वह जब भी किसी वज़ह से खिन्न होता है, लगातार बोलता चला जाता है और आज भी ऐसा ही हुआ। आज उसने कहीं पढ़ लिया - "आज़ादी के बाद हमारे देश में जितने भी महापुरुष हुए" और इस छोटे से वाक्य ने उसे बेचैन कर दिया। वह मेरे से कहने लगा - "अक्सर हम लोग अपने स्वार्थों अथवा अपनी मूर्खता की वज़ह से बहुत से ऐसे लोगों पर "महापुरुष" का लेबल चस्पा कर देते हैं जो कभी- भी तो पुरुष तक कहलाने की क़ाबलियत नहीं रखते। अब तक जितने लोगों को महापुरुष का यह ख़िताब नवाजा गया, अगर अपने देश में सचमुच इतने महापुरुष हुए होते तो आज देश का रंग इतना बदरंग न होता। सोचिये तो सही, क्या इतने महापुरुषों के रहते हुए इतने लोग भूख और गरीबी का शिकार हो सकते हैं? क्या माँ, बहन, बेटियों और बच्चों पर इतने अत्याचार हो सकते हैं? मेरे ख़्याल से कदापि नहीं। दरअसल, जिन्हें हम महापुरुष कहते रहे हैं, वे ऐसे बड़े लोग होते हैं जो अपनी कुछ खूबियों और कौशल की बदौलत अपने लिए समाज में एक बेहतर जगह बना लेते हैं और फिर उपलब्ध संसाधनों का अधिकाधिक उपभोग करते हैं। मुझे नहीं लगता कि पिछले सौ साल में गांधी जी के अलावा हमारे यहाँ कोई महापुरुष जन्मा है? " फिर उसने कुछ देर सोचते के बाद मेरे से सवाल किया, "क्या मैं गलत हूँ?" और मैं बिना जवाब दिए लौट आया हूँ।

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