प्रिय मित्रो
आप सबको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
पिछले अंक से साहित्य कुञ्ज की आलेख विधा के मेन्यू में एक नई उप-विधा ’सांस्कृतिक आलेख’ के नाम से आरम्भ की है। पहले सांस्कृतिक आलेखों को सामाजिक में प्रकाशित किया जाता रहा है। सदा से ही मेरे मन में कुछ संशय रहे हैं, उनकी बात करना चाहता हूँ।
संस्कृति समाज का एक महत्वपूर्ण अंश है बल्कि कहना चाहिए समाज के गठन की नींव का पत्थर है। यह भी अकाट्य तथ्य है कि संस्कृति की उत्पत्ति और विकास के कारकों में से एक ’स्थानीय धर्म’ भी है। बाहर से आए हुए धर्मों का प्रभाव हो सकता है परन्तु ध्यातव्य शब्द हैं ’स्थानीय धर्म’। क्योंकि बाह्य धर्म का प्रभाव रीतियों तक ही सीमित होता है और अन्ततः वह भी समय के साथ बदल जाती हैं और स्थानीय रीतियों में विलय होने लगती हैं। समय के साथ धर्म तो समाज के वर्ग-विशेष में जीवित रह सकता है परन्तु रीतियाँ बदल जाती हैं। इसीलिए जो धर्म भारतीय उप-महाद्वीप में विकसित हुए उनमें समानता है। इसका कारण यह भी है कि कोई भी धर्म अधिकतर पूर्व प्रचलित धर्म के एक मत के रूप में उदय होता है और जीवित रहता है। बाद में उस मत को स्वतन्त्र धर्म की मान्यता मिल जाती है; वह अलग बात है।
हम बात संस्कृति की कर रहे हैं, इसलिए, भारत में उत्पन्न हुए मतों/धर्मों को ही देखते हैं। इनमें रीतियों और प्रथाओं में समानता है। नाम अलग-अलग हो सकते हैं पर त्योहार एक-से ही हैं। पूजा का मौलिक विधान एक सा ही है। सामाजिक रीतियों में भी देश के विभिन्न अंचलों में समानता है। यहाँ पर संस्कृति अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। हाँ, धर्म पर भी हावी हो जाती है! उदाहरण के तौर पर हम ईसाई धर्म की बात करते हैं क्योंकि यह विश्व के प्रत्येक कोने में फैला हुआ है। कैरेबियन देशों में ईसाई धर्म का अनुसरण जिन प्रथाओं द्वारा किया जाता है वह विश्व के किसी अन्य भाग में नहीं किया जाता। इसी तरह अफ़्रीका की ईसाई प्रथाएँ युरोपियन प्रथाओं से विभिन्न हो सकती हैं। इस उदाहरण में स्थानीय संस्कृति, धर्म पर हावी होती दिखाई देती है।
संस्कृति स्थानीय ही होती है। प्राचीन सभ्यताओं में देखा गया है कि कई बार विश्व के विभिन्न भागों में एक-सी संस्कृति की झलक मिलती है। यह केवल झलक मात्र होती है, क्योंकि संस्कृति के विकास पर सभ्यता का प्रभाव होता है और सभ्यता स्थानीय भौगोलिक, ऐतिहासिक परिस्थितियों से प्रभावित होती है।
हम सब स्वीकार करते हैं कि साहित्य और संस्कृति का चोली-दामन का साथ है। यह अलग विषय है कि संस्कृति से साहित्य का जन्म होता है या साहित्य संस्कृति को दिशा प्रदान करने में सहायक होता है।
साहित्य कुञ्ज में सांस्कृतिक आलेख उपविधा को आरम्भ करने की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई – इसकी चर्चा करना अति-आवश्यक है। मैं धर्म को साहित्य से अलग रखने का प्रयास करता हूँ, क्योंकि धर्म इतना निजी है कि इसकी परिभाषा भी व्यक्तिगत स्तर पर स्वीकार की जाती है। अर्थात् हरेक व्यक्ति धर्म की परिभाषा को अपने अनुसार गढ़ सकता है। इस तर्क में कोई मतभेद नहीं है कि भारत उप-महाद्वीप के प्राचीनतम धर्म को सनातन की संज्ञा दी जाती है। अन्य सब इस सनातन दर्शन के विभिन्न मत हैं।
सनातन धर्म तो क्या, विश्व के किसी भी धर्म को देख लें, सभी के विभिन्न मत मिल जाएँगे। कई बार इन मतों में भी इतना विभेद होता है कि वैमनस्य की सीमा पार करके हिंसक हो जाता है। किन्हीं धर्मों में तो यह भेद, धर्म की स्थापना से ही हिंसक हो गया था, या दूसरे शब्दों में कहा जाए की इन धर्मों की उत्पत्ति भी हिंसा से हुई। यह वाक्य भी विवादस्पद हो सकता है।
विषय पर वापिस लौटते हुए कि क्या धर्म को वास्तव में साहित्य से अलग रखा जा सकता है? संभवतः नहीं परन्तु सम्पादकीय और प्रकाशक के अधिकार का प्रयोग करते हुए साहित्य में धर्म की आगत को सीमित रखने का प्रयास किया जा सकता है। यह प्रश्न तब विषम हो जाता है जब मैं संस्कृति, धर्म और साहित्य के त्रिकोण को देखता हूँ। सनातन संस्कृति से उत्पन्न हुआ साहित्य उतना ही प्राचीन है जितनी कि संस्कृति। आधुनिक साहित्य फिर किस तरह सनातन संस्कृति से अलग रह सकता है? यहाँ पर ध्यान देने योग्य एक सत्य यह भी है कि सनातन धर्म ने सभी मतों को विकसित होने की स्वतन्त्रता दी और इन मतों को मुख्यधारा में स्वीकार भी किया। सनातन धर्म में, जहाँ तक मैं समझता हूँ, ईश-निन्दा का शब्द कभी सुनने भी नहीं आता। क्योंकि हमारी संस्कृति धर्म पर तर्क-वितर्क करने की स्वतन्त्रता देती है; उपनिषद् इसी प्रक्रिया से ही तो उत्पन्न हुए हैं। भारतीय साहित्य में भक्तिकाल में क्या भारतीय सन्तों ने प्रचलित धार्मिक प्रथाओं पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया? क्या उस साहित्य पर ईश-निन्दा की चिपकी लगा दी जाए? नहीं, यह हम स्वीकार नहीं कर सकते। परन्तु वर्तमान की परिस्थितियों से भी आँख नहीं मूँद सकते। जिस समाज में असहिष्णुता व्यापक हो, उस समाज में साहित्य, संस्कृति और धर्म के त्रिकोण को कैसे संतुलित किया जाए– इसका समाधान मैंने अपनी सोच के अनुसार क्रियान्वित किया है। धर्म को आन्तरिक मनन के लिए अलग छोड़ रहा हूँ। हम सांस्कृतिक आलेख में दिल भर कर संस्कृति की बात कर सकते हैं, जिसमें धर्म एक अंश है ही। एक अन्य उप-विधा कुछ महीने पहले आरम्भ की थी ’चिंतन’ इसमें हम धार्मिक, सामाजिक प्रथाओं या धार्मिक दर्शन पर अपने चिंतन को स्वतंत्र अभिव्यक्ति दे सकते हैं। परन्तु ध्यान रहे यह स्वतंत्रता किसी भी धर्म की निन्दा करने की नहीं है, किसी पर आक्षेप करने की नहीं है। किसी भी राजनैतिक विचारधारा के लिए यह मंच नहीं है। हमारी रचनाओं में राजनीति दर्शन की छाया रहती है, जो तब तक स्वीकार्य जब तक वह साहित्यिक मूल्य रखती हो।
आप सभी को आमन्त्रित करता हूँ कि आप मेरे विचारों से सहमत या असहमत होने की टिप्पणियाँ करें; आपका स्वागत है।
आशा है कि इन दोनों उप-विधाओं को आप स्वीकार करेंगे और साहित्य कुञ्ज का पटल और व्यापक होगा। आप सबका स्वागत है। एक बार फिर से सभी को दीपावली की सपरिवार शुभकामनाएँ!
— सुमन कुमार घई
4 टिप्पणियाँ
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संस्कृति धर्म और साहित्य पर सुंदर विचार. निश्चित हि मार्गदर्शी सिद्ध होगा. शुभकामनाएं.
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श्रद्धेय परममादरीय सम्पादक महोदय आपने जो विचार यहाँ रखी मुझै अशतः बेहद तौरपर पसन्द आया । धर्म राजनीति तथा साहित्यके बारेमा जो विचार अभिव्यक्त हैँ उनपर मुझे अपना ही विचार का बोध हुआ । इस पर मै आप का आभारी हुँ । 11 nov 2021
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बहुत सुन्दर विश्लेषण। सनातन धर्म एक जीवन शैली लगता है जहाँ कठोरता नहीं है। यह संस्कृति में भी परिवर्तित हो जाता है। और संस्कृति फिर पवित्रता/उन्नयन ग्रहण करने के लिए अनेक माध्यम चुनती है जहाँ मनुष्य अच्छी भावनाओं को प्रकट करने,अनुभव करने के लिए जाता है।
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बहुत सुंदर व्याख्या की है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ० राधा कृष्ण ने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि सनातन संस्कृति को पाश्चात्य धर्म की परिभाषा से नहीं समझा जा सकता है। वह तो अपने में सेक्युलर है
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