प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय; 15

सुबह होते ही स्नेहमल अपने नित्य कर्मों से फ़ारिग़ हो गए। थोड़ी देर बाद वह घर से ठाकुर से मिलने निकल गए। साथ में उस ठाकुर के बेटे के वफ़ादार नौकर वेश बदलकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। उन सब ने साधुओं का वेश धारण कर लिया था ताकि कोई उन्हें पहचान ना सके। उन लोगों ने हथियार भी छुपा रखे थे। 
स्नेहमल और उसके पीछे-पीछे चल रहे तथाकथित साधुओं को ठाकुर की हवेली के द्वार पर ठाकुर के पहरेदारों के द्वारा रोक दिया गया। उन पहरेदारों ने उन्हें संन्यासी समझते हुए अपनी औपचारिकता को पूरा कर उन्हें अंदर जाने दिया। अंदर पहुँचते ही ठाकुर ने उनका स्वागत सत्कार किया। उन्हें ससम्मान बिठाया और जलपान कराया।

थोड़ी देर बाद उनसे भोजन का आग्रह किया गया। लेकिन ठाकुर के लाख ज़िद करने के बावजूद स्नेहमल भोजन को यह कहते हुए मना कर दिया कि हम भोजन करके आये हैं। आवभगत की समस्त औपचारिकताओं के समाप्त हो जाने के बाद ठाकुर और स्नेहमल के मध्य वार्तालाप प्रारंभ हुआ।

ठाकुर ने स्नेहमल को प्रणाम करते हुए कहा, “अहोभाग्य हमारे जो आप हमारे द्वार पधारे।” 

स्नेहमल ने भी अभिवादन का उत्तर देते हुए कहा, “प्रणाम प्रिय!” 

ठाकुर ने पूछा, “कहाँ से आये हैं, बाबा! मेरे लायक़ कोई सेवा हो तो बताओ।” 

स्नेहमल मुस्कुराए, “संन्यासी का कोई घर नहीं होता। हम तो रमते जोगी हैं और रही बात सेवा की तो एक पुनीत कार्य है जो तुम्हारे बिना पूर्ण नहीं हो सकता। क्या तुम इस पुनीत कार्य में मेरा साथ दे सकते हो? डगर कठिन ज़रूर है लेकिन बाद में तुम्हें शान्ति और आत्म सन्तुष्टि महसूस होगी। इस पुनीत कार्य में सभी का कल्याण निहित है। विशेषकर इस पुनीत कार्य से तुम्हारे पिछले पाप धुल जायेंगे।” 

ठाकुर क्रोध से बोला, “मतलब क्या है तुम्हरा? तुम हो कौन सही वेश में आओ।” 

स्नेहमल शान्त रहे, बोले, “सही वेश में ही हूँ। मैंने कोई पर्दा नहीं डाल रखा पर्दा तो तुमने डाल रखा है मिथ्याभिमान का, क्रोध का और लालच का जिसमें तूमने अपनी बेटी जैसी महिला को पाप की भट्टी में झोंक दिया। भगवान तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। अपने निर्दोष बेटे को परेशान किया। अरे, प्रेम तो भगवान का अनुपम उपहार है उसमें टाँग अड़ाना किसी के बस की बात न थी, न है और न रहेगी। 

“एक बात और ध्यान से सुनो! अपने आस पास के लोगों पर अतिविश्वास करना भी मूर्खता होती है। हो सकता है वे लोग मिलकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हों। ख़ून का रिश्ता सब रिश्तों पर भारी होता है। पर तुम्हारी मुझे चिंता हो रही है। कहीं तुम्हारा ये मतिभ्रम तुम्हें एक दिन सर्वनाश के द्वार पर न लाकर खड़ा कर दे।” 

यह सुनकर सभी चमचे स्नेहमल की ओर घूरते हुए देखने लगे और आपस में बड़बड़ाने लगे। 

स्नेहमल ने बात आगे बढ़ाई, “मैं तुमसे यहाँ विनती करने आया हूँ कि जिस महिला का तुमने माँ-बाप, बचपन सब कुछ छीन लिया। तुमने बचपन में तो उसको पाल-पोस कर बड़ा कर दिया लेकिन जैसे ही वह जवान हुई तो तुमने अपने चमचों की सीख में आकर उस महिला को मुजरा और नाच गाना करने वाली बना कर छोड़ दिया। इसके अलावा जब से तुम्हें इस बात का पता चला है कि वह और तुम्हारा बेटा दोनों प्रेम करते हैं तब तुम्हें रही-सही मिर्ची और लग गयी। अब तुमने उस महिला को कोठे पर बिठाने की धमकी दे दी है। ठाकुर! अब भी समय है कि इन चमचों का साथ छोड़ दे तथा अपने किए हुए पाप कर्मों का पश्चाताप कर ले और उन दोनों को ख़ुशी ख़ुशी अपना ले।” 

इतना सुनते ही उस ठाकुर के चमचों का मुँह और भी ज़्यादा कसैला हो गया। उन्होंने ठाकुर से कुछ कानाफूसी की और कानाफूसी सुनते ही वह तैश में आ गया।

ठाकुर चिल्लाया, “अच्छा तो तू वही बुड्ढा है जो कल उन दोनों का साथ दे रहा था। लगता है कल की हजामत में कुछ कमी रह गयी इसीलिए यहाँ वेश बदलकर अपने भाड़े के टट्टुओं को लेकर यहाँ मुझे धमकी देने आया है। शायद अपनी हजामत फिर से करवाना चाहता है, कायर!” 

स्नेहमल विचलित नहीं हुए, “ठाकुर! कायर मैं नहीं, तू है जो चमचों के बहकावे में आकर अपने पाप कर्मों को अंजाम दे रहा है। लेकिन एक दिन इसका परिणाम तुझे भुगतना पड़ेगा। अब भी समय है ठाकुर! सँभल जा।” 

जैसे ही ठाकुर के चमचों ने स्नेहमल को घेरना चाहा तभी छुपे वेश में बैठे हुए उन साधुओं ने अपने अपने हथियार निकाल लिए। इस तरह ठाकुर के चमचों और स्नेहमलके साथ आये तथाकथित साधुओं के वेश में ठाकुर के बेटे के वफ़ादार नोकरों के बीच लड़ाई शुरू हो गयी। ठाकुर के यहाँ दोनों ही पक्ष के लोगों में घमासान हुआ और दोनों ही पक्ष के लोग चोटिल हुए। अंत में ठाकुर के चमचे स्नेहमल के साथ आए हुए उन लोगों पर भारी पड़े। ठाकुर के चमचों ने स्नेहमल को बंदी बना लिया। स्नेहमल के साथ आए उन तथाकथित साधुओं में से एक चुपके से वहाँ से भाग छूटा और ठाकुर के बेटे के पास पहुँचकर उसको स्नेहमल के बंदी बनाये जाने की ख़बर सुना दी। 

इतना सुनते ही ठाकुर का बेटा और वह महिला उस नौकर के साथ ठाकुर की हवेली की ओर चल दिए। जैसे ही वे लोग ठाकुर की हवेली पर पहुँचे तो उन्हें तुरंत बंदी बना लिया गया और स्नेहमल के पास ही उन दोनों को ले जा कर पटक दिया गया। 

स्नेहमल उन दोनों को अपने पास देखकर अचंभित और दुखी हो गया। 

स्नेहमल ने पूछा, “तुम दोनों मौत के मुँह में क्यों आये? मुझ पर भरोसा नहीं है तुम्हें? तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था। तुमने मेरे करे कराये पर पानी फेर दिया। मैं इसको किसी न किसी तरह मना लेता। 

“यह ठाकुर बहुत निर्दयी है यह अब तुम दोनों को नहीं छोड़ेगा।” 

ठाकुर का बेटा बोला, “नहीं, बाबा! हमें वह ख़ुशी नहीं चाहिए जो तुम्हारी जान की क़ीमत चुका कर मिले। हम मर जायेंगे पर तुम्हारी जान इन अत्याचारियों को नहीं लेने देंगे।” 

महिला ने भी कहा, “नहीं, बाबा! एक दिन तुमने मुझे बेटी कहा था। इस तरह तुम मेरे पिता हुए। अपने पिता को तो मैंने देखा नहीं है। अब मैं अपने इस पिता को नहीं खोना चाहती।” 

इन दोनों का अपने प्रति इतना प्रेम देखकर उसकी आँखों से आँसू छलक गए। 

इतने में ठाकुर ने अपने लोगों को आदेश दे दिया कि इन लोगों को इतना मारो की ये लोग प्रेम शब्द को हमेशा हमेशा के लिए भूल जाएँ। इस तरह उन तीनों पर पटों की बरसात होने लगी। इतना ही नहीं इसके बाद ठाकुर ने इन तीनों का मुँह काला करवा के गधों पर बिठा के इनका जुलूस निकलवाया। पूरा गाँव इन लोगों का तमाशा देखने लगा। 

जब यह ख़बर पास ही के शहर में रह रहे उसके बेटी, बेटे के पास पहुँची तो उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ और अपने पिता के प्रति उनके मन में घृणा हो गयी। अब वे दोनों किसी को अपने पिता का नाम तक बताने में कतराने लगे। अपने पिता की पिटाई की ख़बर सुनने के बाद भी उनका दिल नहीं पसीजा। अब उन लोगों ने अपने पिता से कभी न मिलने की ठान ली। वे लोग यहाँ तक सोचने लगे कि हमारे पिता सठिया गए हैं जो एक मुजरा करने वाली का साथ दे रहे हैं। ठाकुर के यहाँ इस घटना के हो जाने के बाद जब अपने बच्चों की अपने प्रति उदासीन और दुखी कर देने वाली प्रतिक्रिया उसके कानों तक पहुँची तो स्नेहमल बहुत दुखी हुआ। 

कुछ दिन बाद एक रात ठाकुर अपने कक्ष में इधर-उधर टहल रहा था। अचानक उसे बाहर से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। आवाज़ें जानी पहचानी थीं। आवाज़ें उसके ख़ुद के चमचों की थीं। वे आपस में बातें करते हुए जा रहे थे कि ठाकुर तो बेवक़ूफ़ है उसे हम कैसे भी बहका देंगे। बस किसी भी तरह से इसके बेटे को मौत के घाट उतार देते हैं। हमने उस महिला को तो मुजरे वाली बनाकर उसको इस हवेली से निकलवा फेंका है। वैसे भी इस एक मात्र बेटे के अलावा उसका कोई नहीं है। एक बार इसका बेटा जो हमारे लिए काँटा बना हुआ है, उखड़ जाए फिर सब मंगल ही मंगल है। यह हवेली और यहाँ की सारी सम्पत्ति पर हमारा क़ब्ज़ा हो जाएगा। अबकी बार अगर यह ठाकुर हमें इन्हें पीटने का आदेश दे तो इसके बेटे को तब तक पीटते रहना है जब तक वह मर न जाए। इस तरह किसी को शक भी नहीं होगा और हमारा सबसे बड़ा काँटा सहज में ही निकल जाएगा। अब इस काँटे को शीघ्रताशीघ्र निकाल फेंकना है। फिर इस मुजरे वाली को ठाकुर पर आदेश दिलवाकर कोठे पहुँचा देंगे। अंत में ठाकुर को तो आसानी से शराब में कुछ मिलाकर मार ही डालेंगे। इस तरह ठाकुर की सारी ठाकुराइश पर हमारा ही राज हो जाएगा। 

उन चमचों को यह मालूम न था कि ठाकुर अपने कक्ष में ही है। वे तो यह समझ रहे थे कि वह बाहर बग़ीचे में टहलने चला गया होगा क्योंकि भोजन करने के पश्चात वह हमेशा बग़ीचे में ही टहलने चला जाता है। तभी तो वे लोग धीमी-धीमी आवाज़ में ठाकुर के विरुद्ध योजना बनाते हुए अपने अपने कक्षों की ओर सोने जा रहे थे। रास्ते में ही ठाकुर का कक्ष आता था। इस तरह ठाकुर को अपने चमचों के असली चेहरे का पता चल गया। वह तो अब तक उन्हें वफ़ादार समझता आया था। उनके ही कहने पर वह इतना बड़ा अनर्थ करने जा रहा था। 
ठाकुर को अपनी करनी पर बड़ा पछतावा हो रहा था। वह सोचने लगा कि वह अपने ही हाथों से अपने बेटे का गला घोंटना चाह रहा था। लोक लाज के डर से वह अपने बेटे की ख़ुशी छीनना चाह रहा था। मैंने उस लड़की को बहुत ही दुख दिया है। वह मेरे घर में ही पली बढ़ी है। जब तक ठकुराइन जीवित थी तब तक उसे थोड़ा बहुत लाड़-प्यार मिला था लेकिन उसके जाते ही मैं अपने इन चमचों के बहकावे में आ गया और उस लड़की को मैंने बहुत कष्ट दिए हैं। मैं अपने पाप का प्रायश्चित कैसे कर पाउँगा? 

थोड़ी देर सिर को पकड़े रहने के बाद उसके मन में विचार आया बाबा ने मुझे बताया था कि अब भी समय है जब मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता हूँ। मुझे अपने बेटे और उस लड़की का मिलन करवाना है। लोक लाज का मुझे अब कोई भय नहीं है। उस बाबा के ये दोनों कौन लगते हैं? कुछ भी तो नहीं। फिर भी यह बाबा इन लोगों का मिलन करवाने का निस्वार्थ प्रयास कर रहा है। मैंने इस बाबा को भी बहुत दुख पहुँचाया है। अब मुझे बाबा से भी माफ़ी माँगनी चाहिए। पर मैं उनके पास किस मुँह को लेके माफ़ी माँगने जाऊँ? वे मुझे माफ़ करेंगे भी या नहीं? इस तरह उसके मन में पूरी रात नाना प्रकार के प्रश्न कौंधते रहे। 

भोर होते ही चुपके से ठाकुर उन तीनों को बंधन मुक्त करने के लिए उनके पास पहुँच गया। वहाँ पहुँच कर सबसे पहले वह बाबा के पैरों में गिर पड़ा और माफ़ी माँगने लगा। बाबा ने कहा, “अगर माफ़ी ही माँगनी है ठाकुर! तो इस महिला से माँग जिसे तूने बहुत सताया है। मेरे मन में तो तेरे लिए कोई शिकवा नहीं है।” ठाकुर महिला से माफ़ी माँगने को तैयार हो गया। वह उसके पैरों में गिरना चाहता था है लेकिन तब तक वह महिला उस ठाकुर के पैरों को छूने के लिए झुक गई। तभी उस ठाकुर की आँखों से आँसू निकल पड़े और ख़ुशी से उस महिला को अपने गले लगा लिया। 

इस तरह ठाकुर ने ख़ुशी-ख़ुशी अपने बेटे और उस महिला का विवाह करवा दिया। ठाकुर ने अपने चमचों को अपने वफ़ादार नोकरों के द्वारा बंदी बना लिया। जनता ने कुछ दिनों तो इस बात का विरोध किया लेकिन बाद में सब कुछ शांत हो गया। इस तरह इस विवाह को जनता की मूक सहमति मिल गयी। कुछ दिन ठाकुर के यहाँ ठहरने के बाद अनुकूल समय देख बाबा स्नेहमल अब अपने रोज़मर्रा के सामान को समेट आगे की राह पर निकलने के लिए तैयार हो गए। जैसे ही ठाकुर, ठाकुर के बेटे और उस महिला को पता चला कि बाबा हवेली छोड़ कर जा रहे हैं तो वे सब दुखी हो गए। उन्होंने बाबा से बहुत मना किया। लेकिन यह भजन गुनगुनाते हुए बाबा अपने आगे के सफ़र पर निकल पड़ा:

मन लागो मेरो यार फ़क़ीरी में। 
जो सुख पावो राम भजन में, 
सो सुख नाही अमीरी में॥

भला बुरा सब का सुन लीजै, 
कर गुजरान ग़रीबी में॥

प्रेम नगर में रहिनी हमारी, 
भली बन आई सबुरी में॥

हाथ में खूंडी, बग़ल में सोटा, 
चारों दिशा जागीरी में॥

आख़िर यह तन ख़ाक मिलेगा, 
कहाँ फिरत मगरूरी में॥

कहत कबीर सुनो भाई साधो, 
साहिब मिले सबुरी में॥

वे तीनों हाथ जोड़े खड़े की खड़े रह गए। उन तीनों की आँखों में आँसू थे पर ये उन तीनों में से किसी को भी महसूस नहीं हो रहा था कि ये आँसू बाबा के चले जाने के ग़म में थे या फिर बाबा के द्वारा उन सबका मिलन करवा दिए जाने की ख़ुशी में थे। 

<< पीछे : अध्याय: 14 आगे : अध्याय: 16 >>

लेखक की कृतियाँ

कविता
लघुकथा
कहानी
सामाजिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में