प्रिय मित्रो,
यह सम्पादकीय २०२३ के वर्ष का अंतिम सम्पादकीय है। मन में कई विचार आ रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव में जितना समय साहित्य कुञ्ज के लिए निकालता हूँ, क्या वह किसी और के समय से चुरा तो नहीं रहा? बच्चे और उनके बच्चों की अपनी माँगें हैं और मेरा उनके प्रति दायित्व भी है। कहने को तो इस अवस्था में यह समय केवल मेरा ही होना चाहिए। प्रायः बड़े-बूढ़े लोगों को कह दिया जाता है कि जो आपने करना था कर लिया अब दूसरी ओर ध्यान लगाओ। यह दूसरी ओर हरिवंश राय बच्चन जी वाली ‘उस पार क्या होगा’ वाली है। यह मेरा अनुमान है, कहने वालों से पूछा नहीं है कि दूसरी ओर की परिभाषा है क्या?
देखिए फिर बहक गया, सोचा था कि इस सम्पादकीय में पूरे वर्ष में जो कुछ साहित्य कुञ्ज के माध्यम से कर पाया उसका संक्षिप्त प्रारूप आपके समक्ष रखूँ। सोचा तो यही था परन्तु पिछले दिनों डॉ. उषा बंसल जी का एक ऐतिहासिक/साहित्यिक आलेख साहित्य कुञ्ज में इस अंक के लिए अपलोड किया है, और जब से वह आलेख पढ़ा है मन में विचारों का आलोड़न-विलोड़न चल रहा है। इस आलेख की मौलिक रूप-रेखा उन्होंने पहले मुझे लिख कर भेजी थी और अपने मन का संशय दूर करने के लिए एक प्रश्न भी पूछा था—क्या उनका आलेख सही दिशा में जा रहा है? मुझे कुछ अटपटा लगा क्योंकि डॉ. उषा बंसल इतिहास में पीएच.डी. हैं और हिन्दी साहित्य को समझने और परखने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। वह मुझ से क्यों पूछ रहीं है? वैसे भी आलेख सही दिशा की ओर ही जा रहा था। उनसे निवेदन किया कि इसे अवश्य पूरा करें और पढ़ने के लिए उत्सुक हूँ।
दो दिन बाद उनका साहित्यिक आलेख मिला, ‘शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .’
इस आलेख को पढ़ने के बाद, एक साहित्य प्रेमी की तरह सोचते हुए जो प्रश्न मन में उठे, उन पर ही यह सम्पादकीय आधारित है। वैसे इस विषय पर पहले भी एक सम्पादकीय लिख चुका हूँ इसलिए संभव है कि पहले कही गई बातों को फिर से दोहरा जाऊँ। वैसे उन्हें दोहराना आवश्यक भी है।
इस आलेख में उन्होंने मुंशी प्रेम चंद जी की प्रसिद्ध कहानी को इतिहास की कसौटी पर कसते हुए कहानी के प्रतीकों का विश्लेषण किया है। विशेष बात यह कि उस कालखण्ड की बात की है जिसमें अवध के नवाब वाजिद अली शाह के चरित्र का एक पक्ष ही इतिहास की किताबों में, स्कूल में पढ़ाया जाता रहा है। कई चलचित्र भी वाजिद अली शाह को अधिकतर एक विलासी नवाब की दृष्टि से देखते हैं और प्रस्तुत करते हैं। उषा जी ने फोन पर बात करते हुए कहा, “संभवतः जिस काल में प्रेमचंद जी ने यह कहानी लिखी, उन पर फिरंगी सत्ता के ऐसे दबाव रहे होंगे कि वह अपनी बात केवल दो कल्पित पात्रों के माध्यम से ही कह पाए। स्पष्ट रूप से उन्होंने कम्पनी सरकार की धूर्त्तता भी प्रतीकों के माध्यम से ही व्यक्त की।”
यहीं से एक समस्या ने विचलित करना आरम्भ कर दिया और कई प्रश्न मन में उठने आरम्भ हुए। क्या समाज में चर्चित इतिहास और वास्तविक इतिहास अलग-अलग हैं? कहा जाता है कि इतिहास विजेता द्वारा लिखा जाता है। अगर यह सत्य है तो भारतीय इतिहास को सत्यापित करना कितना दुष्कर कार्य है? कितने शोध की आवश्यकता है? बिना सत्यापित इतिहास के आधार पर लिखा हुआ साहित्य जनमानस में भ्रान्ति को प्रचलित करने के लिए दोषी तो है परन्तु क्या यह दोष साहित्यकार को माथे मढ़ा जा सकता है? उसे जो इतिहास पढ़ाया गया या जो उसके लिए उपलब्ध था वही तो उसके लेखन का आधार बनेगा।
पिछले कुछ वर्षों से जिसे “मोदी युग” कहा जा सकता है, भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रम के बारे में प्रश्न उठने आरम्भ हुए हैं। वास्तविकता यह है कि जो पाठ बचपन में पढ़ाया जाता है, वयस्क होने पर उस पाठ की तथ्यात्मकता पर प्रश्नचिह्न लगाना बहुत कठिन होता है। ऐसा ही मुझे इस आलेख को पढ़ने के बाद अनुभव हुआ। वाजिद अली शाह के बारे में केवल उसके भोग-विलास की ही चर्चा बचपन में पढ़ाई गई। एक क़िस्सा इतिहास में पढ़ाया गया कि नवाब को अँग्रेज़ इसलिए बंदी बनाने में सफल हुए क्योंकि कोई उसे जूते पहनाने वाला नहीं था। इस सच्चाई को बताया ही नहीं गया कि नवाब वाजिद अली शाह को बंदी बनाने के लिए लॉर्ड डलहौजी ने अंग्रेज़ी प्रशासन द्वारा भेजे गए पत्र में “Pensioner” को “Prisoner” में बदल दिया। यह इतिहास का प्रमाणित सत्य है, जिसे डॉ. उषा बंसल जी ने अपने ऐतिहासिक आलेख में संदर्भित किया है।
इस आलेख को पढ़ने के पश्चात मन में विचार आया कि अभी तक लिखे गए ऐतिहासिक हिन्दी साहित्य पर शोध होना आवश्यक है। वैसे भी हिन्दी साहित्य में “ऐतिहासिक साहित्यिक विधा” का साहित्य बहुत कम रचा गया है। इसका एक मुख्य कारण है कथानक के आधारभूत तथ्यों की प्रमाणिकता के लिए अनुसंधान की अनिवार्यता। आम कहानी या उपन्यास में लेखक को पूर्ण स्वतन्त्रता होती है वह कथानक को अपनी इच्छानुसार किसी भी दिशा में ले जा सकता है। अपनी कहानी के पात्रों के चरित्र चित्रण उसके नियन्त्रण में होते हैं। जबकि इतिहासिक गल्प में ऐसा नहीं होता। कथानक सत्यापित तथ्यों की आधार भूमि पर खड़ा होता है। लेखक को साहित्यिक स्वतन्त्रता भावाभिव्यक्ति और पात्रों के संवादों के लेखन के लिए ही होती है। वह अपने लेखन में इतिहास के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। ऐतिहासिक लेखन प्रमाणित सत्य की सीमाओं में बँध कर ही लिखा जाता है। भारतीय ऐतिहासिक साहित्य क्या इन मानदण्डों पर खरा उतरता है? कोई विरल ही लेखन या लेखक होगा जिसने इस दायित्व का निर्वहन किया हो।
भारतीय परंपरा में इतिहास को तीन काल खंडों में विभक्त किया जाता है। आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल। आदिकाल में पौराणिक साहित्य को भी गिना जा सकता है। जब हम पौराणिक साहित्य की बात करते हैं तो मिथक साहित्य भी उसी का भाग है। इसमें तथ्यों का सत्यापन असंभव ही है। पौराणिक नायकों को भारत भूमि के विभिन्न भागों या काल खण्डों में नायक से खलनायक बनता हुआ देखा जा सकता है और दूसरी ओर इसी तरह खलनायक का दूसरा चेहरा नायक का हो जाता है। इन पात्रों के आस पास कहानी बुनना कठिन तो नहीं है परन्तु अगर यह साहित्य पाठकों की आध्यात्मिक या धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाए तो विपत्तिजनक हो सकता है।
मध्यकाल के इतिहास पर आधारित साहित्य की सबसे बड़ी समस्या इतिहास के गौण होने की है। इतिहास के बहुत बड़े अंश समय के अंधकार में खो चुके हैं या आम जानकारी में नहीं हैं। इसका अनुचित लाभ बहुत से ऐतिहासिक साहित्य के लेखकों ने उठाया है। ऐसा साहित्य भ्रान्तिजनक होता है। एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग अज्ञानतावश काल्पनिक कहानी को इतिहास मान लेता है। भारतीय इतिहास में इसके अटपटे उदाहरण प्रायः देखने, पढ़ने और सुनने को मिल जाते हैं। लेखक अपनी कहानी को रोमांचक और रोमांटिक बनाने के लिए बहुत कुछ काल्पनिक गढ़ लेते हैं।
आधुनिक काल का इतिहासिक साहित्य लिखना तो और भी दुष्कर कार्य है। क्योंकि इसमें कल्पना की बहुत कम गुंजाइश होती है। तथ्यों को कुछ संवेदना के रंग देने के अतिरिक्त लेखक कुछ भी कर पाने में लगभग असमर्थ ही होता है।
नवाब वाजिद अली शाह का इतिहास आधुनिक काल में गिना जा सकता है। अगर हम पीढ़ियों की बात करें, तो कह सकता हूँ कि मेरे दादा जी का जन्म १८६९ में हुआ था तो उनके लिए वाजिद अली का समय अभी कल की बात थी। इतना समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन? वैसे भी क्या ऐसा करना संभव है? हाँ, अगर कोई जान-बूझकर इस काल खंड को छिपाना चाहे या उसे अपने स्वार्थानुसार रँगना चाहे या रँगने में सफल हो जाए तो साहित्य से इतिहास की कसौटी पर खरा उतरने की अपेक्षा रखना ही मूर्खता है।
पाठकों से अनुरोध है कि कृपया डॉ. उषा बंसल का ऐतिहासिक/साहित्यिक आलेख पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया लिखें। आलेख का लिंक नीचे दे रहा हूँ:
‘शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .’
— सुमन कुमार घई
3 टिप्पणियाँ
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इतिहास आधारित साहित्य के लिए इतिहास को निष्पक्ष ही लिखा होना चाहिए। पर, शायद इतिहास विजेताओं का, विजेताओं द्वारा लिखवाया जाता रहा है। ऐसा लिखा हुआ इतिहास निष्पक्ष हो ऐसा संभव नहीं है। हाँ,इतिहास के युग की जो लोक कथाएँ, लोक गीत कहे और गाए जाते हैं उसमें इसे ढूँढना शायद संभव हो। इसी तरह इतिहास के युग में लिखे हुए साहित्य गद्य और पद्य,मुहावरे,लोकोक्तियाँ, लोक कथाएँ, लोक गीतों में वास्तविक इतिहास की एक झलक पायी जा सकती है। बाद के युगों में लिखे जानेवाले ऐतिहासिक साहित्य इसको अच्छी दिशा दे सकता है। इतिहास की पृष्ठभूमि पर साहित्य का सर्जन प्रयाप्त शोध के बिना एक जोखिम भरा काम है।इसमें युग की वास्तविकताएँ और युग की आकांक्षाएँ व्यक्त नहीं की जा सकती। जैसा अपने लिखा है “क्या समाज में चर्चित इतिहास और वास्तविक इतिहास अलग-अलग हैं?” मेरा मानना है कि हाँ ऐसा ही है। जिस युग में साहित्य लिखा जा रहा होता है चाहे संदर्भ ऐतिहासिक हो वह युग उसमें अपने आपको प्रकट होने से नहीं रोक सकता। समीप का इतिहास नहीं भुलाए जाँय इसके लिए आवश्यक है कि चाहे इतिहास विधिवत न लिखे जाँय साहित्य प्रचुरता में सृजित हों। वैसे मैं इंजीनियरिंग का छात्र रहा और जीवन मशीनों में खपा दिया इसलिए आधिकारिक तौर पर साहित्य की उतनी समझ तो नहीं है।
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यह संपादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है... इतिहास अपने अपने कालखंड पर ही निर्भरशील होता है... आदरणीया ऊषा जी ने सत्यता को पाठकों के समक्ष रखकर विवेक एवं विचार को नव्य दिशा दी है.... पुरानी पीढ़ी की सोच बदलना अत्यंत आवश्यक है एवं वर्तमान पीढ़ी का उत्तम एवं उचित मार्गदर्शन कराना भी आवश्यक है... यह आलेख संग्रहणीय है....
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सुमन जी आप का तहे दिल से धन्यवाद । आलेख लिखते समय मैं बहुत रोमांचित थी । बहुत बड़ी दुविधा भी थी कि हिन्दी के नामचीन साहित्यकार की कहानी के माध्यम से कुछ कहने का साहस कर रही हूँ । सुमन जी से बात कर के कुछ मन को तसल्ली हुई कि इस विषय पर लिखना चाहिए । जब की मैंने शतरंज के खिलाड़ी पर लिखी कुछ टिप्पणी भी पढी हुईं हैं , जैसे यह सामंतवाद के खिलाफ बिगुल बजाती है , जागीरदारों के अत्याचारों का खुलासा करती है , नवाब की ऐयाशी का पर्दाफ़ाश करती बेबाक रचना है ….. पर इतिहास में जब नवाब के ईस्ट इंडिया कम्पनी से सम्बंधों का इतिहास पढा और बेईमान,धूर्त , चालबाज़ अग्रेजों की शतरंजी चालों को पढा तो लगा कि इसे भी समाज को पता होना चाहिए तब, वह स्वयं निर्णय करें कि नवाब कैसा था ? पर दुख की बात यह है कि इस कहानी ने नवाब का जो रूप साज में प्रचलित कर दिया उसको कभी कोई अदालत वापस नही लौटा सकती । आलेख प्रकाशित करने पर जब बहुत गुणी जनों के देखने के बाद कोई टिप्पणी नहीं की तो मन कुछ क्षुब्ध हो गया। फिर किसी ने जब समझाया कि एक स्वीकृत मान्यता के उपर उठ कर किसी विषय का भाव ग्रहण करना कठिन हो जाता है। । शतरंज के खिलाड़ी ने नवाब वाजिद अली शाह को बदनाम कर उसको कैद करवाना जायज़ करवा दिया पर इसने नवाब का जो चारित्रिक हनन हुआ और राज्य का जो नुकसान हुआ , उसका क्या? अवध गिद्धों के चंगुल में फंस गया । “ मजाक जब गया अपराध “एक पिछले अंक में प्रकाशित कहानी में भी यही प्रश्न था ? सुमन जी ने इस कहानी के विषय में पूरा सम्पादकीय लिख कर निराश मन में दीपक सा उजाला कर दिया। आपका बारम्बार आभार मुझे प्रेरणा देने व हिम्मत बँधाने के लिये।
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