इन दिनों ट्रंप की वाणिज्यिक नीतियाँ/धमकियाँ वैश्विक चर्चा का विषय बनी हुई हैं। पूरा विश्व इस समय असमंजस की स्थिति में है। नित नई घोषणाएँ होती हैं और नित इन घोषाणाओं को या तो स्थगित कर दिया जाता है या उनकी मारक क्षमता को बदल दिया जाता है। समस्या यह है कि वैश्विक-बाज़ार और अर्थ-व्यवस्था बाज़ार में स्थिरता चाहती ताकि दीर्घकालीन योजनाएँ बन सकें। आजकल हो यह रहा है कि सम्राट डोनाल्ड ट्रंप सुबह उठते हैं और प्राचीर से घोषणा कर देते हैं कि किन-किन देशों से आयात शुल्क में कितनी वृद्धि होगी। वैश्विक मण्डियों में और शेयर बाज़ार में भगदड़ मचे तो मचे।
क्या यह उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण को वापिस यू.एस.ए. में लौटाने की सोची-समझी रणनीति है या फिर यह सम्राट की मनोदशा पर निर्भर करता है कि आज उनके कोप का भाजन कौन-सा देश बनेगा।
यू.एस.ए. के दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें बहुत पीछे जाना पड़ेगा। जिन दिनों भारत विदेशी आक्रांताओं को झेल रहा था उन दिनों यूरोप मेंऔद्योगिक क्रांति की लहर थी। देशों की उत्पादन क्षमता उनकी अपनी माँग से अधिक होने लगी थी और अब उन्हें मण्डियों की तलाश थी। जिन देशों की नौसेना शक्तिशाली थी उन्होंने विश्व के दूरस्थ देशों में अपने उपनिवेश बना लिए। अब निर्माता यूरोप में थे और उपभोक्ता विश्व के अन्य महाद्वीपों में। भारत भी एक ऐसी ही मण्डी बन गया। पिछली सदी में उपनिवेशवाद का अंत होने लगा तो औपनिवेशिक शक्तियों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार की नीतियाँ बनानी आरम्भ कीं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य की नीतियाँ विश्व युद्ध के विजेताओं के पक्ष में निर्धारित हुईं। इन शक्तियों ने विश्व को अपनी-अपनी मण्डियों में बाँट लिया। इंग्लैंड ने “कॉमन वेल्थ” बनाया तो यू.एस.ए. ने दक्षिणी अमेरिका, फिलीपींस, गुआम, पोर्टो रिको, अमेरिकन समोआ और हवाई आदि पर अपना अधिकार जमा लिया। इटली का अफ़्रीका में हस्तक्षेप था जैसे कि लिबिया, सोमालिया, एरेट्रिया आदि। इसी तरह फ़्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल स्पेन, नीदरलैंड इत्यादि देशों का अपने पुराने उपनिवेशों के बाज़ारों पर आधिपत्य जीवित था।
धीरे-धीरे उपनिवेश स्वतंत्र हुए और धीरे-धीरे यह देश औपनिवेशिक शक्तियों के चंगुल से निकलने लगे। कॉमन वेल्थ नाम मात्र की संस्था रह गई और ऐसा ही अन्य वाणिज्यिक व्यवस्थाओं के साथ हुआ।
विकासशील देश अब पुराने औद्योगिक देशों के बाज़ार में प्रतिस्पर्धक के रूप में दिखाई देने लगे। इस नए परिवर्तन से निपटने के लिए स्थापित आर्थिक शक्तियों ने बाज़ार के नियम बदलने आरम्भ कर दिए। मुक्त व्यापार समझौता एक नया पैंतरा बन गया। इन समझौतों के प्रभाव से विकासशील देशों की उभरती उत्पादक इकाइयों का गला घोंट दिया गया। इस आपदा से निपटने के लिए विकासशील देशों ने आयात शुल्क द्वारा अपने औद्योगिक क्षमता को बचाने का प्रयास किया। कुछ देश सफल हुए और कुछ असफल। इन दिनों यह सफल देश ट्रंप के निशाने पर हैं। यह विषय तो बहुत बड़ा है यहाँ मैं इसे संक्षिप्त कर रहा हूँ।
मैं चीन का उदाहरण लेता हूँ। चीन ऐसे ही सफल देशों में से एक है। जैसे जैसे चीन की उत्पादक क्षमता बढ़ी, यू.एस.ए. की कम्पनियों ने अधिक लाभ कमाने के लिए अपना उत्पादन चीन में करना आरम्भ कर दिया। यू.एस.ए. के कारख़ाने, गोदामों में बदल गए। माल चीन में बनता और भूतपूर्व कारख़ानों में स्टोर किया जाता और वहीं से यू.एस.ए. के उपभोक्ताओं को बेचा जाता। आरम्भिक वर्षों सभी प्रसन्नचित्त थे क्योंकि उपभोक्ता को सामान सस्ता मिल रहा था और कम्पनियों के मालिकों के लाभ में वृद्धि हो रही थी। यह एक मीठा विष था। क्योंकि यू.एस.ए. के उत्पादक अब केवल वितरक बन गए थे तो उद्यौगिक क्षमता समाप्त होने लगी और इस क्षेत्र में नौकरियाँ समाप्त होती चली गईं। इसका प्रभाव यू.एस.ए. के शिक्षा-क्षेत्र पर पड़ने लगा। बाज़ार में मशीन मकैनिकों की आवश्यकता नहीं रही तो टैक्निकल इंस्टिट्यूट्स ने इन विषयों को पढ़ाना बंद कर दिया। इस टैक्नॉलोजी की शिक्षक बेकार हो गए। यानी भविष्य में फिर से यू.एस.ए. में उत्पादन को आरम्भ करना भी इतना आसान नहीं रहा है।
डोनाल्ड ट्रंप इस समस्या को अच्छी तरह समझते हैं। भारत में मोदी जी भी इसे समझते हैं। अन्तर इतना है कि यू.एस.ए. विकसित देश है और भारत, चीन इत्यादि विकासशील। यू.एस.ए. उपभोक्ता देश बन चुका है और विकासशील देश आपूर्तिकर्ता। इस परिस्थिति में पैसे का बहाव पलट गया है। भारत और चीन अमेरिका से कम ख़रीदते हैं और अधिक बेचते हैं जो ट्रंप को नागवार गुज़र रहा है। ट्रंप की चिंता का एक कारण यह भी है कि जिन वस्तुओं को अमेरिका सस्ता बना सकता है उन पर चीन और भारत आयात शुल्क लगा देते हैं ताकि स्थानीय उद्योग सुरक्षित रहें। इस व्यवस्था से दुखी होकर ट्रंप आयात शुल्क बढ़ाने की धमकी तो देते हैं, परन्तु फिर पीछे इसलिए हट जाते हैं क्योंकि यू.एस.ए. में उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण पुनः आरम्भ करने के लिए वर्षों लग जाएँगे। चार वर्ष के बाद ट्रंप की कार्यावधि समाप्त हो जाएगी। प्रश्न यह भी है कि अगला राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा पैदा की गई समस्याओं को कैसे सँभालेगा?
मैंने अपने पिछले सम्पादकीय में लिखा था कि ट्रंप का बड़बोलापन उनके लिए समस्या बन सकता है। अब यह बड़बोलापन समस्या बन चुका है। मैं वह लिख रहा हूँ जो मैं कैनेडा के बाज़ारों में देख रहा हूँ। व्यापारिक समझौते, आयात शुल्क और अन्य वाणिज्यिक नीतियों पर उपभोक्ता का कोई नियंत्रण नहीं है। परन्तु उपभोक्ता के पास यह विकल्प अवश्य है कि वह किस ब्रांड की वस्तु को ख़रीदता है। कैनेडा में एक छोटी सी मुहिम चली थी “बाई कनेडियन” यानी केवल वही ख़रीदें जो कैनेडा में बना है या उगा है। कैनेडा में मौसम ऐसा है कि गर्मियों के चार महीनों को छोड़ कर ताज़ी सब्ज़ियाँ और फल आयात किए जाते हैं। यह आयात अधिकतर यू.एस.ए. के दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी राज्यों से किया जाता था। इन दिनों उपभोक्ता सब्ज़ियों और फलों को ख़रीदने पहले देखता है कि यह यू.एस.ए. से आयातित है या मैक्सिको इत्यादि दक्षिणी अमेरिका देशों से। स्थिति यह है कि यू.एस.ए. के फल और सब्ज़ियाँ ग्रोसरी स्टोरों की शेल्फ़ों पर गलने-सड़ने लगी हैं। परिणाम स्वरूप विक्रेता अब अपन स्पलायर बदल रहे हैं। कोई यू.एस.ए. से कुछ ख़रीदना ही नहीं चाहता।
प्रतिदिन समाचार पत्रों में, सोशल मीडिया में और रेडियो प्रसारणों में उपभोक्ता वस्तुओं की सूची को प्रचारित और प्रसारित किया जाता है कि अमेरिका के लोकप्रिय ब्रांड्स के कौन से कनेडियन विकल्प हैं। विशेष बात यह है कि “राष्ट्रवादी उपभोक्तावाद” की क्रांति समाप्त होने वाली नहीं है चाहे कल को ट्रंप टैरिफ़ (आयात शुल्क) बंद भी कर दे। यह परिवर्तन स्थायी होगा। ट्रंप ने घमण्ड में या कनेडियन प्रशासन को चिढ़ाने के कैनेडा को यू.एस.ए. में विलय की बात को कई बार दोहरा तो दिया परन्तु इस बड़बोलेपन ने शांतिप्रिय, शिष्ट कनेडियन लोगों में आक्रोश उत्पन्न कर दिया है। अब प्रहार कनेडियन उपभोक्ता यू.एस.ए. की जेब पर कर रहा है।
—सुमन कुमार घई
5 टिप्पणियाँ
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सुमन जी: आजकल मीडिया में ट्रंप का बहुत बोलबाला है। इस बारे में आप ने अपने सम्पादकीय में भी बहुत कुछ ख़ुलासा किया है। वैसे ट्रंप जब भी बोलता है, वो अधिकतर अमरीका की, बाहर गई हुई, इण्डस्ट्रीज़ को वापस लाने की बात करता है। हालाँकि ट्रंप के ऐसा सोचने में कुछ जान है फिर भी यह अब सब इतना सहज नहीं है क्योंकि अधिक मुनाफ़े की लालच में स्वयं अमरीकनों ने ही सस्ती लेबर के लालच में अपना सामान दूसरे देशों में बनवाना शुरू कर दिया था और अपने घर के बेस को ही समाप्त कर दिया। एक क्षण के लिये यदि हम मान भी लें कि किसी भी मैनुफ़ैक्चरिंग इण्डस्ट्री को यदि यहाँ अमरीका में बनाना शुरू कर दें तो पहले तो यह देखना होगा कि इन सामान को, अमरीका से बाहर बनाने के मुक़ाबले में, घर में बनाने की कितनी लागत आयेगी, वो कितने का बिकेगा और मालिकों को कितना मुनाफ़ा होगा। अगर मालिकों को कोई ख़ास मुनाफ़ा नहीं हुआ तो क्या, देश भक्ति के नाम पर, अमरीकी लेबर अपना रेट कम करने को तैयार हो जाएगी? अमरीका की मज़दूर यूनियन इतनी अधिक शक्तिशाली हैं कि वो यह कभी नहीं होने देंगी। वैसे, आज तीन अप्रैल की प्रैस कॉन्फ़्रैंस में ट्रंप ने बहुत से देशों पर टैरिफ़ लगाया है। इसका क्या असर होगा, वो तो आने वाला समय बताएगा।
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सुमन जी ,उपभोक्तावादी राष्ट्रवाद ऐसा ही है जैसा मार्क्सवादियों का शब्द “ शोषण व शोषित , सर्वहारा। इस की परिधि में सब समा जाते हैं। फ़्रांस की क्रांति , नेपोलियन का उदय , नेपोलियन का बंदरगाहों पर प्रतिबंध,प्रभुत्व, अमेरिका की क्रांति, इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति , से विश्व में हलचल मची हुई है। आर्थिक प्रभुत्व के लिए आयात - निर्यात पर शुल्क की लुका छिपी मची हुई है। साथ ही साथ सम्पदा दोहन wealth drain , Human labor trafficking, brain drain मजदूरों की तस्करी , बुद्धि जीवियों की मांग इसी खेल का हिस्सा हैं। अब परिदृश्य कुछ बदल गया है। इस छीना झपटी में विकसित देश आत्मनिर्भरता की जमीन ढीली कर चुके हैं। कोई भी देश आज आत्मनिर्भर नहीं रह सकता। ऐसे में सबको एक दूसरे की आवश्यकता है। जितनी जल्दी यह समझ लेंगे उतना ही जीवन सरल होगा , विश्व में शांति होगी। विश्व को वसुदैव कुटुम्ब की अवधारणा को समझना होगा। नहीं तो युद्ध के बादल मंडराते ही रहेंगे। हाथ कुछ न आयेगा। एक विचारणीय ज्वलंत समस्या पर आपके सम्पादकीय को धन्यवाद।
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अत्यंत हीं शोधपूर्ण, संपूर्ण एवं सहेजनीय संपादकीय । वास्तव में अमेरिका अपनी उस दादागिरी का सामर्थ्य गँवा चुका है जिससे उसनें पिछले दशकों में दुनिया के गरीब गुलाम देशों में हीनमन्यता भरा था तथा जिसे देखते हुए ट्रंप बड़े हुए थे। दिसम्बर 1991 में सोवियत रुस विघटन के बाद अमेरिका स्वयं को दुनिया का निर्विरोध विजेता मानने लगा था। परंतु पिछले लगभग पच्चीस तीस वर्षों में चीन का अप्रत्याशित विकास, भारतीयों के रहन सहन में सुधार एवं क्रय शक्ति में बड़ी वृद्धि ने अमेरिका को एहसास करा दिया है कि तुम्हारी अमीरी का दंभ बहुत जल्दी हीं एक आक्रोश पूर्ण वहम में बदलने वाला है। और संभवतः यह आक्रोश पूर्ण वहम राष्ट्रपति ट्रंप के व्यवहार में दिखने लगा है। भारत की धीमी और चीन की तीव्र तरक्की उनसे हजम नहीं हो रही। वे हमारे प्रधानमंत्री द्वारा भारत में चुनाव सुधार की प्रशंसा करते हैं और चीनी राष्ट्रपति के अनुगमन में तीसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बनने का सपना देखते हैं। मेरी कामना है कि उनका सपना साकार हो क्योंकि अमेरिका का जितना अच्छा नुकसान वे कर सकते हैं शायद कोई और नहीं कर सकता।
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सादर नमस्कार आदरणीय सर ???????? अति महत्वपूर्ण विषय... विश्व स्तर पर वर्तमान जो परिवर्तन हो रहा है.. विचारणीय है। सशक्त संपादकीय हेतु साधुवाद ????????
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आदरणीय संपादक महोदय, व्यापार और व्यापारिक नीतियों को मैं कभी समझ नहीं पाती थी परंतु आज साहित्य कुंज के संपादकीय ने अत्यंत सरल, सुग्राह्र शब्दों में इस अपरिचित से लगने वाले विषय को मेरे लिए भी ग्राह्य बना दिया। कनाडा की तरह भारत में भी स्वदेशी पर जोर दिया जा रहा है परंतु अभी मात्र पचहत्तर वर्ष पूर्व स्वतंत्र हुए हमारे भारत में 'आयातित 'के प्रति कुछ विशेष ही आग्रह रहता है। हमारे देश संसाधनों में इतना समृद्ध और विविध है कि मनुष्य के जीवन की हर आवश्यकता पूरी करने में सक्षम है परंतु फिर भी विदेशी वस्तुओं का मोह आर्थिक रूप सेसंपन्न समुदाय में बहुत अधिक है । सारे राजनीतिक दल गांधी जी को अपना कहने की होड़ में लगे हैं परंतु भारत के विकास के लिए जो गांधी जी का स्वप्न था कि प्रत्येक गांव अपने में आत्मनिर्भर हो, उस दिशा में आज तक कभी प्रयत्न नहीं हुए थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद की सरकारों ने औद्योगिकरण पर विशेष जोर दिया और औद्योगिक के उत्पादों को बाजार चाहिए, बाजार के लिए विश्व की आर्थिक स्थिति से समझौता करना ही पड़ता है। उसी का परिणाम हम सब देख रहे हैं। आर्थिक ज्ञानवर्धक संपादकीय के लिए साधुवाद एवं धन्यवाद
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नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ,…
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1 Oct 2017
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सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम… -
1 Sep 2016
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1 May 2016
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1 Dec 2015
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प्रथम संपादकीय
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1 Dec 2015