आज के दिन का आरम्भ बहुत अजीब रहा। सुबह बहुत जल्दी नींद खुल गई। इतनी जल्दी कि अभी कैलिफ़ोर्निया में हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार वीणा विज ’उदित’ अभी जाग रहीं थी। कैलिफ़ोर्निया का समय हमसे तीन घंटे पीछे है। व्हाटसऐप पर अपने संस्मरण शृंखला की पहली किश्त भेजने के बारे में उन्होंने पूछा और भेज भी दी। इस अंक से संस्मरणों की रोचक शृंखला “छुट पुट अफ़साने” आरम्भ हो रही है। वीणा जी से मेरा परिचय साहित्य कुञ्ज के द्वारा ही आरम्भिक दिनों में ही हो गया था। अच्छी मंझी हुई कहानीकार हैं। यह तो सुखद आरम्भ था। समय सुबह के 2:54 का था।
संस्मरण को उसी समय संपादित किया। फोटो गैलरी बना कर जब अपलोड करने लगा तो पता चला कि साहित्य कुञ्ज का डैशबोर्ड, जिसके द्वारा मैं सब कुछ अपलोड करता हूँ, वह हैक हो गया है। साहित्य कुञ्ज की बजाय वहाँ कंग-फ़ू और अन्य मार्शल आर्ट्स की बेवसाइट का कुछ अंश दिख रहे थे। ढंग ढंग से लॉग-इन का प्रयास किया कोई साकारात्मक परिणाम नहीं मिला। फिर याद आया कि कल सुबह के आठ के बाद से तो कंप्यूटर ऑन ही नहीं किया था। कारण, सुबह ग्यारह बजे टोरोंटो के भारतीय कांसुलेट ने टोरोंटो क्षेत्र के साहित्यिक और हिन्दी प्रचार-प्रसार में जुटे हिन्दी कर्मियों को सम्मानित करने के लिए कांसुलेट के सभागार में एक कार्यक्रम आयोजित किया था। मेरी कार में डॉ. शैलजा सक्सेना, विजय विक्रान्त जी, उनकी पत्नी कान्ता जी और हिन्दी राइटर्स गिल्ड की तकनीकी निदेशिका, कवयित्री और उपन्यास लेखिका पूनम चन्द्रा ’मनु’ जा रहे थे। सुबह साढ़े नौ तक निकलने का समय तय हुआ था, क्योंकि रास्ता लगभग पैंतीस-चालीस मिनट का था।
समय से पहले पहुँचना आवश्यक था। कार्यक्रम के दौरान भारतीय कौंसलाधीश अपूर्वा श्रीवास्तव जी ने साहित्य कुञ्ज के “कैनेडा का हिन्दी साहित्य” विशेषांक का लोकार्पण करना था। प्रयास था कि जो पॉवर प्वाइंट प्रस्तुति तैयार की है, उसे एक बार कार्यक्रम से पहले चला कर देख लिया जाए। सब कुछ अच्छा चला। कार्यक्रम भी बहुत सफल हुआ और प्रस्तुति भी। अपूर्वा जी ने व्यक्तिगत तौर पर भी साहित्य कुञ्ज की बहुत सराहना की। कार्यक्रम में तीन बच्चों ने काव्य प्रस्तुतियाँ की और उसके बाद कवियों ने मंच सँभाल लिया। कविताएँ बहुत अच्छी रहीं। प्रायः ऐसा होता है कि हम अपनी ओर से कविता चुनकर जाते हैं परन्तु अन्य कविताओं से जो माहौल बन जाता है आप भी अपनी कविता बदल लेते हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। दिल किया मैं अपनी एक छोटी सी कविता सुनाऊँ। याद तो थी नहीं, सोचा मोबाइल पर साहित्य कुञ्ज में पढ़कर सुना दूँगा। तब भी साहित्य कुञ्ज अपलोड नहीं हो पाया था . . . यानी समस्या कल से ही चल रही थी। पर फिर आश्चर्य हुआ, साहित्य कुञ्ज ग्रुप में या ई-मेल से किसी ने शिकायत क्यों नहीं की? ख़ैर बात भूल गया और कार्यक्रम के बाद घर लौटा। क्योंकि नीरा (मेरी पत्नी) एक दिन पहले ही भारत से लौटी थी, बच्चे भी मिलने आ रहे थे तो रात को उनके जाने के बाद भी कम्प्यूटर नहीं खोला था।
अब मैं वर्तमान में लौट चुका था। आज साहित्य कुञ्ज को पूरी तरह से अपलोड करना आवश्यक था, क्योंकि कल यानी पन्द्रह को अंक पाठकों के पास पहुँच जाना चाहिए। अब हाथ पैर थोड़ा फूलने आरम्भ हुए। उसी समय व्हाट्सऐप पर प्रोग्रामर से सम्पर्क साधा। उसने एक घंटे का समय माँगा। तब तक मैं सम्पादन का काम करता रहा। फिर विपिन (प्रोग्रामर) से बात हुई। वह हँसते हुए बोला, “सर लगता है कि कोई साहित्य कुञ्ज के पीछे हाथ धोकर पड़ा गया है।” पूछा क्यों? तब तक वह हैकिंग करने वाली फ़ाइल्स को ढूँढ़ चुका था। उसने बताया कि ठीक यही समस्या साहित्य कुञ्ज के साथ दो महीने पहले भी हुई थी। अंततः सब सुलझ गया। चैन की साँस ली और काम में फिर से जुट गया। दोपहर के खाने के बाद लौट कर संपादकीय के विषय पर सोच रहा था; कल का कार्यक्रम और उसमें सुनी उत्तम रचनाएँ अभी तक मानस में गूँज रही थीं। सोचा इसी पर लिखूँगा।
इतने में भारत से दयानंद पाण्डेय जी का आलेख मिला। आलेख का शीर्षक पढ़ कर ही मैं स्तब्ध रह गया—“कश्मीर फ़ाइल्स में नरसंहार देखने के बाद नींद उड़ गई है मेरी”। आलेख पढ़ना आरम्भ किया मनःस्थित बिलकुल बदल गई। हालाँकि कल भी विद्याभूषण धर जो स्वयं विस्थापित कश्मीरी ब्राह्मण हैं ने कविता पढ़ी थी “विवेक तुम आज के कल्हण हो”, और कार्यक्रम के बाद साहित्यकार मित्र यह भी तय कर रहे थे कि हिन्दी राइटर्स गिल्ड के सब लोग मिलकर एक ही दिन “कश्मीर फ़ाइल्स” देखने चलें। परन्तु इस आलेख ने तो सब कुछ बदल दिया।
आमतौर पर मैं साहित्य कुञ्ज में राजनैतिक, विवादस्पद विषयों से बचता हूँ। परन्तु यह विषय वर्षों तक छिपा रहा, अब जब विवेक अग्निहोत्री और पल्लवी जोशी ने लोगों के आँख में उँगली डाल कर इस त्रासदी ओर ध्यान खींच लिया है, तो कैसे बचा जा सकता है? भारत के आधुनिक इतिहास में इतना कुछ हो गया और हम द्वितीय महायुद्ध में यहूदियों के नरसंहार की ही बात करते रह गए। लज्जाजनक सच्चाई है और अभी भी कुछ राजनैतिक शक्तियाँ (?) दुहाई दे रही हैं कि इन इतिहास के पन्नों को फाड़ दें। क्यों? हमें यहूदियों से सीखना चाहिए। यहूदी समाज, परिवार यह सुनिश्चित करता है कि एक-एक बच्चा समझे और याद रखे कि उनके पूर्वजों ने नरसंहार देखा और भोगा है। द्वितीय महायुद्ध से ठीक पहले हिटलर का तुष्टिकरण इंग्लैंड की सरकार कर रही थी। यू.एस.ए. अलग हो कर बैठा था कि समस्या यूरोप में हो रही है, मैं प्रशान्त महासागर के दूसरे तट पर सुरक्षित हूँ। इसी तुष्टिकरण की नीति का परिणाम लगभग पूरे यूरोप की तबाही में परिवर्तित हुआ। अगर महायुद्ध से पहले चरणों में यहूदियों पर हो रहे अत्याचारों के प्रति पूरी दुनिया सचेत हो जाती तो परिणाम कुछ और ही होते। आज इतिहास बताता है कि रोमन कैथोलिक चर्च ने भी आँखें फेर ली थीं क्योंकि नरसंहार यहूदियों का हो रहा था, ईसाइयों का नहीं।
ठीक यही तो भारत में हुआ। एक ही रात में इतने लाख लोग विस्थापित हो गए हज़ारों लोग पैशाचिक तरीक़े से मौत के घाट उतार दिए गए और पूरा राजनैतिक तन्त्र और मीडिया मौन रहा? विद्याभूषण धर कैनेडा आने से पहले शायद सऊदी अरब में था। उसने वहाँ से एक कहानी मुझे भेजी थी “नंगा”, जो साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित हुई थी। वर्षों बाद विद्याभूषण सपरिवार कैनेडा आ गया। उसने एक बार बातों बातों में सभी उपस्थित लोगों को बताया कि उसने “नंगा” कहानी को कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाने का प्रयास किया था। “पर प्रकाशित करने का साहस केवल साहित्य कुञ्ज में सुमन जी ने किया था”। वास्तव में ऐसे साहित्य को प्रकाशित करने संकोच की भावना हमारी दब्बू मानसिकता को उजागर करती है। हम अपने आपको छिपा लेते हैं ताकि जेहादियों के समर्थकों को बुरा न लगे। वर्ग विशेष को वोट बैंक समझने वाले राजनीतिज्ञों के कोप का भाजन हमें न बनना पड़े। इस दब्बूपन का परिणाम ही आतंकवाद का जनक होता है। ईंट का जवाब पत्थर से देने से ही समस्या सुलझती हैं। एक तमाचे के बाद दूसरा गाल आगे नहीं बल्कि घूँसा उत्तर होना चाहिए। सौभाग्यवश आज सशक्त भारत इसी ओर अग्रसर है। अगर आज पहले वाली ही सरकार होती तो शायद विवेक अग्नि होत्री, पल्लवी जोशी की फ़िल्म प्रतिबन्धित तो हो ही चुकी होती बल्कि इन दोनों की भी अदालतों के चक्कर काटने पर विवश कर दिया जाता।
अजीब था आज का दिन! परेशानी से आरम्भ हुआ और व्यवस्था पर रोष के साथ समाप्त हुआ। आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है।
— सुमन कुमार घई
3 टिप्पणियाँ
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आदरणीय भाई साहब एक सम्पादक को निर्भीक ,निष्पक्ष होना चाहिए . 'कश्मीर फाइल ' पर आपकी यह सम्पादकीय आपको इसी श्रेणी में और शिखर पर ले जा रही है . आपने यह बिलकुल सही कहा कि, '' पिछली सरकार होती तो शायद विवेक अग्नि होत्री, पल्लवी जोशी की फ़िल्म प्रतिबन्धित तो हो ही चुकी होती बल्कि इन दोनों को भी अदालतों के चक्कर काटने पर विवश कर दिया जाता।'' मैं सीधे-सीधे नाम लेकर कहता हूँ कि यदि भारत में तुष्टिकरण निति की जनक कांग्रेस की सरकार होती तो निर्माता निर्देशक से लेकर सारे कलाकार जेल में होते .जेहादियों को उन पर हमले करने की पूरी छूट मिली होती ,अब तक इनपर प्राण-घातक हमले हो चुके होते ,इनके घर सम्पत्तियाँ जलाई लूटी जा चुकी होतीं . पूरे देश में जेहादी आग लगा रहे होते . यह वही कांग्रेस है जिसका प्रधानमन्त्री मंच से सार्वजनिक रूप से घोषणा करता था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों यानी कि जेहादियों का है .यह कैसे भुलाया जा सकता है कि व्यवहारिकता में जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं को जीने का मौलिक अधिकार तक नहीं था . वहां दलित हिन्दू शिक्षा की सर्वोच्च डिग्री धारक हो तो भी उसे भंगी का ही काम करना होता था ,उसे कोई नौकरी नहीं दी जा सकती थी .वो किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं ले सकता था ,वोट नहीं दे सकता था ,कोई चुनाव नहीं लड़ सकता था . जमीन नहीं खरीद सकता था,मकान नहीं बना सकता था . विधानसभा की सीटों का परसीमन इस कुटिलता के साथ किया गया था कि पूरे प्रदेश के मात्र बीस प्रतिशत घाटी क्षेत्र के जेहादियों के हाथों में हर चुनाव में सत्ता का जाना सुनिश्चित था . इस पूरे क्षेत्र को जेहादिस्तान बनाने का षड्यंत्र तो नेहरू ,शेख अब्दुल्ला के समय से ही तेज़ी से चल रहा था . इसी क्रम में उसे संविधान से इतर इतने अधिकार दिए गए थे कि उसका अपना ध्वज ,अपना संविधान था ,राज्य में प्रधानमंत्री होता था . देश के किसी भी नागरिक को इस प्रदेश में जाने से पहले वहाँ की सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी . जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने वहीँ जा कर इस कानून को खत्म कराने का प्रयास किया तो उन्हें वहीँ जेल में डाल कर खत्म कर दिया गया . पिछले सात दशकों में इस राज्य में किस तरह राष्ट्रघाती कार्य होते रहे ,सनातनी संस्कृति ,सनातनियों को जड़-मूल से समाप्त करने के अनवरत प्रयास होते रहे इन पर एक नहीं सैकड़ों 'कश्मीर फाइल ' बन सकती हैं. देशवासियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह वही कांग्रेस है जिसने १९८४ में भीड़ के जरिये करीब पांच हज़ार निर्दोष सिक्खों की निर्ममता पूर्वक हत्या करवाई . उसके सज्जन कुमार ,जगदीश टाइटलर जैसे अनगिनत नेताओं के नेतृत्व में सामूहिक नरसंहार हो रहा था . तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह हतप्रभ थे कि वह स्वयं भी सुरक्षित रह पाएंगे कि नहीं . प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के चलते सुरक्षित रह सके . कश्मीर फाइल की तरह '१९८४ सिक्ख नर -संहार फाइल' भी बने तो दुनिया में सर्वप्रथम मॉब लिंचिंग के जरिये नर-संहार कराने वाली कांग्रेस का असली चेहरा लोग जान पाएंगे . फाइल बननी तो तिब्बत , कारसेवकों ,गौ रक्षकों, घोटालों की भी चाहिए . तब पता चल सकेगा कि अंग्रेज़ों के इस आनुषंगिक संगठन कांग्रेस सनातन देश ,सनातनियों का कितना नुकसान करती आ रही है. इसकी मक्कारी की पराकाष्ठा देखिये कि धर्म के नाम पर सत्ता सुख भोगने के लिए देश के टुकड़े करके कहती आ रही है कि वह अखंड भारत की रक्षा करेगी . वास्तव में ऐसे में सबसे ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी लेखकों सम्पादकों की ही बनती है कि वो निर्भीकता के साथ सच जनमानस के सामने ले आएं . दयानन्द जी को मैं दो दशकों से भी अधिक समय से न सिर्फ एक निर्भीक बेबाक लेखक के रूप में जानता हूँ बल्कि उनके साथ सोलह-सत्रह वर्ष एक ही पत्रिका में कार्य भी किया है . कश्मीर फाइल पर जब उनका आलेख पढ़ा तो मुझे लगा कि यह अधिकतम लोग पढ़ें,इसे साहित्यकुंज में भी पब्लिश होना चाहिए . भाईसाहब प्रसंग वश निर्भीकता पर एक और बात कहना चाहता हूँ . मेरा कहानी संग्रह '' नक्सली राजा का बाजा '' भारत में प्रकाशक महोदय ने उत्साहपूर्वक प्रकाशनार्थ लिया. उसे प्रिंट भी कर लिया .केवल बाइंडिंग रह गई थी तो काम रोक दिया . कई बार पूछने पर संकोच के साथ बोले....कोई समस्या न खड़ी हो जाए . मैंने कहा सारी जिम्मेदारी मेरी बनती है .मैं लिखित दे सकता हूँ . फिर भी वो शांत रहे . आखिर जब आपने उसका ई संस्करण पुस्तकबाज़ार डॉट कॉम से प्रकाशित कर दिया ,मैंने उन्हें बताया तो तीन सप्ताह बाद प्रिंट संस्करण की प्रतियां कोरियर से मुझे प्राप्त हो गईं. वो नक्सली विषय से ही आतंकित हो रहे थे . वर्तमान परिवेश में बातों को निर्भीकता के साथ सामने लाना और ज्यादा आवश्यक हो गया है .जरूरी यह भी कि ,आपने बहुत सटीक कहा कि , ''ईंट का जवाब पत्थर से देने से ही समस्या सुलझती हैं। एक तमाचे के बाद दूसरा गाल आगे नहीं बल्कि घूँसा उत्तर होना चाहिए।'' क्यों कि महाभारत भी कहती है कि '' धर्म हिंसा तथैव च .'' हमें षड्यंत्रपूर्वक कितना धोखे में रखा गया अधूरा सच बता-बता कर कि '' अहिंसा परमों धर्म :'' अब इस धोखे भारतीय बाहर आने लगे हैं . इसलिए हमें तय मानना चाहिए कि ऐसी फाइलें आती रहेंगी . प्रदीप श्रीवास्तव
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सुमन जी सम्पादकीय के लिये बहुत बहुत बधाई। शायद पाकिस्तान में भी हिन्दुओं ने इससे बदतर हालात झेले हैं। पर हिन्दी मुस्लिम भाईचारे के नारों में सब दबा दिया गया। यह अभी भी चल रहा है। हमें राजनीति नही करना है वरन उनका दर्द समझना है। इसे करुणा empathy से अनुभव करना होगा।
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हमेशा की तरह सजग और संवेदनशील विषय पर संपादकीय के साधुवाद आदरणीय गुरुजी
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1 Dec 2018
हिन्दी टाईपिंग रोमन या देवनागरी… -
1 Apr 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Jan 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ…
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1 Dec 2018
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1 Oct 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
15 Sep 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Sep 2017
ग़ज़ल लेखन के बारे में -
1 May 2017
मेरी थकान -
1 Apr 2017
आवश्यकता है युवा साहित्य… -
1 Mar 2017
मुख्यधारा से दूर होना वरदान -
15 Feb 2017
नींव के पत्थर -
1 Jan 2017
नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ,…
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1 Oct 2017
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1 Oct 2016
सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम… -
1 Sep 2016
हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद… -
1 Jul 2016
पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए -
15 Jun 2016
साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के… -
1 Jun 2016
लघुकथा की त्रासदी -
1 Jun 2016
हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक? -
1 May 2016
मेरी प्राथमिकतायें -
15 Mar 2016
हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न -
1 Mar 2016
हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने… -
15 Feb 2016
अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों… -
1 Feb 2016
भाषा में शिष्टता -
15 Jan 2016
साहित्य का व्यवसाय -
1 Jan 2016
उलझे से विचार
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1 Oct 2016
- 2015
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1 Dec 2015
साहित्य कुंज को पुनर्जीवत… -
1 Apr 2015
श्रेष्ठ प्रवासी साहित्य का… -
1 Mar 2015
कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति -
1 Feb 2015
प्रथम संपादकीय
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1 Dec 2015