करो अमृत का पान करो अमृत भक्षण 

15-09-2024

करो अमृत का पान करो अमृत भक्षण 

विनय कुमार ’विनायक’ (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

करो अमृत का पान, करो अमृत भक्षण, 
अर्थ को समझो, अमृत कलश ना खोजो, 
अमृत जो मृत नहीं, मरा नहीं वो अमृत, 
मृत ख़ून ना पिओ, मृत मांस ना खाओ! 
 
‘अहिंसा परमो धर्म अहिंसा परं तप:।’
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है! 
 
‘अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्म:प्रवर्तते।’
अहिंसा परम सत्य, उससे धर्म में प्रवृत्ति होती! 
 
‘अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दम:।’ 
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है! 
 
‘अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तप:॥’
अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम तप है! 
 
‘अहिंसा परमो यज्ञ अहिंसा परं फलम्।’
अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है! 
 
 ‘अहिंसा परमं मित्रं अहिंसा परमं सुखम्॥‘
अहिंसा परम मित्र है, अहिंसा परम सुख है! 
 
‘न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वापि जायते।'
मांस न तृण से न काष्ठ से न पत्थर से होते! 
 
‘हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद् दोषस्तु भक्षणे।’ 
मांस जीव हत्या से मिलते जिसे दोष खाने में! 
 
मांस जीव हत्या करने पर ही उपलब्ध होते 
जो स्वाहा; देवयज्ञ और स्वधा; पितृयज्ञ के
यज्ञ अवशिष्ट अमृत खाते वो देवता कहलाते
जो कुटिल असत्य भाषी मांसभक्षी राक्षस वे! 
 
जो अपने मांस को पराए मांस से बढ़ाना चाहते, 
उससे बड़ा नीच निर्दयी मनुज न कोई दूजा होते! 
‘स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति। 
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात् स नृशंसतरो नर:॥’
 
निज प्राण से प्रिय धरा पर और नहीं कोई दूसरा, 
जैसी दया ख़ुद की चाह, वैसी दया सबको आसरा! 
‘न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते। 
तस्माद् दयां नर:कुर्याद् यथाऽ ऽस्मनि तथा परे॥’
 
अहिंसा ही धर्म का लक्षण, इसे धर्मज्ञ जानते, 
जो अहिंसात्मक कर्म हो, करे आत्मवान नर उसे! 
‘अहिंसा लक्षणो धर्म इति धर्मविदो विदु:। 
यदहिंसात्मकं कर्म तत् कुर्यादात्मवान नर:॥’
 
न कभी दयालु को जग में भय से सामना होता, 
दयालु औ तपी हेतु इहलोक परलोक सुखद होता! 
‘न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावत:। 
 दयावतामिमे लोका:परे चापि तपस्विनाम्॥’
 
जो दयापरायण जन सबको अभय दान देते
ऐसा मैंने सुना उसे सब प्राणी अभय करते! 
‘अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापर:। 
 अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम॥’
 
प्राणदान से परम दान न कभी हुआ ना होगा, 
अपनी आत्मा से प्रियतर न कोई है ना होगा! 
‘प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति। 
 न ह्यात्मन:प्रियतरं किंचिद्स्तीह निश्चितम्॥’
 
हे भारत! किसी प्राणी को मरण अभीष्ट नहीं होता, 
मृत्युकाल में सब जीवों का शरीर तुरंत काँप उठता! 
‘अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत। 
 मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायति वेपथु:॥’
 
जो जीवित रहने की इच्छा वाले जीव के मांस खाते, 
वे दूसरे जन्म में उस जीव द्वारा भक्षण किए जाते! 
‘ये भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम्। 
भक्ष्यन्ते तेऽपि भूतैस्तैरिति में नास्ति संशय:॥’
 
हे भारत! मांस का मांसत्व को समझो, 
जिस प्राणी का वध किया जाता वे प्राणी कहते, 
अभी मम अंश यानी मेरा मांस जो भक्षण करते, 
कभी मैं भी उसे खा जाऊँगा समझ लो! 
(मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमष्यहम। 
 एतन्मांसस्य मासत्वमनुबुद्धन्घस्य भारत।) 
 
जो हिंसा न करे उसका तप अक्षय, वह सर्व यज्ञ फल पाता, 
हिंसा नहीं करनेवाले मनुज सब प्राणियों के सम माता-पिता! 
‘अहिंस्त्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्त्रो यजते सदा। 
 अहिंस्त्र: सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता॥’
(महा. अनु. पर्व अ. 115/116 का काव्यात्मक भावानुवाद) 
 
हे नर हिंसा करना छोड़ दो, 
हिंसा का कर्मफल सिद्धांत समझो 
क्रूर बर्बर कसाई बनकर किसी 
जीव की हत्या कभी नहीं करना, 
वर्ना तुम्हें उस जीव की हिंस्र 
पंजे का शिकार हो पड़ेगा मरना! 
 
हो विहीन दंत दाढ़ पंजा शाकाहारी 
जीव अपने किए को भोगता, 
सोचो पिद्दी सा शेर भेड़िए कैसे 
बड़े तृणभक्षी की हड्डी चबाता? 
हिंसक जीव को देखो कैसा 
क्रोध आक्रोश उनकी आँखों में होता? 
 
वो शेर भेड़िया पूर्वजन्म में निरीह 
भेड़ बकरी गाय आदि योनि थी 
जिसे तुमने नर व्याघ्र बनकर 
शस्त्र से मारकाट कर जान ली थी 
इस जन्म में तुम शाकभक्षी बने हो, 
उससे मरना तुम्हारी नियति! 
 
हे नर! अहं वश मत करना 
किसी जीव जन्तु का सर तन से जुदा, 
सिर्फ़ तुम्हारा नहीं, उस निर्दोष 
जीव का भी है वो ईश्वर रब ख़ुदा! 

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