प्रिय मित्रो,
आज सुबह साहित्य कुञ्ज के मई द्वितीय अंक के लिए एक कहानी सम्पादित कर रहा था। कहानी का नाम है “स्याह शर्त” और लेखक हैं प्रदीप श्रीवास्तव। कहानी लम्बी थी, प्रदीप जी की कहानियाँ प्रायः लम्बी होती हैं। एक बार उनसे इस विषय पर चर्चा हुई तो उन्होंने अपने पक्ष में कहा कि जब तक बात पूरी नहीं होती तो कहानी तो चलेगी ही। मैं उनसे बिल्कुल सहमत हूँ। कहानी की अपनी गति होती है। दूसरा उनका कहना था कि वह अपनी कहानी के लिए पर्याप्त जानकारी जुटाते हैं। प्रायः कहानियाँ किसी न किसी यथार्थ पर ही आधारित होती हैं। उनकी कहानियों के लिए भी यही सत्य है। वह प्रायः कहानी के प्रत्येक पात्र से या पात्र के परिचित से मिलते हैं, और घटनाक्रम की तह तक जाते हैं और वही उनकी कहानी में होता है। इसलिए उनकी कहानियाँ भी लम्बी होती हैं।
बात मैं कर रहा था “स्याह शर्त” की। पूरी कहानी कोरोना काल की है। कोरोना कि जितनी लहरें आईं उन सब की बात एक नव-विवाहित युगल के माध्यम से कहानी में कही गई है। इससे पहले भी प्रदीप श्रीवास्तव की शायद दो कहानियाँ साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित हो चुकी हैं, जो कि कोविड-19 की पृष्ठभूमि पर ही लिखी गईं थीं। इस कहानी और उन दो कहानियों में एक बड़ा अन्तर यह है कि यह कहानी कोरोना के आरम्भ से लॉकडाउन हटने तक चलती है। कोरोना के व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, अंतरराष्ट्रीय प्रभावों तक को इस कहानी के सम्वादों में बुना गया है। इस कहानी के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते मन में विचार आने लगा कि यह कहानी कोरोना का इतिहास बता रही है। कहानी रोचक है। कहानी मात्र एक इतिहास का पन्ना नहीं, व्यक्तिगत संवेदनाओं का मात्र आख्यान नहीं है, रोचक भी है। प्रदीप जी से क्षमा माँगते हुए पाठकों से कह रहा हूँ कि मैं कहानी की पैरवी नहीं कर रहा पर साहित्य की एक विधा की ओर आप सभी का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। वह है—ऐतिहासिक गद्य लेखन। यह पुरातन हो, मध्यकालीन हो या आधुनिक; इतिहास निरन्तर चलता है और लेखन भी निरन्तर ही होना चाहिए।
क्योंकि मैं पश्चिमी जगत में रहता हूँ, इसलिए स्वाभाविक है कि मेरी रुचि इंग्लिश साहित्य में भी है और दोनों, हिन्दी और अँग्रेज़ी भाषाओं के साहित्य को पढ़ता भी हूँ। अगर हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यास लेखकों की सूची बनायें तो एक सीमित सी सूची है। कुछ नाम है जो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं, जैसे कि वृंदावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, रांगेय राघव, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर और नरेन्द्र कोहली। दूसरी ओर यह सूची सैंकड़ों नामों की है। जब यह तुलना करता हूँ तो अगला प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है? जहाँ तक मैं समझता हूँ इसके कई कारण हैं, जैसे कि संसाधनों की कमी, लेखक को लेखन से आर्थिक लाभ का लगभग न होना, वैश्विक इतिहास यहाँ तक कि भारतीय इतिहास के बारे में कम जानकारी, पाठकों की कमी और प्रकाशन की अन्य समस्याएँ।
मैंने अभी तक जिन बाधाओं की सूची बनाई है वह साहित्य की सभी विधाओं के लिए भी सटीक बैठती है। परन्तु जब हम ऐतिहासिक गद्य की बात करते हैं तो उसके साथ “रिसर्च” का महत्त्व बढ़ जाता है। कहानी की सच्चाई के साथ लेखक खिलवाड़ नहीं कर सकता। इतिहास तो इसीलिए इतिहास कहलाता है क्योंकि यह निश्चित होता है। यह प्रमाणिक होता है। इतिहास के तथ्य काल्पनिक नहीं हो सकते। अगर लेखक काल्पिनक कथानक लिखता है तो अन्य विधा का लेखन होता है ऐतिहासिक नहीं। इसीलिए मुख्य तथ्य प्रमाणित होने चाहिएँ जिसके लिए खोजबीन अत्यन्त आवश्यक होती है।
प्रायः हम ऐतिहासिक फ़िल्मों या टीवी पर देखते हैं या ऐतिहासिक कहानियाँ पढ़ते हैं, तो कई बार तो नाम के अतिरिक्त सभी कुछ काल्पनिक होता है। यानी इतिहास की थाली में झूठ परोस दिया जाता है। एक बात तो निश्चित है कि प्रबुद्ध दर्शक या उस कहानी का पाठक इसे स्वीकार नहीं कर पाएगा। यानी इस विधा ने अपना एक पाठक या दर्शक खो दिया।
अगर मैं अँग्रेज़ी की ऐतिहासिक फ़िल्मों, उपन्यासों या टीवी के कार्यक्रमों से तुलना करूँ तो यह असम्भव ही लगती है। अँग्रेज़ी के ऐतिहासिक साहित्य के लेखक, विषय का अध्ययन करते हैं, उसके लिए रिसर्च में पैसा भी लगाते हैं, उन्हें सरकारी अनुदान भी मिल जाता है क्योंकि वह प्रमाणिक रिसर्च करते हैं। अँग्रेज़ी ऐतिहासिक साहित्य के लेखक केवल अपने देश के इतिहास तक सीमित नहीं रहते बल्कि अन्य सभ्यताओं, देशों के इतिहास पर भी रिसर्च करके उतनी ही गंभीरता, प्रमाणिकता से लिखते हैं जितना कि अपने देश के इतिहास के बारे में। उदाहरण के लिए रॉबर्ट ग्रेव्स, इंग्लैंड के लेखक ने आई क्लॉडियस (रोमन इतिहास) पर लिखा। जीना ऐपोस्ल (Gina Apostol) ने फिलिपींस-अमेरिकन युद्ध में हुए नरसंहार की पृष्ठभूमि में “इनसर्केटो” लिखा दूसरी ओर अमेरिका के ऐतिहासिक उपन्यास या ब्रिटेन के इतिहास पर लिखे सैंकड़ों उपन्यास भी आसानी से उपलब्ध हैं। जो मैंने दो उदाहरण दिए हैं, पहली में उपन्यास 1934 में लिखा गया और दूसरा जीना ऐपोस्ल ने उपन्यास 2018 में लिखा। यानी ऐतिहासिक लेखन तब भी प्रमाणिक था और आज भी प्रमाणिक है।
इस समय मुझे एक अन्य अनुभव याद आ रहा है। लगभग सात-आठ वर्ष पहले टोरोंटो में अँग्रेज़ी साहित्य के सम्मेलन में भाग लेने के लिए डॉ. शैलजा सक्सेना और मुझे आमन्त्रित किया गया। तीन दिन के सम्मेलन की पहली वक्ता डॉ. शैलजा सक्सेना थी और अंतिम सत्र का मैं संचालन कर रहा था। उस सम्मेलन में दुनिया भर से अँग्रेज़ी के लेख्क आमन्त्रित थे। उनमें से एक चाइनीज़ मूल की कनेडियन युवा लेखिका थीं जो शैलजा से बड़ी देर तक बात करती रहीं। बाद में डॉ. शैलजा ने मुझे बताया कि यह लेखिका जल्दी ही अपनी भारत यात्रा के लिए उत्साहित है क्योंकि यह बालि की पत्नी तारा पर एक उपन्यास लिख रही है। रिसर्च के लिए इसे भारत यात्रा और रिसर्च के लिए अनुदान मिला है। क्या हिन्दी का लेखक ऐसा अनुदान पा सकता है या पाने की कल्पना भी कर सकता है? इसलिए मैं कहता हूँ—संसाधनों की कमी।
चुनौती तो यह है कि क्या अपने सीमित संसाधनों के चलते भी हम प्रमाणिक ऐतिहासिक लेखन लिख सकते हैं?
इतिहास के तथ्यों को जानने के लिए पुस्तकालय उपलब्ध हैं। विश्विविद्यालयों के प्राध्यापक, या इतिहास के विद्यार्थियों से बहुत सी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इंटरनेट की ज्ञान का असीमित भंडार है। पुराने अच्छे लेखकों जिनके नाम मैंने आरम्भ में लिखे हैं, उनकी कृतियों केवल मनोरंजन के लिए मत पढ़ें, बल्कि उनका अध्ययन करें और सीखें। अगर हम इस विधा में अच्छा साहित्य रचेंगे तो उसके कई लाभ होंगे। एक तो हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ेगी, पाठक वर्ग बढ़ेगा। आप सही इतिहास को रोचक ढंग से प्रस्तुत कर सकेंगे, जिससे आप अपनी सभ्यता, संस्कृति के प्रति आदर भाव पैदा कर सकेंगे। और अगर हम अपने दिवास्वप्न में कल्पना के घोड़े दौड़ने के लिए खुले छोड़ दें, तो शायद भारत का फ़िल्म जगत भी वास्तविक इतिहास पर फ़िल्में बनाना आरम्भ करदे क्योंकि कथानक तो आप लिख ही चुके होंगे। तब शायद आर्थिक लाभ की संभावनाएँ . . .!
— सुमन कुमार घई
3 टिप्पणियाँ
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जब मैंने अपनी कहानी 'स्याह शर्त ' को प्रकाशनार्थ 'साहित्य कुंज' में भेजा तो मन में यह संशय था कि, इतनी लंबी कहानी पत्रिका के प्रकाशन से मात्र दो दिन पूर्व भेज रहा हूँ तो इस अंक में तो यह प्रकाशित नहीं हो पाएगी। क्योंकि संपादक आदरणीय सुमन जी को भी पढ़ने के लिए पर्याप्त समय चाहिए। और वह इस समय तो पत्रिका को अंतिम रूप दे रहे होंगे। उन्हें सम्पादकीय भी लिखना होगा। इसलिए यह कहानी जून में ही प्रकाशित हो पाएगी। लेकिन कुछ ही घंटों के बाद मई द्वितीय अंक में ही इसके प्रकाशन की सूचना की मेल देखकर मैं आश्चर्यचकित हुआ। साथ ही कहानी पर आदरणीय सुमन जी की संक्षिप्त टिप्पणी भी थी। आश्चर्य मुझे इसलिए नहीं हुआ कि कहानी इसी अंक में प्रकाशित हो रही है। आश्चर्य इस बात का हुआ कि, इतनी लंबी कहानी आदरणीय सुमन जी ने इतनी जल्दी पढ़ी और अपनी टिप्पणी भी लिखी। इतना श्रम वर्तमान में हिंदी साहित्य की किसी भी पत्रिका के संपादक द्वारा किया जाना बहुत ही कम देखने को मिलता है। अगला दिन पत्रिका के प्रकाशन का था और रविवार की छुट्टी भी थी। सामान्यतः रात में बहुत देर से सोने के कारण मैं अवकाश वाले दिन थोड़ा देर से उठता हूँ। नौ बजे उठते ही सबसे पहले पत्रिका को मोबाइल पर ही देखा। संपादकीय पढ़ना शुरू किया तो लगा कि वर्तमान हिंदी साहित्य, और लेखकों के लेखन पर आदरणीय सुमन जी ने बड़ा सवालिया निशान लगाया है। यह सवालिया निशान वैसे तो व्यक्तिगत बातचीत में कई लोग लगाते हैं। लेकिन ऐसे बेबाकी से संपादकीय में लिखने का साहस नहीं कर पाते। हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक या शोधपरक साहित्य के क़रीब-क़रीब पूर्ण अभाव की आदरणीय सुमन जी की बात से इनकार नहीं किया जा सकता। वृंदावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, रांगेय राघव, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, नरेंद्र कोहली बस यही गिने-चुने नाम सामने आते हैं। आख़िर इसका कारण क्या है? क्या लेखकों में ऐतिहासिक घटनाओं, पात्रों को केंद्र में रख कर लिखने की कोई रुचि नहीं है, या ऐतिहासिक घटनाओं पर लिखने से इसलिए बचना चाहते हैं क्योंकि इसके लिए बड़ा श्रम करना होगा। शोध करना होगा जो वह करना नहीं चाहते। हाँ छपते रहने की लालसा प्रबल है इस लिए मनगढ़ंत लेखन ही रुचिकर लगता है, आदत में है। इस आदत ने ही बीते कुछ दशकों में रेडीमेड साहित्य को प्रश्रय दिया। या यह कहें कि हिंदी साहित्य रेडीमेड साहित्य के दौर से गुज़र रहा है। यही मुख्य कारण है कि हिंदी साहित्य से पाठक दूर होता चला गया। क्योंकि मनगढ़ंत, उतरन मन मैं कैसे बस सकती है, आकर्षित कर सकती है। इन बातों का यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि मौलिक और स्तरीय साहित्य सृजन बिलकुल नहीं हो रहा है। कम ही सही यह हो रहा है। बीच-बीच में दिखता भी है। लेकिन ऐसे लेखक, उनका लेखन हाशिये पर इसलिए है क्योंकि एक तो रेडीमेड वालों का समूह बड़ा है, दूसरे मठाधीशों ने हर तरफ़ क़ब्ज़ा किया हुआ है। मठाधीश चाहते हैं कि जो लाइन वो खींचें बाक़ी सभी उसका अनुसरण करें। जो नहीं करता वही हाशिये पर धकेल दिया जाता है। ऐसी स्थितियों में शोधपरक या ऐतिहासिक लेखन बहुत ही मुश्किल है। जहाँ तक बात हिंदी लेखकों के पास संसाधनों की है तो आदरणीय सम्पादक जी ने ऐतिहासिक लेखन करने वाले जिन लेखकों के नाम लिए हैं, उनके पास कितने संसाधन थे? उनके समय में तो आज की तरह इंटरनेट भी नहीं था। फिर भी उनके लेखन के सामने नरेंद्र कोहली, मनु शर्मा को छोड़ दें, तो कौन है हमारे सामने जो उनके स्तर का है। कोई भी नहीं। वर्तमान में लेखन से पहले अत्यावश्यक शोध को भी किस प्रकार लापरवाही से हाशिए पर रखा जाता है यह बताने के लिए मैं एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। जब मैं कुछ बरस पहले तक पुस्तक समीक्षाएँ भी करता था तो कई किताबें लिख चुकीं, तत्कालीन सोवियत संघ सहित कई देशों की यात्राएँ कर चुकीं एक वरिष्ठ लेखिका ने अपना एक काव्य संग्रह समीक्षा के लिए मेरे पास भेजा। उनकी कई किताबों की समीक्षाएँ मैं पहले भी कर चुका था। जो साहित्यकुंज में भी प्रकशित हुईं थीं। निःसंदेह वो कविताएँ अच्छी लिखती हैं। लंबे समय तक बराबर उनके आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। इस नई पुस्तक की एक कविता पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ कि उनकी जैसी वरिष्ठ लेखिका ने ऐसे ग़ैर ज़िम्मेदाराना ढंग से ऐसी कविता क्यों लिख दी। उनसे तो ऐसी आशा और भी नहीं की जा सकती क्योंकि वह कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं। उनकी दिशा निर्देशन में छात्र पीएचडी कर चुके हैं। कविता का विषय था 2002 की गुजरात हिंसा। उनकी कविता के अनुसार हिंदू दंगाइयों ने गर्भवती महिला के पेट को तलवार से काट कर गर्भस्थ शिशु को नोक पर लिया। इस बात का एक-एक अक्षर झूठा था। मैंने उन्हें फ़ोन करके पूछा कि जगह बताइए, ऐसी तो कोई घटना हुई ही नहीं। ऐसी वीभत्स घटना होती तो देश विदेश की सारी मीडिया वहाँ लगी हुई है। छोटी-छोटी घटना को भी रिपोर्ट कर रही है, ऐसे में इस तरह की घटना तो अब तक पूरी दुनिया में चर्चा के केंद्र में होती। मानवाधिकार के नाम पर पूरी दुनिया भारत पर टूट पड़ती। दूसरे आपने गुजरात हिंसा के लिए ज़िम्मेदार गोधरा काण्ड जिसमें क़रीब ५९ रामभक्त तीर्थ-यात्रियों को, वो ट्रेन की जिस बोगी में थे, उसी में पेट्रोल डाल कर सभी को ज़िंदा जला दिया गया दूसरे समुदाय द्वारा, उसका ज़िक्र तक नहीं किया। यह आधी-अधूरी बात क्यों? आपकी वामपंथी दृष्टि इसे क्यों नहीं देख पाई। बड़ी बहस के बाद बोलीं कहीं सुना था। अब कुछ नहीं हो सकता। संग्रह छप कर लोगों के हाथों में पहुँच चुका है। मैंने कहा अब भी हो सकता है। ऐसी भी अफ़वाहें उड़तीं हैं, इसपर अगली कविता लिखिए। किसी पत्र-पत्रिका प्रकाशित कराइये। आप तो छपती ही रहती हैं। मैं उस कविता के ज़िक्र के साथ समीक्षा लिख दूँगा। उन्होंने कहा देखती हूँ . . . और वह संग्रह आज भी पड़ा हुआ है। तो जब लेखन ऐसी राह पर चलता हुआ बहुत दूर तक जा चुका हो, तो ऐसे में ऐतिहासिक साहित्य, शोधपरक साहित्य की उम्मीद कैसे की जा सकती है। कमसे कम निकट भविष्य में तो कोई उम्मीद नहीं दिखती। लेकिन इतनी निराशाजनक स्थिति के बावजूद हमें आशा करनी चाहिए कि एक दिन स्थिति बदलेगी ही . . .
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आपने ठीक ही कहा है कि कहानी को यथार्थ का संपुट देने के लिए रिसर्च का अहम योगदान होता है. प्रदीप जी की कहानियों में ये बातें सदैव समाविष्ट होती हैं. सम्पादकीय पढ़ कर मेरी भी इच्छा हो रही है.
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ऐतिहासिक एवं यथार्थ लेखन को प्रोत्साहित करती संपादकीय । मैंने कही पढा था कि भारतीयों में इतिहास लेखन की कला का शुरु से हीं अभाव रहा है। यह बात कहाँ तक सत्य है, मुझे भी नहीं मालुम। मगर यह एक सच्चाई है कि भारतीय इतिहास के लिखित साक्ष्यों के लिए हम बहुत हद तक विदेशी आक्रमणकारी, राजदूत अथवा यात्रियों की डायरी पर निर्भर हैं। यहाँ तक कि हमारे उपलब्ध इतिहास का निर्माण एवं खोज भी विदेशियों द्वारा हीं हुआ है। चिंता की बात है कि वर्तमान घटनाक्रमों को आज भी तथ्यों प्रमाणों सहित प्रमाणिक लेखन की कोई विधा या परंपरा नहीं है। अखबार टीवी भी आज के घटनाक्रमों को पुरी इमानदारी पुरी जिम्मेवारी से नहीं लिखती है। ऐसे में भविष्य के भावी या वर्तमान इतिहासकारों के लिए पुरी संभावना है कि वे अपने पूर्वाग्रह एवं अपने आकाओं की ईच्छा को तोड़ मरोड़ कर इतिहास के पन्नों में जोड़ सकें । संपादक जी की चिंता बिल्कुल उचित है। हलाँकि समसामयिक साहित्य की रचना भारत की प्राचीन विधा है। मगर उनकी घटनाक्रमों में तार्किकता, तथ्य, प्रमाण स्त्रोत एवं साक्ष्यों का अभाव है। उन ग्रंथों के कथानक एवं घटनाएँ आस्था पर आधारित है जिन पर कोई तार्किक प्रश्न नहीं उठाये जा सकते या प्रमाण नहीं मांगें जा सकते। इसलिए अभी तक जो हुए वो हुए। भविष्य के लिए वर्तमान साहित्यकारों को तथ्यों प्रमाणो साक्ष्यों पर आधारित समसामयिक प्रमाणिक साहित्य की रचना करनी चाहिए। जिस पर तार्किक प्रश्न उठाने एवं प्रमाण माँगने की अनुमति भी हो और जरुरत परने पर दिये या उपलब्ध भी कराए जा सके।
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हिन्दी साहित्य की दशा इतनी… -
1 Oct 2019
बेताल फिर पेड़ पर जा लटका -
15 Sep 2019
भाषण देने वालों को भाषण देने… -
1 Sep 2019
कितना मीठा है यह अहसास -
15 Aug 2019
स्वतंत्रता दिवस की बधाई! -
1 Aug 2019
साहित्य कुञ्ज में ’किशोर… -
15 Jul 2019
कैनेडा में हिन्दी साहित्य… -
1 Jul 2019
भारतेत्तर साहित्य सृजन की… -
15 Jun 2019
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1 Jun 2019
हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द -
15 May 2019
साहित्य को विमर्शों में उलझाती… -
1 May 2019
एक शब्द – किसी अँचल में प्यार… -
15 Apr 2019
विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी… -
1 Apr 2019
साहित्य कुञ्ज एक बार फिर… -
1 Mar 2019
साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण -
1 Feb 2019
हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और… -
1 Jan 2019
चिंता का विषय - सम्मान और…
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15 Dec 2019
- 2018
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1 Dec 2018
हिन्दी टाईपिंग रोमन या देवनागरी… -
1 Apr 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Jan 2018
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1 Dec 2018
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1 Oct 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
15 Sep 2017
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1 Sep 2017
ग़ज़ल लेखन के बारे में -
1 May 2017
मेरी थकान -
1 Apr 2017
आवश्यकता है युवा साहित्य… -
1 Mar 2017
मुख्यधारा से दूर होना वरदान -
15 Feb 2017
नींव के पत्थर -
1 Jan 2017
नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ,…
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1 Oct 2017
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1 Oct 2016
सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम… -
1 Sep 2016
हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद… -
1 Jul 2016
पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए -
15 Jun 2016
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1 Jun 2016
लघुकथा की त्रासदी -
1 Jun 2016
हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक? -
1 May 2016
मेरी प्राथमिकतायें -
15 Mar 2016
हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न -
1 Mar 2016
हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने… -
15 Feb 2016
अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों… -
1 Feb 2016
भाषा में शिष्टता -
15 Jan 2016
साहित्य का व्यवसाय -
1 Jan 2016
उलझे से विचार
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1 Oct 2016
- 2015
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1 Dec 2015
साहित्य कुंज को पुनर्जीवत… -
1 Apr 2015
श्रेष्ठ प्रवासी साहित्य का… -
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कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति -
1 Feb 2015
प्रथम संपादकीय
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1 Dec 2015