जिहदी कोठी दाणे, ओहदे कमले बी सयाणे

 

प्रिय मित्रों,

आप सभी को भारत के 78 वें स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। भारत दिन-प्रतिदिन उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है। यह विश्व-भर के भारतीय-मूल के व्यक्तियों के लिए गर्व का विषय है। प्रार्थना है कि यह गति और दिशा बनी रहे।

जैसा कि पिछले वर्ष प्रधान मंत्री मोदी जी ने कहा था कि आने वाले कुछ वर्ष बहुत बड़ी-बड़ी चुनौतियों के होंगे। यह कथन आज-कल के घटनाक्रम से प्रमाणित हो रहा है। यह चुनौतियाँ वैश्विक भी हैं और देश के अन्दर भी हैं। विश्व में अपना स्थान बनाना कोई आसान काम नहीं है। विशेषकर जब पुरानी औपनिवेशिक शक्तियों के पैरों तले की ज़मीन को सरकाकर आप अपनी नींव को सुदृढ़ कर रहे हों। ऐसा ही हो रहा है। एक के बाद एक मार्ग में बाधाएँ खड़ी जा रही हैं। चाहे वह हिंडनबर्ग की जाली रिपोर्ट हो, विपक्ष के नेता की चेतावनी हो कि भारत के शेयर बाज़ार में निवेश करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। बंग्लादेश में तख़्ता पलट कर भारत के पड़ोस में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बनाना हो। विपक्ष (भारतीय और विदेशी दोनों) निरन्तर व्यवधान डालते रहेंगे। भारतवासियों को अपनी पारम्परिक राजनीतिक निष्ठाओं का पुनः आकलन करना होगा। मैं कहना चाहता हूँ कि भारतीय संस्कृति में—पुत्र भी उसी राजनीतिक दल का समर्थन करता है जिसका समर्थक उसका पिता होता है। इस पीढ़ी को अपनी दृष्टि से देखने की आवश्यकता है और उसे अपने विवेक से समझना होगा कि क्या ग़लत है और क्या सही है। 

कई बार भारतीय मित्र आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि दशकों से विदेश से रहते हुए भी प्रवासी भारतीय, भारत के घटनाक्रम में क्यों रुचि लेते हैं? इसके कई कारण हैं। पहला सभी जानते हैं कि हम सब भारत भूमि के साथ गर्भनाल से जुड़े हैं। भारत की पीड़ा से हम पीड़ित होते हैं और भारत की उपलब्धियों से हमारा सीना चौड़ा भी हो जाता है। जब भारत के मतदाताओं को विदेशी समर्थन से कुछ नेता पथभ्रष्ट करने में सफल होते हैं तो हमें कुंठा भी होती है। 

दूसरा कारण है कि जिस देश में हम रहते हैं वहाँ का समाज हम प्रवासी भारतीयों को भारत की आर्थिक, शैक्षिक और सैन्य शक्ति के मापदंड से नापता है। जिस समय मैं यहाँ पचास वर्ष पहले (1973) में आया था उस समय हर भारतीय को निर्धन, भीख का कटोरा लिए निराला के “पेट पीठ हुए एक” के दृष्टिकोण से देखते थे। जब भारत ने आईटी क्षेत्र में अपनी धाक जमानी आरम्भ की तो हम सभी आईटी के पारंगत हो गए। अब जिस-जिस क्षेत्र में उन्नति करेगा हम प्रवासी उन सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञ समझे जाएँगे। हास्यास्पद है परन्तु यह वास्तविकता है। दुनिया भर की अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के भारतीय सीइओ होना इसी सोच का परिणाम है।

तीसरा कारण कुछ संवेदनशील है। सम्भवतः बहुत से लोग मुझसे सहमत भी न हों। हमारी अगली पीढ़ी जो यहाँ पर पैदा हुई है, पली बढ़ी है इस समय पढ़-लिख कर पश्चिमी अर्थ व्यवस्थाओं में सहयोग कर रही है। कई बार उनकी उपलब्धियों को अनदेखा कर दिया जाता है। कार्यक्षेत्र में उनके सम्मान/स्वीकृति के लिए भारत का एक विकसित देश हो जाना बहुत आवश्यक है। कहीं कहीं अभी भी उन्हें उनकी चमड़ी के रंग से पहचाना जाता है। शायद पिछले सम्पादकीय में मैंने लिखा था कि एक गौर वर्ण प्रवासी एक ही पीढ़ी में मुख्यधारा में समा जाता है। जबकि अन्य वर्णों के प्रवासियों के बच्चे भारतीय, काले, चीनी या लैटिनो ही रहते हैं। इधर जब से चीन विकसित देश बना है, चीनी प्रवासियों के बच्चे पूरी तरह स्वीकृत तो नहीं हुए पर कम से कम हास्य का पात्र नहीं बनते। ऐसा ही पहले कुछ दशक पूर्व जापानी प्रवासियों के साथ हुआ था। इस समस्या का संवेदनशील पक्ष भी है। अगर हम इस युवा पीढ़ी को भारत की उपलब्धियों की कहानी सुनाते हैं तो वह न तो उसे सुनना चाहते और न ही उस पर विश्वास करना चाहते हैं। करें भी तो कैसे? पलते-बढ़ते उन्होंने हर ओर से भारत की बुराई ही सुनी है। भारत भ्रष्टाचारियों, बलात्कारियों का देश है और भी न जाने क्या क्या? इसका मुख्य कारण पश्चिमी मीडिया है जिसे वह पढ़ते सुनते और समझते हैं। बाप की बात की अपेक्षा न्यूज़ रिपोर्टर की रिपोर्ट अधिक विश्वसनीय होती है। अगर भारत विकसित राष्ट्र बन जाता है तो विदेशी मीडिया के मुँह पर ताला अवश्य लग जाएगा। 

पंजाबी की कहावत है—जिहदी कोठी दाणे, ओहदे कमले बी सयाणे। कहने का अर्थ है कि जिसका गोदाम दानों/अनाज से भरा होता है, उसके पागल भी समझदार/सयाने समझे जाते हैं। इसलिए भारत की उन्नति सभी की उन्नति है। एक बार पुनः स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाएँ।

— सुमन कुमार घई
 

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