प्रेम का पुरोधा (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )
अध्याय: 01रेत का समंदर चारों ओर फैला हुआ है। रात में चाँदनी ऐसी लगती है मानो रेत पर दूध उड़ेल दिया हो। पूर्णिमा का चाँद ऐसा नज़र आता है मानो साक्षात् राम के सिर के पीछे धवल ज्योति पुंज देदीप्यमान हो रहा हो। चारों ओर निर्जन ही निर्जन नज़र आ रहा है। मध्य रात्रि होने को है। एक अधेड़ आदमी चला जा रहा है। वह आदमी एक धवल चोगे में लिपटा हुआ है जो सर से पैरों तक तन को ढँके हुए है। दायें हाथ में लाठी तथा बायें काँधे पर झोला लटका हुआ है जिसमें उसकी रोज़मर्रा का सामान रखा है। चाँद उसके पीछे ज्योतिपुंज की तरह नज़र आता है और रेत के टीले पर चलता हुआ यह आदमी कोई दिव्यआत्मा प्रतीत होता है। उस अधेड़ के चेहरे पर थोड़ी उम्र की झुर्रियाँ ज़रूर हैं पर चेहरे का तेज धवल चाँद के पुंज की ही तरह शांत किन्तु कांतिमय है।
इस अधेड़ का अंतर्मन शीशे की तरह बिल्कुल साफ़ है। जैसा अंदर वैसा ही बाहर। लेकिन फिर भी दुनिया ने इसको दुःख ही दिया है। कोई भी व्यक्ति इसको ढंग से आज तक नहीं समझ पाया और न ही किसी ने इसे समझने की कोशिश की। सभी ने इसकी मासूमियत का मज़ाक ही उड़ाया है। आज भी तो ऐसा ही हुआ है पास के गाँव वालों से ही तंग आकर तो मध्यरात्रि को कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ने निकल पड़ा है। किसी ने भी एक रात्रि तक का सब्र नहीं किया। इसे भगा कर ही चैन लिया। इसका क़ुसूर बस इतना था कि जिस मंदिर में यह रह रहा था उस मंदिर के पुजारी की करतूत को इसने गाँव वालों को बता दिया। गाँव वालों ने उस बात को अपनी नाक बना लिया और पुजारी को दंडित करने के बजाय इसे ही गाँव से बाहर निकाल दिया।
बात बस इतनी थी कि पुजारी वैसे तो हरिजन को मंदिर चढ़ने नहीं देता है। शाम के अँधेरे में कल वह चुपके से कुछ चढ़ावा चढ़ा गया था। पुजारी वहाँ था नहीं। यह आदमी मंदिर में ही ठहरा हुआ था। इस आदमी ने उसका चढ़ावा रख लिया और मारे भूख के कुछ हिस्सा इस चढ़ावे में से खा लिया। हरिजन जब मंदिर से निकल रहा था तो इतने में ही पुजारी वहाँ आ पहुँचा और उसने आज के चढ़ावे का उस आदमी से हिसाब लिया। उस आदमी ने अपने भोलेपन से हरिजन की तरफ़ इशारा कर दिया। अभी तक सिर्फ़ कुछ ही चढ़ावा आ पाया था। उस आदमी ने बिना किसी छुआ-छूत के उस हरिजन का चढ़ावा मंदिर में रख लिया था। इस बात को जानकर पहले तो वह पुजारी थोड़ा परेशान दिखा। बाद में इधर-उधर निगाह डाल कर देखा। जब कोई आता नहीं दिखाई दिया तो पैसे और कपड़े पुजारी ने चुपके से रख लिए। लेकिन खाने में आए फलों में से कुछ को वह आदमी खा चुका था। पुजारी ने सामान चुप-चाप रख लिया और सब के सामने उसे मारने लगा। कहने लगा कि तूने हरिजन को मंदिर क्यों चढ़ने दिया और उसका चढ़ावा क्यों रख लिया? उस आदमी ने फलों को खाने की बात कही और शेष पुजारी को दे देने की बात कही। लेकिन किसी ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वहाँ पर इकट्ठे सभी लोग पुजारी का ही पक्ष लेने लगे।
दो ही दिन तो हुए थे अधेड़ को इस गाँव में आए। लेकिन पुजारी को तो वह आँख का काँटा नज़र आने लगा था। उसे डर था कहीं यह आदमी इस मंदिर में ही न जम जाए। अगर यह आदमी यहीं जम गया तो उसका सारा धंधा चौपट हो जाएगा। किसी भी तरह से वह इसे इस गाँव से निकालकर भगाना चाहता था। आज ईश्वर ने उसे मौक़ा दे दिया था तो उसने इसे निकलवा दिया। गाँव वालों के सामने हरिजन ने मंदिर में चढ़ने को क़ुबूल कर लिया था और पुजारी की जान से मारने की धमकी सुन कर हरिजन बुरी तरह डर गया और उसने सबके सामने झूठ-मूठ का ही स्वीकार कर लिया कि इस आदमी ने मुझसे खाने के लिए कुछ माँगा जब मैं मंदिर की साफ़-सफ़ाई करने आया था। मुझे दया आ गयी तो मैं इसके लिए चढ़ावे का बहाना करके कुछ फल ले आया। साथ में कुछ कपड़े और पैसे भी ले आया जिससे इस परदेसी को कुछ मदद मिल सके। मंदिर के पास आते ही इसने कहा कि चढ़ावा लेकर ऊपर ही आजा अब कोई नहीं है तो मैं इसकी बातों में आ गया। नहीं तो मैं इसे नीचे से ही चढ़ावा दे रहा था। जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी . . .
वास्तविकता में अधेड़ को हरिजन पर दया आ गयी थी जब उस हरिजन ने इस से मंदिर में दर्शन की विनती की थी। अधेड़ ने कहा कि तुम भी ईश्वर की ही संतान हो। मन्दिर भी आ सकते हो। लेकिन पुजारी ने इस बात का पुरज़ोर विरोध किया जबकि चढ़ावे के कपड़े और पैसे लेने में क़तई देर नहीं की। तभी अपनी नाक रखने के लिए और बदनामी के डर से पुजारी और गाँव वालों ने इसे निकाल दिया। हरिजन को इस तरह उसके कारण इस अधेड़ को निकाले जाने का दुख बहुत हुआ। लेकिन वह अपने मन को मसोसकर रह गया और चाहते हुए भी कुछ न कर पाया। पश्चाताप के आँसू अपनी आँखों में लिए वह उस आदमी को रात में जाते हुए एकटक देखता रहा।
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