प्रिय मित्रो,
इन दिनों एक प्रश्न से जूझ रहा हूँ यद्यपि मैं उत्तर जानता हूँ, परन्तु अपने साथ बहस कर रहा हूँ। हुआ यह कि पिछले सप्ताह मैंने अपनी पत्नी को दिलासा देते हुए कुछ ऐसा कह दिया जो उसे सही लगा, और मैं अपनी समझदारी और ज्ञान पर अपनी पीठ थपथपाने लगा और दिन भर प्रसन्नचित्त रहा। परसों मेरी प्रसन्नता को चार चाँद तब लग गए जब मैंने सुना कि नीरा अपनी छोटी बहन को गर्व से मेरी कही बात को सुना रही थी और उधर से छोटी बहन कह रही थी “जीजा जी बहुत ऊँचा सोचते हैं”। आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी प्रसन्नता और गर्व किन सीमाओं को छू रहा होगा। एक सप्ताह ऐसे ही बीता। चलिए अब आपको बता ही देता हूँ कि मैंने ऐसा क्या कहा कि मैं प्रशंसा का पात्र बना।
जैसा कि मैं कई बार अपने सम्पादकियों में घर में सब्ज़ियाँ आदि उगाने की रुचि के बारे में लिख चुका हूँ। इस घर में आते ही (लगभग छह वर्ष पूर्व) मुझ पर खेती-बाड़ी करने के लिए प्रतिबन्धित कर दिया गया। होता यह था कि लालच या अतिउत्साहित होकर मैं आवश्यकता से अधिक पौधे लगा लेता था और बाद में सब्जियों की फ़सल को सँभालना कठिन हो जाता था। मित्र, पड़ोसी आदि भी मेरी सब्ज़ियों को स्वीकार करने से आनाकानी करने लगे थे। मैं सब्ज़ियाँ उतार कर किचन के काउंटर पर रख देता और सँभालती नीरा। एक दिन मैंने चालीस पाउंड (लगभग 19 किलो) टमाटर उतार कर काउंटर पर धर दिए। नीरा ने दुःखी होकर मुझे कह दिया कि वह तो इन्हें नहीं सँभालेगी और वह काम पर चली गई। उस रात मैं रात के ग्यारह बजे तक टमाटर छील कर उनकी सॉस बनाकर, शीशे की बोतलों में भर कर फ़्रीज़र में डालता रहा। बाद में रसोई साफ़ करते-करते रात के बारह बज गए। उस दिन मुझे अनुभव हुआ की वास्तव में ही मैं नीरा का शोषण कर रहा था क्योंकि उस वर्ष अस्सी पाउंड से अधिक टमाटर लगे थे।
जब पुराना घर बेच कर छोटे घर में जाने की बात आरम्भ हुई तो नीरा ने चेतावनी दे डाली की नए घर में क्यारियों में केवल फूल लगेंगे। हम दो जन घर में रहते हैं, कितनी सब्ज़ियाँ चाहिए होती हैं जो इतना परिश्रम करते हो आप। मैं उससे सहमत हो गया, होना ही पड़ना था, सो हो गया। तीन वर्ष तो चैन से निकल गए। फिर आश्चर्य दो बरस पहले तब हुआ जब नीरा कुछ हरी मिर्चों को पौधे ख़रीद लाई। अब चेतावनी देने की बारी मेरी थी कि तुम लाई हो तुम्हीं सँभालो। अंततः सँभलना तो मुझे ही था, हुआ भी ऐसे ही पर मैं इस बात से आश्वस्त अवश्य हो गया कि खेती-बाड़ी का शौक़ अकेले मुझे ही नहीं है। वैसे मैंने अपने लिए एक सुरक्षा कवच बना रखा है। पौधे ख़रीदने नर्सरी मैं नहीं जाता। नीरा ख़रीदती है और मैं लगाता हूँ इसलिए अधिक उत्पादन के दोष/दायित्व से बच जाता हूँ। पिछले वर्ष नीरा ने छह प्रकार की हरी मिर्च के छह-छह पौधे ख़रीद लिए। मिर्चें हुईं तो उन्हें पीस कर फ़्रीज़ नीरा को ही करना पड़ा।
इन गर्मियों में नीरा ने योजनाबद्ध रूप से पौधे ख़रीदे। दो पौधे वह सीसिलियन बैंगन (यह बैंगन हल्के बैंगनी रंग के सफ़ेद आभा लिए हुए होते हैं) ख़रीदे। पहला बैंगन दिन प्रतिदिन बड़ा होने लगा। हर सुबह मैं और नीरा हाथों में चाय कप लेकर बैंगन के आसपास घूमते और सोचते कि एक सप्ताह के बाद ही तोड़ेंगे, तब तक यह सही आकार का हो जाएगा। हम लोग नहीं जानते थे कि कोई जंगली खरगोश भी हर रात यही सोचता हुआ बैंगन के आसपास घूम रहा है। परन्तु उसके लिए बैंगन का सही आकार हो गया था या वह हमारी तरह लालची नहीं था। एक सुबह उठे तो मुझे दूर से ही बैंगन पर अधिक सफ़ेदी दिखी। पास गए तो देखा कि आधा बैंगन खाया जा चुका है। नीरा को ग़ुस्सा आना ही था। वह खरगोश को भला-बुरा कहने लगी तो मैंने दार्शनिक होते हुए कहा, “उसका क्या दोष। यह ज़मीन हमसे पहले उसी की थी। अतिक्रमण तो हम लोगों ने किया है। उसके लिए हमने पौधा लगाया था सो खा गया।” नीरा हँस पड़ी और बात आई-गई हो गयी।
यहीं पर कहानी की दिशा पलटती है।
दो दिन पहले मैं पिछले लॉन में टहल रहा था और पेड़ों को देख कर उनकी विशालता और हरियाली की प्रशंसा कर रहा था। सोच रहा था कि पेड़ तो हर घर में होने ही चाहिएँ। अगर संभव हो तो एक लॉन में कम से कम एक पेड़ तो हो ही। तभी मेरे पैर को ठोकर लगी। नीचे देखा तो पिछले आँगन की इंटर-लॉकिंग की टाइल समतल नहीं थी और ऊपर उठ आई थी। फिर ग़ौर से देखा तो पैटियो (आँगन) की टाइल्ज़ बहुत उबड़-खाबड़ हो चुकी थीं। पहले कभी ध्यान गया ही नहीं था। दोषी वही मेपल का पेड़ था जिसकी भव्यता देख-देख मैं निहाल हो रहा था। मैं मन ही मन बुदबुदाया, ‘इस पेड़ को तो कटवाना ही पड़ेगा।’
पिछली सर्दियों की घटना याद आ गई। एक तूफ़ान में छत पर परछत्ती में लगे ‘वेंट’ (हवा की आवाजाही के लिए बना झरोखा) का कवर टूट कर उड़ गया था। उसी रात एक रकून (एक बिल्ली से थोड़े बड़े आकार का जानवर) ने इसी पेड़ से छत पर छलाँग लगा कर वेंट को प्रवेश-द्वार बनाकर परछत्ती में रहने का प्रबन्ध आरम्भ कर दिया था। उसे निकालने और वेंट पर जाली लगवाने में पाँच सौ डॉलर लगे थे। भरी सर्दी में मुझे पेड़ की एक शाखा काटनी पड़ी थी। तब भी भावुक होकर मैंने अपने सम्पादकीय में लिखा था। इस बार पेड़ का घर पर आक्रमण शाखाओं की ओर से नहीं जड़ों की ओर से था। सतही जड़ें पैटियो के नीचे विकसित हो रही थीं।
इतने में नीरा दो कप चाय लेकर बाहर आई। मैंने उसे समस्या दिखाई और कहा, “इस पेड़ को तो कटना ही पड़ेगा।”
नीरा मुस्कुराई, “यह भूमि तो इन पेड़ों की थी। अतिक्रमण तो हम लोगों ने किया है। इस पेड़ का क्या दोष।”
तब से मन में मंथन चल रहा है। पचास वर्ष से पुराने पेड़ की नियति तय करने वाला मैं कौन होता हूँ? अगर कठोर कदम न उठाया तो एक-दो वर्ष में मेरा आँगन पोते-पोती के खेलने के लायक़ नहीं बचेगा। कटना तो पेड़ को ही पड़ेगा। पर फिर भी मैं अभी से पेड़ के कटने का शोक तो मना ही सकता हूँ, मृत्यु दण्ड देने वाला भी मैं ही हूँ, दण्ड देने के संताप को भोगने वाला भी मैं ही हूँ।
— सुमन कुमार घई
3 टिप्पणियाँ
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रोचक संपादकीय। ऐसा अनुमान है कि कनाडा, विशेषकर कनाडा में भारतीय आज भी प्रकृत्ति के बहुत नजदीक है। माननीय संपादक जी को भी पेंड़ पौधों से कितना लगाव है। मै तुलना कर रहा हूँ अपने देश भारत के समर्थ शहरियों से। उनकी बागवानी में सब्जी अथवा गेंदा, गुलाब, चमेली, क्राॅटन जैसे मन मोहने वाले पौंधे नहीं होते। मगर काँटेदार कैक्टस की दस-बीस प्रजातियाँ अवश्य होती है। पता नहीं वे काँटों के सौन्दर्य को इतनी प्राथमिकता क्यों देते हैं।
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आदरणीय संपादक महोदय एकदम अपने घर की समस्या जैसा लगता हुआ आपका संपादकीय अति रोचक लगा। आपकी समस्या के बारे में मैं कुछ सुझाव देना चाहती हूं कि पेड़ को काटने की जल्दी मत करिएगा क्योंकि आप के पोते पोती निरंतर बड़े हो जाएंगे और शायद बैकयार्ड में खेलने के बदले दूर पार्क या जिम में जाकर खेलना अधिक पसंद करें ।दूसरे जब तक वह बच्चे छोटे हैं तब तक टाइले वहां से अगर हटा दी जाए तो आपके बच्चों को धरती की माटी में खेलने का भी सुख मिलेगा ।एक उपाय यह भी हो सकता है कि उभरी हुई जड़ों को केवल काट कर निकाल दिया जाए । वृक्ष का काटना अंतिम विकल्प होना चाहिए और मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप लोगों का भी यही मत होगाः। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैंः
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बहुत सुन्दर अनुभव। खरगोश के संदर्भ में मुझे एक बात याद आ रही है। अभी जुलाई २५ को में अल्मोड़ा, जागेश्वर जा रहा था। हल्द्वानी से अल्मोड़ा जाते समय गरमपानी, खैरना से आगे जाते समय मैंने ड्राइवर से कहा," पाँच साल पहले भी यह सड़क ऐसी ही थी।" उसने कहा बीच में ठीक थी,फिर खराब हो गयी है। नदी ने अपना बहाव बदला है और पहाड़ से मिट्टी, पत्थर बह कर रास्ते में आ गये थे। पहाड़ से पत्थर गिरते हैं। बीच-बीच में दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं,वाहन चपेट में आ जाते हैं। सड़क पर कट-कट की आवाज हो रही थी,निर्माण कार्य के कारण। तो ड्राइवर बोला," हमारे गाँव की सड़क पर निर्माण कार्य के समय, ऐसी कट-कट की आवाज सुनकर बाघ ने अपनी गुफा छोड़ दी।" मैंने उससे कहा," मनुष्य जहाँ पहुँचेगा वहाँ ऐसा ही होता है।"
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