रावण कौरव कंस कीचक जयद्रथ क्यों बनते हो? 

01-01-2024

रावण कौरव कंस कीचक जयद्रथ क्यों बनते हो? 

विनय कुमार ’विनायक’ (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

हर कोई अपनी वजह से परेशान होते, 
सब अपने ही कर्म का अंजाम भोगते, 
कोई पूज्य या घृणित होते स्वभाव से, 
सुख-दुख का कारण मानव स्वयं होते! 
 
धनकुबेर तो धन के स्वामी थे तब भी, 
जब सोने की लंका उनसे छिन गई थी, 
स्वर्ण नगरी का स्वामित्व बदला किन्तु
नए-पुराने मालिक की हस्ती कहाँ बदली? 
 
रावण लेकर लंका धनकुबेर हो ना सका, 
वह आजीवन बना रहा अपहर्ता आक्रांता, 
कुबेर ने सब छिन जाने पर बनाया नहीं
एक भी शत्रु किंवा बन गए अमर देवता! 
 
रावण ने ख़ुद ही आमंत्रित किया मृत्यु को, 
सबके पालनकर्ता बने रावण का मृत्युदाता, 
मानवता की सुरक्षा में ईश्वर अवतरित होते, 
इस धरा में शैतान रक्षक होते नहीं विधाता! 
 
तुम बनोगे कंस तो कृष्ण भी नहीं बचाएँगे, 
तुम दुर्योधन हो तो सदा कमी होगी धन की, 
मुट्ठीभर मिट्टी बाँटने की चाहत नहीं होगी, 
पर जर ज़मीन हड़पने में जान चली जाएगी! 
 
तुम्हें नहीं है सद्बुद्धि, मगर अहं सर्वजेता की, 
तुझे ना मिलेगी सद्गति, पर मौत सिकंदर सी, 
ये दुनिया है मिल जुलकर साथ रहने वालों की, 
जीव जंतु ज़रूरतमंदों पर कृपा लुटाने वालों की! 
 
कोई दरिद्र सुदामा मिले, तब दानी कृष्ण बनो, 
कोई द्रुपद बने तो बनने दो, तुम ना द्रोण बनो, 
मिल-बाँट जो जिए वो जोड़ी ताउम्र सलामत रही, 
कृपण व लुटेरे की अकाल मृत्यु में गई ज़िन्दगी! 
 
तुम व्यर्थ मोह क्यों करते हो नाते रिश्तेदारों का? 
जिसने जन्म दिया उन्होंने जीने की व्यवस्था की, 
जिस पुत्र के मस्तक में मणि थी, उनकी ज़िन्दगी
उनके निज पिता ने ही पुत्रमोह में घिन-घिना दी! 
 
धन मद, मन मद, यौवन मद में मदांध ना हो, 
रावण कौरव कंश कीचक जयद्रथ क्यों बनते हो? 
नारी को प्रताड़ित करके मिलती नहीं है सद्गति, 
यह कर्मभूमि सत्कर्म कर जीवन जीने वाले की! 

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