"अब देखों न, केवल कविताओं के सहारे तो इतनी लंबी ज़िंदगी नहीं काटी जा सकती है।" उससे यह उस युवती ने कहा था जिसको संयोगवश उसके माता-पिता ने कविता नाम दिया था। उसका मानना था कि कविता उसकी प्रेमिका थी। वैसे भी पिछले चार वर्षों के दौरान कविता उसे बार-बार यही भरोसा देती रही कि वह उसके अपने पैरों पर खड़ा होने की प्रतीक्षा कर रही है और वह उसके अलावा किसी और की कैसे हो सकती है? ख़ैर, इधर कविता यही कोई बीस-पच्चीस दिनों से उससे आँखें चुराने लगी थी और जब मिली तो उसने अपने मन में छुपे राज़ पर से पर्दा हटा दिया। असली पीड़ा उसे तब महसूस हुई जब उसे एक मित्र ने बताया कि कुछ ही दिनों में कविता का विवाह एक आईपीएस ऑफिसर से होने वाला है।

बहुत गहरी ठेस पहुँची थी उसके दिल को उस दिन। तुरंत ही उस कसबे को छोड़ वह इस महानगर में आ गया था और फिर पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान वह अपने पैरों पर ऐसा खड़ा हुआ कि जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी न था। आज इस महानगर और देश की राजधानी में वह बतौर एक केंद्रीय मंत्री के रूप में लोगों को अपने पैरों पर खड़ा होने की सलाह देता रहता है। इतना ज़रूर है कि इस महानगर में आने के बाद फिर उसने कभी कोई कविता नहीं लिखी।

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