प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 03

अब वह शहर पहुँच चुका है लेकिन उसका मन बिल्कुल ही नहीं लग रहा। उसे तो अपने उस जीवन की ही याद आ रही थी जहाँ प्राकृतिक और आध्यात्मिक माहौल था। पक्षियों का कलरव, गाय के बछड़े का उछल कूद, उस घर के आँगन में लगे बरगद के पेड़ की ठण्डी और शीतल छाँव सब कुछ तो छोड़ आया था वह अपने उस गाँव में। गाँव की उन घुमावदार और सुगंधित मिट्टी से बनी पगडंडियों की जगह शहर की इन पथरीली और चौड़ी सड़कों में वह आनंद कहाँ? ऐसा वह विचार करके दुखी होने लगा। 

अब उसका दाख़िला स्नातक में शहर के प्रसिद्ध महाविद्यालय में करा दिया। पहले तो उसका पढ़ने-लिखने में मन कम लगा पर वक़्त के साथ वह वहाँ के माहौल में घुल मिल गया और पढ़ाई में भी मन लग गया। अब उसके दोस्त भी बनने लगे। दोस्त कम ही थे पर जितने भी थे सब दिल के बहुत ही अच्छे थे। 

उन्हीं में से एक दोस्त रीता भी थी। गेहुँआ रंग, दुबला पतला शरीर, बातूनी इतनी कि बोलने लग जाये तो चुप ही न हो। स्नेहू का बहुत ही ध्यान रखती थी। जब मन नहीं लगता था तो दोनों ख़ाली जगह पर बैठ जाते और प्रकृति, ईश्वर, आत्मा इत्यादि दार्शनिक विषयों पर घण्टों तक चर्चा करते रहते। ये सब और दोस्तों को सहन नहीं हुआ और उन्होंने उन दोनों का साथ छोड़ दिया। स्नेहू को बड़ा ही दुख हुआ और सोचने लगा कि उसको शायद ही कोई इस दुनिया में कभी समझ पायेगा। गाँव में भी उसका कोई दोस्त नहीं और अब शहर में भी जो दोस्त बने वे भी छोड़ गए। 
वह समझ नहीं पा रहा था कि दोस्त उसे इस तरह क्यों छोड़ गए तब रीता ने समझाया कि हम दोनों का इस तरह से घण्टों बात करना उन्हें नहीं भाया। 

“पर हम तो सही बात करते थे उनकी कभी चुग़ली भी नहीं खाई, फिर क्यों छोड़ गए?” स्नेहू ने चिंतित होते हुए कहा। 

”अरे बुद्धू! वो समझते हैं कि हमारे बीच कुछ है,” रीता ने उत्सुकता से कहा। 

“कुछ क्या?” घबड़ाए से स्नेहू ने पूछा।

“कुछ का मतलब 'प्रेम' बुद्धू,” रीता ने शरारती नज़रों से घूर कर कहा। 

“मतलब!” स्नेहू ने प्रश्न भरी नज़रों से पूछा।

“'मतलब' का मतलब साफ़ है कि मुझे तो तुमसे प्रेम है। अब तुम्हारी तुम जानो। 

”मैंने राकेश से स्पष्ट कह दिया था कि हमारे बीच 'कुछ' है। तभी शायद वे हमसे अलग हो गए होंगे,” रीता ने इठलाते हुए कहा। 

”इसका मतलब तू ही है जिसने मेरे दोस्त छीन लिए। मैं तुझे अच्छा दोस्त समझता था। आज से हमारी दोस्ती ख़त्म। 

”मेरा प्रेम सिर्फ़ ईश्वर के लिए है और हमेशा उसी के लिए रहेगा,” कहते-कहते स्नेहू रीता के पास से चला गया। 

लेकिन उस रात उसे नींद नहीं आयी। वह उन दोस्तों के बारे में ही सोचता रहा। वह हीन भावना से भर गया। फिर उसे अचानक से लगा कि उसने एक मात्र शेष रही रीता को भी खो दिया। कम-से-कम ले देकर एक यही दोस्त बची थी उसे भी आज छोड़ आया। यही सोचते सोचते उसे नींद आ गयी। 

अगले दिन वह कॉलेज पहुँचा। उस दिन रीता नहीं आयी। उसका अब मन व्याकुल होने लगा। उसे आज पता चल रहा था कि वह भी उसे कहीं न कहीं चाहता है। 

वह सोचने लगा कि आज कहाँ गया ईश्वरीय प्रेम? 

कहाँ गयी आध्यात्मिकता? 

उसने अपने आपको सम्भाला और अपने को धिक्कारने लगा। मुझे किसी से प्रेम नहीं करना। मैं उसका दोस्त हूँ। इसी बात का दुःख है। लेकिन मैं प्रेम नहीं करता। परन्तु वास्तविकता में उसे भी कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। यही प्रेम था पर वह समझ नहीं पा रहा था। न ही उसका दिमाग़ स्वीकार कर पा रहा था। 

कुछ दिनों के बाद रीता और स्नेहू अचानक से कॉलेज में मिले। मिलते ही रीता उसे देख कर ख़ुश हो गयी। स्नेहू देखता रहा कि मैं सोच रहा था कि ये नाराज़ होगी पर इसे तो मुझसे कोई नाराज़गी ही नहीं है। स्नेहू को थोड़ा सा सुकून मिला। ये सब देख वह मन ही मन बहुत ख़ुश हुआ। फिर उनका वार्तालाप शूरू हुआ। 

स्नेहू ने सकुचाते हुए पूछा, “हाय, रीता कैसी हो?” 

रीता की आँखें चमक उठीं, वह बोली, “ठीक हूँ। आप बताओ, कैसे हो आप?”

स्नेहू ने माफ़ी माँगते हुए कहा, “मुझे माफ़ कर दो उस दिन की हरकत के लिए। ग़ुस्से में मुझे तुम्हें यूँ अकेला छोड़कर नहीं आना चाहिए था।”

रीता ने कहा, “कोई बात नहीं। मुझे तो बुरा नहीं लगा। तुम हमारे प्रेम को समझ नहीं पाए। हमारा प्रेम भी अध्यात्म से ओतप्रोत है। तुम्हें मुझसे बेहतर इस दुनिया में कोई नहीं समझ सकता और ना ही कोई कभी समझ पाएगा। मैं तुम्हारी हमेशा हमेशा के लिए बन जाना चाहती हूँ, “रीता रुकी, फिर उसने आशान्वित आँखों से घूरते हुए पूछा, “तुम मुझे अपना बनाओगे ना।”

स्नेहू ने हामी भरी, “हम्म! बनाऊँगा ज़रूर। पर तुम मेरा साथ दोगी ना उम्र भर।” 

रीता बोली, “हाँ ज़रूर दूँगी। अब तो ख़ुश।” 

“हाँ! बहुत बहुत ख़ुश! मेरा मन का सारा मैल धुल गया। मैं पश्चाताप की आग में धधक रहा था। तुमसे बातें करने से इस आग पर ठंडा पानी पड़ गया। अब मेरा मन हल्का हो गया।”

दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट गए। घर पहुँचने पर उसके बड़े भाई को उसके हाव-भाव कुछ कुछ अजीब से दिखे। उसने स्नेहू से पूछा तो उस ने कोई जवाब नहीं दिया और भाई से झुँझलाने लगा। भाई को उसका व्यवहार कुछ अजीब लग रहा था। तब अगले दिन उसका भाई उसके पीछे-पीछे गया तो उसे सब मालूम हो गया और उसने स्नेहू के बारे में पिता को सब बता दिया। पिता को ख़ुशी हुई कि अब इसका वैराग्य से मोहभंग हो जाएगा। 

उधर रीता ने स्वभाव से चंचल होने के कारण सब बात अपनी माँ को बता दी। माँ ने उसके पिता को ये सब बता दिया। पिता थोड़े आधुनिक ख़्यालों के थे। इसलिए उन्हें ज़्यादा एतराज़ नहीं हुआ। रीता के पिता स्नेहू के पिता के बारे में जानकारी प्राप्त कर रिश्ता लेकर स्नेहू के पिता के घर पहुँच गए। स्नेहू के पिता ने ख़ुशी ख़ुशी इस रिश्ते को मंजूरी दे दी। 

<< पीछे : अध्याय: 02 आगे : अध्याय: 04 >>

लेखक की कृतियाँ

कविता
लघुकथा
कहानी
सामाजिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में