नज़रिया

01-07-2021

नज़रिया

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

चकोर जी से मेरा परिचय पिछले पचास सालों से है। उनसे मेरी मुलाक़ात सन् 1969 में हुई थी। उस वक़्त चकोर जी की उम्र तीस वर्ष थी और मेरी बाईस वर्ष। चकोर हमारे कॉलेज में बतौर लिपिक नियुक्त हुए थे। 

संयोग कुछ ऐसा बना कि बाद में चकोर जी ने भी उसी कॉलोनी में अपना आशियाना बना लिया जहाँ हम रहते थे। ख़ैर, चकोर जी और मैं कुछ वर्षों बाद उम्र में अंतर होने के बावजूद एक दूसरे के मित्र बन गए। चकोर जी सन् 1999 में सेवानिवृत्त हुए और मैं सन् 2007 में। 

उन्नीस जून की सुबह भ्रमण के दौरान चकोर जी मिले तो मैंने उन्हें जाने-माने धावक मिल्खा सिंह जी के निधन की सूचना दी। वे तपाक से बोले, “उनकी उम्र हो गई थी; इक्यानवे साल के हो चले थे।”

इतना बोलकर वे तो चुप हो गए लेकिन मुझे याद आया कि जब चकोर जी साठ साल के थे तो वे सत्तर वर्ष में किसी के निधन पर ऐसा ही कुछ कहते थे। बाद में जब वे स्वयं सत्तर साल के हुए तो उन्हें अस्सी साल वाले बूढ़े लगने लगे। अब वे स्वयं अस्सी पर पहुँच गए हैं तो उन्हें नब्बे वर्ष की जिं।ज़िंदगी काफ़ी लगती है। आजकल अस्सी साल वाले तो उन्हें युवा नज़र आते हैं।  

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