प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 14

तीनों ही पेड़ से बँधे बेहोशी की हालत में बारिश में भीग रहे थे। कोई भी इस जहान में ऐसा नहीं था जो उन्हें होश में ला सके, सँभाल सके। लेकिन प्रकृति की नज़र में तो सब बराबर हैं। वह सभी पर बराबर नेह बरसाती है। आज वह नेह नहीं बारिश के रूप में अमृत बरसा रही थी। इतनी मार खाने के बाद जब वे अपनी मृत्यु की बाट जोह रहे थे तभी यह बारिश उनके लिए संजीवनी साबित हुई। सबसे पहले उस महिला को होश आया तभी उसने देखा कि एक अनजान कोढ़ी व्यक्ति उन सबको बारी बारी से होश में लाने का प्रयास कर रहा था। उसके कोढ़ इतना बह रहा है कि किसी को भी उसे देख कर पुनः मूर्छा आ जाये। 

ऐसा हुआ भी, उस कोढ़ी को देख उस महिला को पुनः मूर्छा आ गयी। उस व्यक्ति ने बारी बारी से तीनों को बंधन से मुक्त कर दिया। इसके बाद उन तीनों को उसने ज़मीन पर लिटा दिया। महिला को थोड़ी देर के लिए जो मूर्छा आयी थी वह अब ख़त्म हो चुकी थी। थोड़ी देर बाद उस ठाकुर के बेटे को भी होश आ गया। कोढ़ी को अपनी निःस्वार्थ सेवा करते देख वह अचंभित हुआ और सोचने लगा कि अपने तो मारने के लिए आतुर हैं और ग़ैर जिनसे अपनी कोई पहचान नहीं है वह बेचारा उनकी सेवा कर रहा है। 

स्नेहमल को अभी होश नहीं आ रहा था। उसकी नब्ज बहुत धीमी चल रही थी। अब हकीम की ज़रूरत थी। लेकिन हकीम आए कहाँ से? सब इसी सोच में डूबे हुए थे और चिंतित हो रहे थे। उस ठाकुर के बेटे ने अपने एक नौकर को गाँव के हकीम से कहा लेकिन गाँव के हकीम ने किसी भी प्रकार के लफड़े में पड़ने से साफ़ इन्कार कर दिया। हकीम जानता था कि अगर वह इस लफड़े में पड़ जाएगा तो वह ख़ामख़ाह ठाकुर से दुश्मनी मोल ले लेगा। स्नेहमल की हालत बद से बदतर हो चली थी। तभी अचानक उन लोगों ने देखा कि जब सभी लोग हकीम की तलाश में व्यग्र हो रहे थे तब तक वह कोढ़ी व्यक्ति अपने झोले में से कुछ जड़ी बूटी निकाल कर उसका इलाज कर कर चुका था। अब इलाज हो जाने से स्नेहमल की नब्ज ठीक चलने लगी और उसको धीरे धीरे होश भी आने लगा। इस तरह से उस कोढ़ी की मेहरबानी से वह ठीक हो गया और जब तक पूरी तरह से होश आता तब तक वह कोढ़ी वहाँ से जा चुका था। सभी ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वह नहीं रुका। 

स्नेहमल शाम होते होते पूरे होश में आ गया था। वह महिला बहुत दुखी हो रही थी और इस सब घटना के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार मानते हुए हीन भावना से ग्रसित होने लगी। 

तब स्नेहमल ने उसको धीरज बँधाते हुए समझाया, “होनी अटल और अवश्यंभावी होती है, बेटी! लेकिन तू चिंता न कर विजय हमेशा निर्मल मन वालों का ही वरण करती है। अब मैं ख़ुद ठाकुर के पास जाऊँगा और उसे प्रेम से समझाऊँगा। उसके अंदर लोक भय, मिथ्याभिमान और क्रोध व्याप्त है जिसे हर हालत में मुझे निकालने का प्रयास करना होगा। इन दुर्गुणों के निकलते ही इस ठाकुर का मन दर्पण की तरह साफ़ और चमकदार हो जाएगा और फिर वह तुम दोनों की शादी ख़ुशी-ख़ुशी करने के लिए राज़ी हो जाएगा।”

पुरुष ने चिंता व्यक्त की, “मेरे पिताजी कभी नहीं मानेंगे। मुझे नहीं लगता कि हम दोनों का कभी मिलन भी हो पाएगा।”

स्नेहमल ने ढाढ़स बँधाया, “चिंता न कर बेटा। मन अगर सच्चाई और प्रेम से भरा हो तो परिणाम अनुकूल ही आते हैं। सच्चाई की राह में कठिनाई और मुश्किलें ज़रूर आती है लेकिन आख़िर मंज़िल मिलती ही है।” 

महिला ने कहा, “अपने साथ किसी गाँव वाले को ले जाना, बाबा। अकेले मत जाना। मुझे डर लग रहा है। कल ही जाना अब शाम भी हो चली है।” 

स्नेहमल ने उत्तर दिया, “कल ही जाऊँगा, बेटी! तू चिंता न कर वैसे भी मैं आज कहीं भी जाने की हालत में नहीं हूँ लेकिन जब भी जाऊँगा अकेला ही जाऊँगा। तुमने देखा नहीं जब ठाकुर हम पर अत्याचार कर रहा था तब यही गाँव वाले अपनी तीखी मुस्कराहट बिखेर रहे थे। वैसे भी सच्चाई की राह काँटों से भरी होती है उस पर अकेला ही चलना पड़ता है।” 

पुरुष बोला, “तुम्हें कल मैं अकेले नहीं जाने दूँगा मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।” 

स्नेहमल ने उसे टोका, “नहीं, बेटा! यह ठीक नहीं होगा। इस समय ठाकुर ग़ुस्से में है। ग़ुस्से में आदमी का विवेक काम नहीं करता है। अतः तुम दोनों का इस समय उसके सामने पड़ना ठीक नहीं रहेगा।” 

महिला ने पुरुष को समझाया, “बाबा सही कह रहे हैं। हम दोनों में से किसी का भी ठाकुर के सामने जाना हमारी मूर्खता होगी।” फिर पलट कर बाबा से कहा, “लेकिन बाबा मैं तुम्हें अकेला नहीं जाने दूँगी। अपने साथ इनके नौकरों में से किसी को साथ ले जाना।” 

पुरुष को महिला की बात सही लगी, “हाँ, बाबा! यह सही कह रही है। मैं अपने वफ़ादार नौकरों में से किसी को तुम्हारे साथ भेज दूँगा।” 

स्नेहमल ने फिर विरोध किया, “किसी को साथ भेजना उचित नहीं होगा। वह ठाकुर इस बात को विपरीत भी ले सकता है। किसी का मन प्रेम से ही जीता जा सकता है और किसी भी तरीक़े से नहीं।” 

पुरुष ने सफ़ाई दी, “मैं लड़ाई की बात नहीं कर रहा। मैं आपकी सुरक्षा की बात कर रहा हूँ। ठीक है तो फिर मैं एक काम करता हूँ। मैं अपने चार नौकरों को चुपके से तुम्हारी रखवाली पर रख दूँगा। वे तुम्हारे साथ अप्रत्यक्ष रूप से अंगरक्षक की तरह रहेंगे।” 

स्नेहमल को लगा कि यह दोनों नहीं मानेंगे, “लगता है तुम दोनों नहीं मानोगे। ठीक है जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। लेकिन एक बात अपने नौकरों से कह देना अतिआवश्यक होने पर ही सामने आयें। प्रेम से सब हल निकल आएगा। यह मेरा विश्वास है। कहीं ऐसा न हो कि ठाकुर के ग़ुस्से को देख ये लोग छ्द्म वेश में से बाहर निकल आयें और उस पर हमला कर दें। ऐसा हुआ तो सब किए-कराए पर पानी पड़ सकता है। इस जगह सावधानी, विवेक और प्रेम से काम लेना होगा।” 

पुरुष मान गया, “ठीक है, बाबा! आप कहेंगे वैसा ही होगा। वे अतिआवश्यक होने पर ही सामने आएँगे।” 
इतना वार्तालाप हो जाने के बाद वह पुरुष अपने नौकरों के साथ उनके घर चला गया और उन दोनों के लिए उस ठाकुर के बेटे के नौकरों ने रात के खाने की व्यवस्था कर दी। खाना खाकर स्नेहमल बाहर की तरफ़ सोने आ गया और वह महिला अंदर खाने के बर्तन साफ़ करने लग गयी। अपने रात के कामों को समाप्त कर सो वह भी सो गई।

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