यह नहीं करूँगा तो क्या साहित्य-धारा बहनी बंद हो जाएगी? साहित्य के जगत में मेरा अस्तित्व ही कितना है? अगर आज नहीं भी रहूँ तो कौन सा अंतर पड़ने वाला है! प्रायः ऐसे विचारों से दो-चार होता रहता हूँ।" वास्तव में यह भाव एक विदेह भाव है जिसमें अपनी इतनी बड़ी और लंबी सेवा के बदले भी न तो किसी श्रेय की आशा है और न हीं कोई दावा। यह एक दुर्लभ भाव है। वरना बहुत से लोग तो अपनी छोटी सी सेवा के बदले भी पता नहीं कितनी आकांक्षाएँ पाले रहते हैं। साहित्यकुञ्ज (माननीय संपादक जी) ने कनाडा में बैठकर भी देश विदेश में जितने साहित्यकार खड़े किये हैं मेरी जानकारी में ऐसा कहीं और नहीं हुआ है। मैंने पहले भी कहा था और आज भी कह रहा हूँ। यह हिन्दी साहित्यिक समाज का दुर्भाग्य है कि वह एक महान कर्मयोगी को चुपचाप कर्म करते देख रहा है। सबकुछ देखते सुनते जानते पहचानते भी आँखें मुंदे मौन बैठा है। एक खाली बैठे हुए रिटायर्ड साहित्यप्रेमी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह साहित्यकुञ्ज में अपने पसंद की विधाओं को पढे और उसपर अपनी कोई सच्ची प्रतिक्रिया लिख दे। (मुझे लगता है कि रचनाओं पर सच्ची सटीक टिप्पणी भी एक प्रकार की साहित्य सेवा है) वहीं हर महीने दो दो अंकों की पुरी सामग्री को पढना, उसमें से प्रकाशन योग्य को अलग करना, उसे संपादित करना, लेखकों को सूचित करना, रचनाओं का हिसाब भी रखना, और सबकुछ हो जाने के बाद यह चिंता भी रखना कि पहली और पंद्रहवीं तारीख को पाठक सुबह पाँच बजे हीं नया अंक ढूँढना शुरु कर देंगे इसलिए नये अंक को समय पर अपलोड करना। पारिवारिक दायित्वों को निभाना। पोते-पोतियों से संवाद स्थापित रखना। घर के लोन के घास पेड़ पौधों का ध्यान रखना और बिना समय गँवाए पुनः अगले अंक की तैयारी में लग जाना। इसके अतिरिक्त अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ, पुस्तक बाजार की व्यवस्था। बेबसाइटों का तकनीकी नियंत्रण। और यह सबकुछ बिना किसी सहायक के बिल्कुल अकेले। अचरज नहीं किसी दिन यह शोध का विषय बनें कि इतनी बौद्धिक उर्जा, कहाँ से आती है। सभी वरिष्ठ साहित्यकारों, साहित्यिक संस्थाओं से मेरा आग्रह है कि माननीय श्री सुमन कुमार घई महोदय के लिए हिन्दी साहित्य के उच्च पुरस्कारों एवं सम्मान के बारे में विचार किया जाए। साहित्यकुञ्ज हिन्दी साहित्य के घर के घास का वह बड़ा लाॅन है जिसे संपादक महोदय नियमित रुप से न सिर्फ पानी दे रहें हैं बल्कि उसकी कटाई छँटाई सफाई करके उसे हरा भरा और सुंदर बनाये रखते हैं। मैं आपको वर्तमान हिन्दी साहित्य के महान संपादकों में सर्वोच्च मानता हूँ। मेरा हृदय भी यही कहता है। आपकी साहित्य सेवा अमूल्य है अथाह है असिमित है। हिन्दी साहित्य को एक दिन अवश्य हीं इसका आभास होगा।
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