प्रिय मित्रो,
इस सम्पादकीय के शीर्षक के विविध अर्थ होने की संभावना है। संभव है कि पाठक अपनी विचारधारा के अनुसार आशा रखें कि सम्पादकीय में क्या होगा। इस सम्पादकीय में मैं राजनैतिक साहित्य की बात करना चाहता हूँ साहित्य की राजनीति की नहीं। मैं अपने राजनैतिक विचारों को उजागर नहीं करना चाहता परन्तु स्वतन्त्रता के बाद रचित साहित्य पर राजनीति के प्रभाव पर मनन किया जा सकता है। जब मैं पलट कर उस साहित्य को देखता हूँ तो केवल वही साहित्य आज के संदर्भ में सही लगता है जिसमें किसी राजनैतिक दल का समर्थन या खण्डन नहीं किया गया। राजनीति जनित परिस्थितियों पर आधारित साहित्य जीवित रहता है क्योंकि यह आम जनता पर राजनीति के प्रभावों की बात करता है। यानी यह जन साधारण की कहानी होता है। उनकी कुंठा, संत्रास, समस्या, शोषण, उपलब्धि, संतोष यानी दैनिक जीवन की कहानी कहता है। यह साहित्य कालखंड विशेष की संवेदनाओं को शब्दबद्ध कर देता है। और भविष्य की पीढ़ियों के लिए इस कालखण्ड को समझने में सहायक बनता है।
हमारी स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में केवल एक काल खंड है जिसकी आलोचना से नहीं बचा जा सकता, और वह है इंदिरा गांधी के शासन काल में आपातकाल खंड।
हम सभी जानते हैं कि राजनीति में कुछ भी काला–सफ़ेद नहीं होता। संभवतः जो बुरा दिखता है वह बुरा नहीं है जो अच्छा है वह अच्छा नहीं है। और इस कृष्ण-श्वेत के वर्ण-पट में बहुत से शेड स्लेटी के भी आ जाते हैं। इस रंगों की मरीचिका को समझने में भी समय लग जाता है। अर्थात् अगर हमने आज के घटनाक्रम से उत्तेजित हो कर कुछ प्रकाशित कर दिया और वह इस समय के अनुभवों के अनुसार सही है, तो निश्चित ही हमें प्रशंसा मिलेगी। परन्तु यह भी हो सकता है कि भविष्य में यह प्रमाणित हो जाए कि जिसे हमने सच समझा था वह वास्तव में झूठ था। विशेष बात यह है कि समाचार, घटनाक्रम इत्यादि समय के साथ धूमिल हो जाते हैं और अपना महत्त्व खो देते हैं। परन्तु प्रकाशित साहित्य जीवित रहता है, और उस साहित्य के साथ लेखक का नाम भी जीवित रहता है। आप समझ ही रहे होंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।
उदाहरण देने के लिए कई जन-आन्दोलनों की बात की जा सकती है। परन्तु कुछ आन्दोलन जो अभी लम्बे समय तक चले उनकी उदाहरण देना सही रहेगा। किसान आन्दोलन उनमें विशेष है क्योंकि यह एक विशाल और लम्बे समय तक चलने वाला आन्दोलन था। इस आन्दोलन पर कोरोना का भी प्रभाव नहीं पड़ा। आन्दोलन के आरम्भ में बहुत से साहित्यकारों की सहानुभूति आन्दोलन के साथ थी, और होती भी क्यों न! साहित्य में किसान का नाम आते ही प्रेमचन्द के उपन्यासों के पात्र आँखों के सामने आने लगते हैं। लेखक की मानसिकता भी शोषित के प्रति सहानुभूति वाली होती है। विश्व में किसी भी भाषा के अधिकतर लेखकों, कलाकारों का रुझान वाम पंथी होता है। यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। स्वतंत्रता के बाद भारत में रचा गया साहित्य इस बात का प्रमाण है। किसानों की आत्महत्याएँ, हृदय को विचलित करती हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी ऋण में डूबे किसान के प्रति किसे सहानुभूति नहीं होगी। अगर आप अपनी राजनीति को एक ओर रख दें और सच्चे मन से सोचें तो आपको स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत बहुत गति के साथ बदल रहा है और आर्थिक समृद्धि के पथ पर अग्रसर है। यह तथ्य भारत के अन्दर और बाहर बहुत से लोगों और देशों के लिए समस्या है। यह भी तय है कि आर्थिक समृद्धता के आने से पुराने मापदण्ड बदल जाएँगे। यह मापदण्ड समाजवादी विचारधारा से पूँजीपति विचारधारा की ओर बदलेंगे। कृषि क़ानून इस परिवर्तन की ज़मीन तैयार कर रहे थे। यह तथ्य वामपंथी राजनैतिक दलों के गले से नीचे नहीं उतरा। बाज़ारवाद, जिसे पिछले लगभग दो दशकों से हिन्दी लेखक कोस रहा है, वह ही आर्थिक समृद्धता का प्रतीक है। बाज़ारवाद ही रोज़गार को पैदा करता है। यह सच है कि पूँजीपति और समृद्ध होगा परन्तु वह अकेला समृद्ध नहीं होगा। धन पानी की तरह बहता है यानी ऊँचाई से नीचे की ओर जाना उसकी धर्मिता है। लोग प्रायः आडाणी, अंबानी को खलनायक बनाने का प्रयास करते हैं। परन्तु यह भी तो देखें कि वह कितने लाख लोगों को नौकरी दे रहे हैं। एक बात और जो आम लोग नहीं समझ पाते कि पूँजीपतियों के लिए एक मात्रा के बाद धन का कोई मूल्य नहीं रह जाता। अगर माइक्रोसॉफ़्ट का बिल गेट्स अरबों रुपए धर्मार्थ संस्थाओं को दान दे देता है तो कोई विशेष बात नहीं है। उसके लिए वह धन व्यर्थ है, कम से कम इससे समाज की पीड़ा को हरने से उसे संतोष तो मिल सकता है, जो अमूल्य है।
मैं किसान आन्दोलन से भटका नहीं हूँ। आरम्भिक दिनों में आम लोग या लेखक समझ नहीं पा रहे थे कि इस आन्दोलन की गहराइयों में क्या है? बाद में स्पष्ट हो गया परन्तु अब लेखकों ने जो साहित्य रच दिया सो रच दिया और वह प्रकाशित भी हो चुका है; उससे पीछे कैसे हटें? कोई भी लेखक किसान आन्दोलन में खालिस्तानी पक्ष की बात तो कर नहीं रहा था। आन्दोलन को चलाने के लिए विदेश से हवाला फण्ड को भी अनदेखा कर रहा था, क्योंकि लेखक के साहित्य के पात्र तो प्रेमचन्द के उपन्यासों पर आधारित थे। प्रेमचन्द के काल में न तो खालिस्तानी आन्दोलन था और न हवाला। हवाला से यह पैसा भेज कौन रहा था और क्यों? इस बारे में किसी लेखक ने शायद लिखा ही नहीं। क्योंकि रोमांस तो आन्दोलन के साथ था। कहा जाता है न—प्रेम में लाख गुनाह भी माफ़ हो जाते हैं।
कृषि क़ानूनों में किसान को सीधा फ़ूड-इंडस्ट्री के साथ जोड़ने के प्रयास किया गया था। हो सकता है कि समय के साथ इन क़ानूनों का संशोधन करना पड़ता। परन्तु आढ़ती लोग तो अपनी आय के स्रोत को तुरन्त खो देते। लेखक किसानों की आत्महत्याओं पर रचनाएँ लिखते रहे हैं, इन आत्महत्याओं में आढ़तियों की भूमिका का चित्रण भी करते रहे हैं। हैरानी इस बात की है कि वह इस आन्दोलन में आढ़तियों की भूमिका को समझना नहीं चाहते थे, जिनके व्यवसाय पर यह क़ानून सीधे प्रहार कर रहे थे। किसान का सीधा संबंध उपभोक्ता के साथ हो जाए, तो यह दलाल कहाँ जाते? अभी आन्दोलन के नेताओं की बात न ही की जाए तो बेहतर है।
इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि साहित्यकार को राजनैतिक घटनाक्रम का भाग नहीं बनना चाहिए। पहले भी कई बार कह चुका हूँ कि साहित्य में सामाजिक इतिहास जीवित रहता है। इसलिए इतिहासकार का निष्पक्ष रहना अत्यंत आवश्यक है। कुछ अंक पहले ऐतिहासिक साहित्य पर सम्पादकीय लिख चुका हूँ, सो दोहराने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप साहित्यकार हैं, आप सामाजिक इतिहासकार हैं इसलिए आपका कर्तव्य है कि जो हुआ वह लिखें। मानवीय संवेदनाएँ आपके शब्दों में जीवित रहेंगी। संवेदनाएँ सत्य होती हैं। शाश्वत होती हैं। राजनीति, राजनीतिज्ञ और राजनैतिक दल परिवर्तन शील हैं। आज को सच लगते हैं कल वही झूठे निकलेंगे। आपकी राजनैतिक विचारधारा निजी है, ठीक धर्म की तरह। जानता हूँ, कि अपने रचित साहित्य को अपनी राजनैतिक विचारधारा के प्रभाव से मुक्त रखना अत्यंत कठिन है। पर यह आवश्यक है।
— सुमन कुमार घई
8 टिप्पणियाँ
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बेहतरीन सर
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इतना संतुलित और निष्पक्ष संपादकीय पढ़ कर बहुत अच्छा लगा, तटस्थता की बात शत प्रतिशत सत्य है। लेकिन यहां मैं तटस्थता की बात न करके आपके बाजार और अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण की प्रशंसा करती हूँ, पता नहीं किन कारणों से भारत में लोग बाजरवाद या पूँजीवाद के पीछे नहा-धो कर पड़े रहते हैं। व्यापार करने, धन अर्जित करने को बहुत निम्न दृष्टि से क्यों देखते हैं समझ में ही नहीं आता। किसानों के लिए बहते आँसू तो इतने दिखे, उन्हें व्यापारी नहीं दानवीर दिखाने का प्रयास करते कवि-लेखक। किसान खेती करता है, उसे बेंच कर पैसे लेता है, जैसा कोई भी अन्य व्यापारी करता है, लेकिन साहित्य में उसे अन्नदाता, दानवीर और किसी शहीद की तरह दिखाना साहित्यकारों का प्रिय शगल है... सम्भवतः प्रेमचंद प्रभाव। प्रदर्शनकारी तो खैर पैसे लेकर प्रदर्शन कर रहे थे, अपने पाँव ख़ुद काट रहे थे। उनके समर्थन में उतरे लोग तो कुछ सियारों जैसे थे, कुछ न पढ़ा न जाना, बस एक ने हुक्का-हुवां बोला, सभी उसके सुर में सुर मिलाने लगे। काश आपने कृषि - कानूनों पर ऐसा दृष्टिकोण उस समय लिखा होता तो कम से कम कुछ लोगों की आंखें खुलती। यूँ वह आंदोलन बहुत दूर - दूर से प्रायोजित हो रहा था, विपक्षियों को विशेष रूप से केजरीवाल को यह अपनी राजनीति चमकाने का अवसर दिख रहा था, तो खत्म तो आसानी से नहीं ही होता। लेकिन कुछ प्रबुद्ध लोग समर्थन में ज़रूर आते। देश हित और कृषक हित के कानूनों को वापस लिया जाना बेहद दुःखद रहा। खालिस्तान का दबा - छिपा रूप अब मुखर हो कर दिख रहा है। अफ़सोस कि राजनीतिक दल अपने फ़ायदे के लिए चालें चलते हैं, पर साहित्यकारों का उसमें शामिल हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।
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समपादक का यह विचार कि कालजयी साहित्य लिखने के लिये साहित्यकार को किसी राजनैतिक विचारधारा से पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं होना चाहिये, स्पष्टः स्वीकार्य एवं अनुकरणीय है। कतिपय साहित्यकार पद अथवा पुरस्कार के लोभ में भी अपने मूल विचार से भिन्न लिखने लगते हैं। ऐसा साहित्य अल्पकालीन प्रभाव ही छोड़ सकता है।
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सार्थक और विचारणीय!
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बिल्कुल सही । लेखक को राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ होना चाहिए पर जब चहुं ओर राजनीति का ही बोलबाला हो तो लेखक स्वयं को तटस्थ कैसे रखे? अधिकतर होड़ में शामिल हो जाते हैं। आपने सही कहा कि आज भी विश्व साहित्य में अधिकांश लेखकों का झुकाव वामपंथ की ओर है परंतु कितने दलित, पीड़ित और वंचित की पीड़ा को आत्मसात करते हुए लिख पाते हैं और कितने केवल राजनीति करते हैं? खैर साधुवाद! नमन!!
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साहित्यिक तटस्थता की अनिवार्यता पर सुंदर एवं महत्संवपूर्ण संपादकीय ! भारतीय इतिहास की महानता को छिपाकर आक्रमणकारियों की महानता का पाठ पढ़ाते हैं हम इतिहासकारों के इन काले कारनामों से अनभिज्ञ होकर! इतिहास की प्रोफेसर रह चुकी अपनी बहन से मैं पूछ बैठी कि क्या लगता है तुमने गलत पढ़ाया तो उसने अपनी लाचारी व्यक्त करते हुए कहा कि क्या करें हमने वही सिखाया जो हमें पढ़ाया गया!
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अत्यन्त प्रशंसनीय संपादकीय , अनेक साधुवाद ।साहित्यकार में संयम ,धैर्य, संवेदनशीलता के साथ वर्तमान से जुड़ाव और भविष्य का अनुमान करने की शक्ति भी होनी चाहिए। आपका मार्गदर्शन अमूल्य है।
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लिखने के लिए निष्पक्ष ईमानदार एवं पूर्वाग्रह मुक्त होना आवश्यक है। लेखक का दायित्व है कि वह जज बन कर साहित्य पर अपना व्यक्तिगत विचार अथवा फैसला न थोपे मगर अपने समय की परिस्थितियों का सही चित्रण करें। साहित्य को समाज का दर्पण कहलाने की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब तत्कालीन साहित्य से पता चले कि उस समय के लोग कैसे थे, उनकी सोंच कैसी थी? सही या गलत, उस समय का समाज कैसा था। सामाजिक धारणाएँ कैसी थी और आगे चलकर उनकी सोंच एवं धारणाओं के परिणाम क्या रहे। रितिकाल के साहित्य से से स्पष्ट होता है कि उन दिनों राजाओं का ध्यान कहाँ था वे क्या चाहते थे। भक्ति काल साहित्य से भी स्पष्ट होता है कि उन दिनों राजा प्रजा दोनों हीं का ध्यान श्रृंगार से हटकर भक्ति की ओर विशेषकर कृष्ण भक्ति की ओर था। यहाँ तक कि कई मुस्लिम कवियों ने भी उस काल में कृष्ण भक्ति के काव्य लिखे। इसका मतलब उन दिनों समाज में कृष्ण भक्ति की प्रधानता थी। इसलिए जैसा कि संपादकीय में कहा गया है साहित्य को राजनीति के प्रभाव से तो बचाना हीं चाहिए। क्योंकि राजनीति में झूठ दाँव प्रपंच पूर्वाग्रह सब शामिल होता है।
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