रेणुका जमदग्नि परशुराम सहस्त्रार्जुन: साहित्यकारों की नज़र में
विनय कुमार ’विनायक’
प्रासंगिक विषय में परशुराम के पिता का नाम बहुत कम लोग जानते हैं। ऐसे भी उनकी जमदग्नि संज्ञा भारतीय परम्परा से हटकर ईरानी परम्परा के नाम जमशेद जी से बहुत ज़्यादा मेल खाती है। वैसे भी नाम के साथ अग्नि जुड़े होने से जमदग्नि का अग्नि पूजक पारसी (पर्सियन) ईरानी होना ही सिद्ध होता है।
शक, मग, भार्गव, याजक पुरोहित वर्ग पारसी ईरानी परम्परा से आते हैं। मिथकीय पौराणिक चरित्रों को जातिवादी दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता है। परशुराम और सहस्त्रार्जुन प्रसंग को ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से परे हटकर ही समझना होगा। मगर कठिनाई यह है कि मिथकीय लेखक व पाठक ब्राह्मण वर्ग से होने के कारण उन्हें परशुराम की चारित्रिक बुराई अच्छी लगती है और सहस्रार्जुन की अच्छाई भी बुरी लगती है। सभी पुराणों में परशुराम को मातृहंता, क्षत्रिय कुलघाती, अपने माँ-पिता के शयनकक्ष की पहरेदारी में लगे अवयस्क शिव पुत्र गणेश पर परशु से प्रहार कर एक दाँत तोड़ने वाला कहा गया है। जबकि सहस्रार्जुन को योगी, कुलीन, दानी, शरणागत वत्सल, प्रजापालक राजा कहा गया है। ऐसे जघन्य कार्य करनेवाले परशुराम को अगर कोई भगवान कहे तो उनके नज़रिये को जातिवादी ही कहा जाएगा। इस प्रसंग में मिथकीय उपन्यासकार के एम मुंशी ने अपने उपन्यास ‘भगवान परशुराम’ की प्रस्तावना में लिखा, “मुझपर यह आक्षेप किया जा सकता है कि इन महानाटकों में मैंने जो भृगुवंश के महापुरुषों का चित्रण किया है, वह इसलिए कि मैं स्वयं भड़ौच का भार्गव ब्राह्मण हूँ। सम्भव है कुछ गुजराती लोग ऐसा समझें। किन्तु विवेचनशील लोग मानेंगे कि वैदिक काल में भृगुवंश एक महाप्रचंड शक्ति था। शुक्राचार्य, देवयानी, च्यवन, सुकन्या, सत्यवती, रेणुका, ऋचिक, जमदग्नि, शुनःशेप, परशुराम, कवि चायमान, और्व और मार्कण्डेय ये महाप्रतापी व्यक्ति थे।
भार्गव लोगों का स्थान-स्थान पर उल्लेख है। महाभारत तो भार्गवों के वर्णन से भरा पड़ा है। डॉ. सुखतनकर ने कहा है कि “ऋषियों में यदि कोई ईश्वर का अवतार स्वीकृत हुआ है तो वह केवल भगवान परशुराम थे।” अब पाठक समझ सकते हैं कि उन पर कोई आक्षेप लगाए या न लगाए मुंशी जी ने स्वयं ख़ुद को भार्गव ब्राह्मण कहकर अपने ऊपर आक्षेप लगा ही लिया है। भला इस स्थिति में कोई जातिवादी पूर्वाग्रह से कैसे मुक्त हो सकता है। मुंशी जी की साफ़ मंशा है अपने पूर्वज परशुराम की सारी बुराइयों को परे रखकर उन्हें अवतारी भगवान के रूप में स्थापित करने की। जो उन्होंने पुस्तक के शीर्षक से ही आरंभ कर दी है। आख़िर उन्हें भारतीय ब्राह्मण समाज में भार्गवों का एकीकरण व सर्वमान्य भी करना था। मुंशी जी ने आगे लिखा है, “विश्वामित्र के पिता गाधिन (गाधी) जह्नु कुल के थे। एक बार उनके घर पर भृगु जाति और काव्य कुल के और्व ऋचिक आए। ऋचिक ने हज़ार श्यामवर्ण के घोड़े गाधी को देकर प्रसन्न किया और उनकी पुत्री सत्यवती के साथ विवाह किया। जिन भृगुओं के नेता ऋचिक थे वे अग्नि पूजक भी थे। वे मंत्र तंत्र विद्या में कुशल माने जाते थे। अथर्ववेद पर उनका अधिकार था और उनमें से अंगिरा ने अग्नि उत्पन्न की, ऐसा उनका दावा था।
उनमें एक पूर्वज कवि उशनस् (शुक्राचार्य) अनार्य जाति के आदि गुरु थे। वे पुरु, यदु, अनु, द्रहयु व तुर्वषु—इन पाँच जातियों के मूल पुरुष माने जाने वाले राजा ययाति के श्वसुर भी थे। उनके यानी भार्गवों के आचार-विचार आर्यावर्त की दृष्टि में विश्वामित्र और वशिष्ठ के समान शुद्ध नहीं थे। परन्तु ये आर्यावर्त के बाहर जहाँ आर्यों के संस्कार बहुत शुद्ध नहीं थे वहाँ अनार्यों के साथ सम्बन्ध करने लगे थे।”
उक्त उद्धरण में के एम मुंशी जी ने भार्गवों की पूरी पोल पट्टी ईमानदारी के साथ खोल के रख दी है। यानी:
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भार्गव भारतीय आर्यों से अलग अग्नि पूजक पारसी ईरानी थे। जो बाहरी आक्रांता शक, मग के भाई बंधु थे।
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भार्गव घोड़े के व्यापारी थे और भार्गव ऋचिक ने एक हज़ार श्यामकर्णी श्वेतवर्णी घोड़े देकर चंद्रवंशी आर्य विश्वामित्र के पिता गाधी से उनकी पुत्री सत्यवती से विवाह किया था यानी गाधी राजा ने स्वेच्छा या स्वयंवर द्वारा दान दहेज़ देकर ऋचिक भार्गव से अपनी पुत्री का विवाह नहीं किया था। निश्चय ही भार्गव बाहर से आए याजक थे। ये ऋचिक भार्गव कोई और नहीं भृगुवंशी जमदग्नि के पिता और परशुराम के पितामह थे।
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भार्गव लोग आरंभ से ही आर्य राजाओं के नहीं बल्कि अनार्य असुरों दानवों के गुरु पुरोहित थे। भार्गव शुक्राचार्य (जिन्हें और्व या काव्या भी कहा जाता है और्व से अरब देश तथा काव्या से काबा मंदिर वर्तमान में काबा मस्जिद की निष्पत्ति मानी जाती है) भारतीय आर्यों नहीं अरब देश के दैत्य दानव जातियों के गुरु थे। जिनकी एकमात्र पुत्री देवयानी देव गुरु वृहस्पति के पुत्र कच से प्रेम करती थी मगर उनके द्वारा बहन मानकर ठुकराने तथा अपने पिता के आश्रयदाता वृषपर्वा दानवराज की पुत्री शर्मिष्ठा से झगड़ कर कुएँ में गिरने और चंद्रवंशी सम्राट ययाति द्वारा हाथ पकड़ कर उठाने के कारण वे ययाति की धर्मपत्नी बन गई। इसी ययाति राजा के पुत्र यदु के ज्येष्ठ शाखा के हैहय वंश में माहिष्मती के चक्रवर्ती सम्राट सहस्रार्जुन का जन्म हुआ था।
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ये भार्गव तंत्र मंत्र और अथर्ववेद के ज्ञाता और अग्नि उपासक थे। ये अनार्य व्रात्य भूमि मगध में भी बस गए थे। मगध नाम मग से पड़ा। ये भार्गव शक, मग याजक के बंधु-बांधव थे। आरंभ में वेद तीन थे। चौथा अथर्ववेद अपेक्षा कृत निम्न और शक, मग अथर्वा द्वारा रचित था। शकदेशी याचकों को आज शाकद्वीपी ब्राह्मण कहा जाता है जिसकी पहचान भारतीय कश्यप गोत्री, वशिष्ठ गोत्री आदि ब्राह्मणों से अलग है।
अब आते हैं माता रेणुका के प्रति मुंशी जी की लेखनी में उनके प्रति पवित्र या अपवित्र भावना पर। मुंशी जी आगे कहते हैं, “किन्तु ऋचिक और्व की महान सत्ता और प्रभाव आर्यावर्त के बाहर भी था। सिंधु से भागीरथी तक, मदुरा से नर्मदा तक उनका बोलबाला था। ऋचिक ऋषि के आत्मज जमदग्नि सात्विक वृत्ति के थे। पिता के देवलोक जाने पर जमदग्नि इच्छवाकु (इक्ष्वाकु) वंश की राजकन्या रेणुका के साथ विवाह करके निर्मल और सांस्कारिक जीवन बिताने लगे। उनके चार या पाँच पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुराम थे।
परशुराम की माँ के रुधिर में इच्छवाकुओं (इक्ष्वाकुओं) की स्वच्छंदता थी। उसने आर्यों के निर्मित नीति पंथ का मान त्याग दिया। मृतिकावती के राजा चित्ररथ पर वह आसक्त हो गई। इस अपराध को उस समय के आर्य पुरुषों के समान जमदग्नि ने भी अक्षम्य समझा। जमदग्नि ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि माता का वध करो। बड़े भाइयों ने पिता की आज्ञा को स्वीकार नहीं किया। परशुराम के हृदय में पिता की आज्ञा और माता की शुद्धि की भावना मातृ स्नेह से भी कहीं ऊँची थी। उसने पिता की आज्ञा को स्वीकार करके माता का सिर काट डाला।”
वाह रे माता की शुद्धि! जब काट ही दिया तो अग्नि में ही शुद्धि हुई होगी। तो यही है के एम मुंशी की पूर्वजा माता के प्रति पवित्र भावना। उन्होंने तो सीधे-सीधे माता रेणुका के अंदर बह रहे उन इच्छवाकु (इक्ष्वाकु) क्षत्रियों के रक्त को ही स्वछंद कह दिया जो सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र इच्छवाकु (इक्ष्वाकु) से चला, जिस सूर्य वंश में सत्य हरिश्चन्द्र और भगवान राम जैसे महापुरुषों का जन्म हुआ, जिस हरिश्चंद्र पुत्री पद्मिनी के भगवान विष्णु के अनंत व्रत पालन से विष्णु के सुदर्शनचक्र ने सहस्त्रार्जुन जैसे पुत्र के रूप में अवतार लिया। “मम चक्रावतारो हि कार्तवीर्यो धरातले” जिनके चरित्र पर कभी दाग़ नहीं लगा। जो सूर्य और चंद्रवंशी वास्तविक आर्य क्षत्रिय थे। भला ये अग्निपूजक ईरानी असुर याजक कब से आर्य हो गए?
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आरंभ में घोड़े बेचने वाले ईरानी असुर याजक भार्गव पहले धन देकर आर्य कन्या प्राप्त करते थे। बाद में याजक पुरोहित बनकर कन्या दान में प्राप्त करने लगे थे।
ऋचिक से सत्यवती, च्यवन से सुकन्या, जमदग्नि से रेणुका सबकी विवाह कथा एक-सी राजकन्या की राजाओं से याचना या दान में प्राप्त करना है। मुंशी जी ने वृद्ध माता रेणुका और उनके पितृवंश इच्छवाकु (इक्ष्वाकु) सूर्यवंशी क्षत्रियों पर निराधार मनगढ़ंत आक्षेप लगाकर जमदग्नि और परशुराम के मातृवध जैसे घृणित अपराध को महिमा मंडित सिर्फ़ इसलिए किया है कि वे भी भार्गव ब्राह्मण थे।
अन्य जातियों की तरह ब्राह्मण जातियों का विभिन्न सृजन स्रोत है। कुछ भारतीय तो कुछ शक, मग, भार्गव की तरह शकदेशी ईरानी मूल के। आज लगभग सभी ब्राह्मण अपने को एक जाति वर्ग के समझने लगे हैं। इसलिए भार्गव ब्राह्मण के अभारतीय कृत्य मातृवध, पूर्व से चले आ रहे भारतीय क्षत्रियों पर आक्रांताओं के समान आक्रमण और संहार को गौरवान्वित करते हुए ब्राह्मणों के भगवान के रूप में जयंती मनाने लगे हैं। निश्चित रूप से यह घोर जातिवाद का पोषण है। अगर कोई ग़ैर ब्राह्मण मातृवध करता तो उसे अवतार नहीं, मानसिक रूप से बीमार कहा जाता।
परशुराम ने एक गोहरण के बहाने एक महायोगी प्रजापालक राजा सहस्रार्जुन का वध कर दिया जो उनका मौसा भी था। आगे इस बात को इतना तूल दिया गया कि इक्कीस बार क्षत्रियों को संहार करके उनके ख़ून से पाँच कुंड भर दिये। जबकि कारण मामूली था—तथाकथित एक गाय का हरण जिसे तत्क्षण वापस पा भी लिया गया। इस छोटे कारण से परशुराम द्वारा बड़ा हिंसात्मक संहार, आर्यावर्त के आर्य क्षत्रियों के गोत्रपिता कश्यप को सहन नहीं हुआ और उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को स्वयं लेकर परशुराम को आर्यावर्त से बाहर देश-निकाला का दण्ड दिया था। यह घोर आश्चर्य है कि जिस सहस्त्रार्जुन को शास्त्रों में महानायक के रूप में चित्रित किया गया है, उसे साज़िश के तहत, कुछ परवर्ती पौराणिक प्रक्षेपों और आधुनिक काल के भार्गव कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी और विश्वंभरनाथ उपाध्याय जैसे ब्राह्मण विद्वानों ने खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। लेकिन लाख प्रयत्न के बावजूद परशुराम को न तो नायक ही बनाया जा सका और न सहस्त्रार्जुन को खलनायक साबित किया जा सका है। विष्णु पुराण में कार्तवीर्य अर्जुन की सदाशयता का वर्णन इस प्रकार है:
“न नूनं कार्तवीर्यस्य गति यास्यान्ति पार्थिवा:।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रयेण श्रुतेण च॥(अंश 4अ11श्लोक16)
अर्थात् यज्ञ, दान, तप, विनय और विद्या में कार्तवीर्य अर्जुन की समता कोई भी राजा नहीं कर सकता। वायु पुराण अध्याय 94/20 में यही श्लोक कहा गया है। हरिवंश पुराण के अध्याय 33 श्लोक 20 विष्णु पुराण की तरह ही है। हरिवंश पुराण में आगे कहा गया है:
यस्तु बाहुसहस्त्रेण सप्तदीपेश्वरोद्भवत्।
जिगाम पृथ्वीमेको रथेनादित्य वर्चसा॥(39/9)
अर्थात् अर्जुन सहस्त्र भुजाओं से युक्त होकर सातों द्वीपों का राजा हुआ। उसने अकेले ही सूर्य के समान तेजस्वी रथ द्वारा संपूर्ण पृथ्वी को जीत लिया, उसने अपने लिए कभी किसी से कुछ नहीं माँगा।
मत्स्य पुराण में कहा गया है कि सद्भावना में वे प्रातः स्मरणीय हैं:
सद्भावेन महाप्राज्ञ: प्रजाधर्मेण पालयन्।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बहू सहस्त्रवान॥
अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन नामक राजा प्रातः स्मरणीय और पुण्य चरित्र वाला है। हैहयराज कार्तवीर्यार्जुन अति प्रेम, सद्भावना एवं धर्मपूर्वक अपनी समस्त प्रजा का पालन और रक्षण करता है। महाभारत शान्ति पर्व 49/37 में कहा गया है:
ददौ स पृथ्वी सर्वां सप्त द्वीपाम् सपर्वताम्।
स्वबाहौस्त्रबलेनोजौ जित्वा परमधर्मवित्॥
अर्थात् श्रेष्ठ धर्म का ज्ञान रखने वाले उस राजा ने सप्त द्वीपों तक फैली हुई तथा पर्वतों से युक्त पृथ्वी अपने बाहुबल एवं शस्त्र के ज़ोर पर जीत कर दान कर डाली। अगले श्लोक 44में व्यास जी ने कहा है:
अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्यक:।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत॥
अर्थात् हे भारत! महान तेजस्वी सामर्थ्यवान होकर भी संयमी अर्जुन ब्रह्म को जानने वाला शरणागतों के प्रति सद्भाव रखनेवाला दानवीर व शूरवीर था। स्मृति पुराण में माहिष्मती महात्म्य के अध्याय 15 श्लोक 3 में वर्णन है:
कार्तिकस्यसिते पक्ष सप्तभ्यां भानुवासरे
श्रवणर्क्षे निशानाये निशिचे सु सुभेदर्णे॥
अर्थात् कार्तिक मास की सप्तमी के दिन रविवार को प्रातःकाल श्रावण नक्षत्र में, शुभ मुहूर्त में अर्जुन का जन्म हुआ। भविष्य पुराण के अध्याय 106 में सहस्त्रार्जुन जन्म कथा इस प्रकार है:
युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा हे प्रभु! मुझे ऐसा कोई व्रत बतायें जिसके करने से शुभ लक्षणों से युक्त पुत्र की प्राप्ति हो तो इसपर श्री कृष्ण ने कहा महाराज इस विषय में एक अति प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध कथा है। हैहय क्षत्रिय वंश में माहिष्मती नगरी में कृतवीर्य नामक एक महान राजा हुआ था। जिनकी पटरानी पद्मिनी सरमादेवी अत्यंत शील संपन्न और शुभ लक्षणों से युक्त थी। उसने उत्तम पुत्र प्राप्ति हेतु याज्ञवल्क्य की ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी से उपाय पूछा और उसके परामर्श से अनन्त व्रत में भगवान विष्णु की अराधना की जिससे भगवान विष्णु ने श्रेष्ठ गुणयुक्त पुत्र प्रदान किया। जिसके जन्म लेते ही आकाश निर्मल हो गया देवगण दुंदुभि बजाने लगे पुष्प वृष्टि करने लगे। राजा कृतवीर्य ने शुभ नक्षत्र में जन्म लेने वाले पुत्र का नाम अर्जुन रखा।
इसी सहस्रार्जुन की हैहय वंश परम्परा में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। वंशावली इस प्रकार है:
सहस्रार्जुन के सौ पुत्रों में पाँच पुत्रों शूरसेन शूर से शौरि, वृषसेन से वृष्णि, मधुध्वज से माधव और जयध्वज से तालजंघ, तालजंघ से पाँच पुत्र वीतिहव्य, शर्यात, शौण्डिकेय/तुण्डिकेर, भोज व अवंती हुए। वृष्णि के वार्ष्णेय शाखा में श्री कृष्ण, बलराम का जन्म हुआ था। ये हैहय यदुवंशी क्षत्रिय शाखाओं की जातियाँ आज भी अस्तित्व में है। यदु से यदुजा यानी जडेजा राजपूत, शौण्डिकेय से शौण्डिक कलचुरी राजपूत, सुरी शौरि सोढ़ी सुड़ी सुदी खत्री/क्षत्रिय जातियाँ। इसके अतिरिक्त सेनवंशी कायस्थ, चंद्रसेनी चित्रगुप्त वंशी कायस्थ, गोप, यादव, कलार, कलाल, कलवार, जायसवाल व अन्य क्षत्रिय समवर्गी जातियाँ। इस तरह से हैहयवंश का संपूर्ण संहार नहीं हुआ है। सहस्त्रार्जुन के प्रति आस्था रखने वाले लोगों की कमी नहीं है। सहस्रार्जुन की महानता के ऐसे सैकड़ों उदाहरणों की भरमार है।
सिर्फ़ जातिवादी चश्मा उतारकर पढ़ने और लिखने वाले की बेहद कमी है। डॉ. महेंद्र मित्तल ने लिखा है, “ऐसा लगता है कि भृगुवंशी ब्राह्मणों ने पौराणिक आख्यानों में, बाद में सहस्त्रार्जुन के वर्चस्व को धुँधला करने का प्रयास किया था किन्तु अठारह में से ग्यारह पुराणों में वर्णित सहस्त्रार्जुन की विरुदावली को वे फिर भी धूमिल नहीं कर पाए।”
अब आते हैं मुंशी जी का परशुराम के सम्बन्ध में विचार क्या है? मुंशी जी ने यह भी स्वीकार किया कि परशुराम के जन्म, बचपन, विवाह आदि वृत्तांत पर विशेष सामग्री नहीं है। मिश्रबंधु अपने भारत वर्ष के इतिहास में लिखते हैं, “वेदों में परशुराम का नाम नहीं आता है।” पुराणों में भी परशुराम के बाल्यकाल का वर्णन नहीं है। फिर यह कैसा अवतार है? अगर अवतार होते तो क्षुद्र जातिवादी स्वार्थ से ऊपर उठकर मानवता की भलाई का काम करते। तत्कालीन ब्राह्मण से राक्षस बन चुके वैश्विक आक्रांता रावण को दंड देते या रावण विजेता कार्तवीर्यार्जुन की सराहना करते या फिर राम रावण युद्ध में राम को सहयोग करते लेकिन इन अवसरों पर ये अनुपस्थित रहे। इससे स्पष्ट है कि परशुराम का बचपन अपने पितामह ऋचिक और्व के अरब देश के काव्या यानी काबा मंदिर में बीता था और समय-समय पर आक्रांता की तरह आर्यावर्त पर आक्रमण करते थे।
श्री चिंतामणि हटेला ने हैहय क्षत्रिय वंश का इतिहास में के एम मुंशी की परशुराम के भगवान विषयक कल्पना को नितांत मिथ्या विचार व मनगढ़ंत कल्पना कहा है। के एम मुंशी ने अपने लोमहर्षिणि उपन्यास में उनके जन्म वृत्तांत को इस प्रकार लिखा है कि “बालक परशुराम का जन्म जिस दिन हुआ वह दिन बड़ा भयानक था। उस दिन इंद्र क्रुद्ध हो उठे। मेघ गर्जन और बिजली की चमक से पृथ्वी काँप उठी थी। नदी में बाढ़ आई और कितने ही वृक्ष पशु और मनुष्य उस बाढ़ में बह गए –जब वह कुछ बोलना चाहता तो रोता नहीं था वरन् वृषभ के समान चिल्लाता था। कुछ बड़ा होते ही वह जो चाहता था बलपूर्वक छीन लेता था। उसका सिर सामान्य से बहुत बड़ा था।”
ऐसे अशुभ लक्षण दुर्योधन के जन्म के अशुभ मुहूर्त को याद दिलाते हैं जब वह गदहे की तरह रेंकने लगा था। मुंशी जी ने लोमहर्षिणि उपन्यास में यह दिखलाते हैं कि राजा सुदास अपनी बहन का विवाह सहस्त्रार्जुन से करना चाहते थे। परशुराम की उम्र उस समय 14 वर्ष की थी और लोमहर्षिणि की उम्र 20 वर्ष थी।
परशुराम उपन्यास में दोनों को प्रेमी प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं। फिर लोमहर्षिणी बटुकदेव अध्याय में लिखते हैं, “लोमा की माता जन्म के समय चल बसी थी, इसलिए माँ की मौसेरी बहन भगवती रेणुका ने ही उसका पालन पोषण किया था और इससे रेणुका को अम्बा ही कहती थी” यानी लोमहर्षिणी परशुराम की बड़ी मौसेरी बहन थी।
परशुराम के ऐसे चरित्र को दर्शा कर वे क्या कहना चाहते हैं? अब आते हैं तत्कालीन ब्राह्मण वशिष्ठ और परशुराम के खान-पान पर। भवभूति (700 ई) राम के आरंभिक जीवन का विवरण देते एक दृश्य का वर्णन करता है, जिसमें वशिष्ठ क्रुद्ध परशुराम से अनुरोध करता है कि वह जनक का आतिथ्य स्वीकार कर ले, जिसमें एक बछिया (बत्सरी) की बलि भी शामिल थी। उत्तर रामचरितम नाटक में स्वयं वशिष्ठ का वर्णन वाल्मीकि के आश्रम में ‘बेचारे पिंगल वर्ण बछड़े’ के मांस का रसास्वादन करते हुए किया गया है। वाल्मीकि का एक शिष्य कहता है कि अपने श्रोत्रिय अतिथि को एक बछिया या सांड अथवा बकरा परोसना गृहस्थ का धर्म है।
“समांसो मधुपर्क इत्यमनायम् बहूमान्यमान: श्रोत्रियायाभ्यगताय वत्सतरीम् महोक्षं वा महाजं वा निर्वपन्ति गृहमेदिन:।” (पवित्र गाय का मिथक, द्विजेंद्र नारायण झा)
इस कथन से यह भी स्पष्ट है कि ग़ैर ब्राह्मण गृहस्थ सामिष मधुपर्क के अधिकारी नहीं थे। राजा जनक ने निरामिष मधुपर्क साथ में लिया था।
भार्गव ब्राह्मण परशुराम और हैहय क्षत्रिय सहस्त्रार्जुन में विग्रह का कारण– श्रीमद्देवीभागवत पुराण अ16/31 में कहा गया है कि साधारण कारण से क्षत्रियों और ब्राह्मणों में वैर भाव उत्पन्न हो गया हो इसे माना नहीं जा सकता है, “वैरं पुरोहिते:सार्धे कस्मात्तेषामजायत। ताल्यहोतोहिं तद्वैरं क्षत्रियाणां भविष्यति॥”
आगे इसी पुराण के अध्याय 16/13-19 में कहा गया है:
“धनकार्ये समुत्पन्नं हैहयानां कदाचन।
याचिष्णवोऽ भिजग्मुस्तान्भृगूगूंस्ते हैहया नृप॥
विनयं क्षति्त्रया: कृत्वाडप्ययाचंत धनं बहू।
न ददुस्तेऽतिलोभार्ता नास्ति नास्तिहीति वादिन:॥
अर्थात् “किसी समय हैहय क्षत्रिय गणों को बहुत धनवाले किसी कार्य के लिए धन की ज़रूरत पड़ी तो उन्होंने भार्गवों के निकट जाकर विनय सहित धन देने की प्रार्थना की। किन्तु विप्रगणों ने अत्यंत लोभ के कारण ‘नहीं नहीं’ कहकर धन देने से मना कर दिया।”
आगे के श्लोक का अर्थ है “परंतु क्षत्रिय बलपूर्वक धन ले लेंगे इस शंका से उन्होंने अपना उत्तम धन पृथ्वी में दबा दिया और इधर-उधर कर दिया। धनलोभी भार्गव अपने सारे धन को सुरक्षित करके अपने घर छोड़कर पर्वतों में चले गए। लोभ से मोहित ब्राह्मणों ने यजमानों को दुखी देखकर भी धन नहीं दिया। दुखी होकर श्रेष्ठ हैहय क्षत्रियों ने किसी महान कार्य, संभवतः जनहित कृषि कर्म के लिए यह धन माँगा था। उस समय सर्वत्र वन ही वन थे और उन वनों को हटाकर कृषि योग्य भूमि तैयार करने की ज़रूरत थी”। जबकि ये सारा धन दानी राजा सहस्त्रार्जुन द्वारा ही भार्गवों को दान में मिला था जिसे निम्न श्लोक से समझा जा सकता है:
“कार्तृवीर्येति नाम्राऽभूद्धैहय:पृथवीपति:।
सहस्त्रबाहुर्बलवानर्जुनो धर्मतत्पर॥16/8 श्रीमद्देवीभागवत पुराण
यज्वा परमधर्मिष्ठ: सदा दानपरायण:।
ददौ वित्तं भृगुभ्योऽसौ कृत्वा यज्ञाननेकश:॥16/10
धनिनस्ते द्विजा जाता भृगवो नृपदानात:।
ह्यरत्नसमृद्ध्योऽऽढया संजाता: प्रथिता भुवि॥16/11
अर्थात् “पूर्वकाल में हैहयवंश में उत्पन्न सहस्त्रबाहु बलवान कार्तवीर्य अर्जुन नामक एक धर्मपरायण राजा था। वह अतिदानी था। वह नृप श्रेष्ठ भृगुवंशी ब्राह्मणों का यजमान भी था। वह यज्ञ करने वाला और परम धर्मनिष्ठ था। उसने अनेक बार यज्ञ करके भार्गव ब्राह्मणों को बहुत सा धन दिया था। कार्तवीर्यार्जुन के दान से वे विप्र गण बहुत से गौ अश्व और रत्नादि से ऐश्वर्यशाली होकर पृथ्वी पर अत्यंत धनी होकर घूमते थे।”
उक्त श्लोकों से समझा जा सकता है कि तत्कालीन भार्गव कितने लोभी और कृतघ्न थे। अपने आश्रयदाता यजमान और रिश्तेदार बन चुके क्षत्रिय राजाओं के साथ कितने छल करते थे। ये आश्रमवासी इतने समृद्ध मगर कपटी हो गए थे कि आतिथ्य में सोने, चाँदी के बर्तनों में हज़ारों सैनिक अतिथियों को छप्पन भोग कराते थे और श्रेय देते थे उस इन्द्र प्रदत्त एक कामधेनु गाय को जो सिर्फ़ एक थी। वो भी देवराज इन्द्र के पास इस घोषणा के साथ कि देवराज इन्द्र ने उन्हें दान दिया है इस शर्त के साथ कि किसी दूसरों को नहीं देना है। यानी इन याचकों को आश्रम चलाने की भूमि, गोधन, रत्न, अन्न धन आदि दान मिला आर्यावर्त के राजाओं से मगर ईरानी राजा इन्द्र का गुणगान करते हैं। भार्गवों के आश्रम भी ख़ास अपने समाज के लोगों के लिए होते थे ग़ैर ब्राह्मण सामान्य लोगों को शिक्षा नहीं दी जाती थी।
परशुराम के ग़ैर ब्राह्मण शिष्यों में दो ही नाम है देवव्रत भीष्म और शापित कर्ण। लेकिन राजा द्वारा जंगल जलाकर कृषि योग्य बनाई गई सारी भूमि ये अपने आश्रम के लिए लेना चाहते थे अन्यथा राजा को आश्रम जलाने का आरोपी बनाकर शाप दे देते थे। जमदग्नि के पिता ऋचिक, सहस्रार्जुन के पिता कृतवीर्य को शाप देकर आर्यावर्त से बाहर अपने पुराने असुर राज्याश्रय दानव गुरु और्व के पास चले गए। फिर जमदग्नि ने सहस्रार्जुन से पुरोहित पद प्राप्त किया किन्तु कृषि योग्य वन जलाने के क्रम में आपव ऋषि यानी वशिष्ठ से आश्रम जलाने के आरोप में शाप दिला दिया कि तुम्हारा वध ब्राह्मण के हाथों होगा। यानी ये शाप दिलाना एक षड्यंत्र था शास्त्रों में प्रक्षिप्त सामग्री डालकर एक उच्च चरित्र के शासक का चरित्र हरण और ब्राह्मणी वर्चस्व स्थापित करने का। वर्णा राम पूर्व आक्रांता रावण का विजेता सहस्त्रार्जुन तो महान शासक थे। जिनको पचासी (सहस्त्र) वर्षों तक धर्म पूर्वक शासन करने के पश्चात एक आसुरी वृत्ति के परशुराम द्वारा वध किया जाना एक ब्राह्मणी प्रक्षिप्त लेखन और चरित्र हनन ही है। यही एक कामधेनु गोहरण का आरोप सहस्रार्जुन के पूर्व भी चंद्रवंशी राजा विश्वामित्र पर वशिष्ठ द्वारा लगाया गया था। वस्तुतः दान लेना, शाप देना ब्राह्मण याचकों का एक अस्त्र हो चुका था। इस दान अस्त्र के द्वारा क्षत्रियों को कन्यादान देने के लिए विवश किया जाता था और राज कन्याओं की ज़िन्दगी से खिलवाड़ किया जाता था। भार्गव ऋचिक ने एक हज़ार श्यामकर्णी श्वेतवर्णी अश्व देकर राजा गाधी की पुत्री यानी विश्वामित्र की बहन सत्यवती का दान लिया था और रिश्तेदारी बनने के बाद पुनः उन अश्वों को राजा गाधी से दान में वापस ले लिया और पुनः दान में प्राप्त उन अश्वों को चार अन्य राजाओं को भार्गव याचकों द्वारा बेच दिया गया। गाधी के पश्चात विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि बनकर उन्हीं अश्वों की प्राप्ति के लिए अपने शिष्य ब्राह्मण कुमार गालव से गुरु दक्षिणा स्वरूप माँगी थी। स्नातक ब्राह्मण गालव ने चक्रवर्ती राजा ययाति से उनकी पुत्री माधवी को दान में लेकर दक्षिणा प्राप्ति हेतु उन्हीं राजाओं के पास सशर्त एक पुत्र जन्म होने की अवधि तक के लिए माधवी को बेचता गया। अंततः चार राजाओं से आठ सौ अश्व प्राप्त करने के पश्चात मतलब-परस्त गालव ने माधवी से पाणिग्रहण नहीं किया बल्कि अपवित्र कहकर उनके पिता ययाति के घर में, उसे अपनी नियति पर छोड़ दिया। अस्तु भार्गव ऋचिक, जमदग्नि, परशुराम, पुलस्त्य पौत्र रावण अगर आज के ब्राह्मण समाज का आदर्श या भगवान बने तो निश्चय ही हिन्दु समाज से ब्राह्मण समर्थित जातिवाद जैसी बुराई का कभी अंत नहीं होगा। जातिवादी घृणा का आरंभ अगर ब्राह्मण से हुआ है तो इसका अंत भी ब्राह्मण समाज की सदाशयता और नीर क्षीर विवेक से ही होगा।
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