प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 21

सुबह होते ही उस धनराम नाम के ज़मींदार ने गाँव के लोगों को इकट्ठा किया। रात को आये ख़्वाब के बारे में सभी को बताया। पहले तो किसी ने भी उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जब उसने लोगों से बहुत ही ज़िद की तो उन्होंने उसकी बात को ध्यान से सुना। ध्यान से सुनने के बाद कुछ अनुभवी लोगों ने ये महसूस किया कि वास्तव में उन सब ने मिलकर उन दोनों के साथ ग़लत किया है। उन सबको अपनी ग़लती का एहसास हो गया। उन्हें अपनी करनी पर बड़ा पछतावा हो रहा। साल भर पहले की घटित घटना एक पल में ही उनकी आँखों के सामने एक चलचित्र की तरह घूमने लगी। 

उस गाँव के सभी गणमान्य लोग इस मृत्युभोज की प्रथा के बारे में गम्भीरता से विचार करने लगे; “उस ग़रीब ब्राह्मण को मृत्युभोज न देने के लिए उसे मृत्युदण्ड देना न्यायसंगत न था। उसके साथ आए उस निर्दोष बाबा को मार दिया जाना तो हमारे लिए जघन्य पाप सिद्ध हुआ। अब हमें मृत्युभोज की प्रथा में आवश्यक सुधार करने चाहिएँ ताकि आने वाले समय में किसी भी ग़रीब या असहाय के साथ कुछ ग़लत न हो सके।” 

फिर उन सब ने ज़मींदार पर से मृत्युभोज देने का दवाब हटा लिया। उन्होंने अब ये रिवाज़ बना दिया कि अगर किसी का कोई प्रियजन परलोक सिधार जाता है तो उसकी तेरहवीं पर कोई स्वेच्छा से अगर मृत्युभोज देना चाहे तो दे सकता है। जिसकी आर्थिक स्थिति अगर ठीक नहीं है तो सब गाँव वाले मिलकर उसके मृत प्रियजन की तेरहवीं का ख़र्चा उठाएँगे तथा मृत्युभोज न देने की उनको छूट रहेगी। इस तरह से आज उस गाँव में ग़रीबों पर ज़बरदस्ती से थोपी जाने वाली मृत्युभोज की यह कुरीति लगभग समाप्त हो गयी थी। यह स्नेहमल और उस ग़रीब व्यक्ति के साथ हुआ दुर्व्यवहार का ही परिणाम था कि आज इन गाँव वालों की आँखें खुल गयी थीं। कुछ देर वार्तालाप के बाद गाँव वाले उन दोनों को ढूढ़ने के निष्कर्ष पर पहुँचे। इस तरह उस गाँव के कुछ गणमान्य लोग उन दोनों की खोज में धनराम के साथ निकल पड़े। 

उधर . . . . . . 

एक साल पहले का दृश्य:

स्नेहमल और वह ग़रीब व्यक्ति नदी में बहे जा रहे थे। वे लहरों के साथ ऊपर नीचे होते हुए बहे जा रहे थे। नदी अपने पूरे उफान पर थी। वे बहते हुए मीलों दूर ऐसी जगह पहुँच गए जहाँ थोड़ा निचान होने के कारण छिछला पानी था और बहाव कम हो जाने के कारण क़िस्मत से किनारे की ओर आ गए। रात भर वे किनारे पर ही पड़े रहे। भोर होते ही लोगों की चहलक़दमी होने लगी। एक बीस-बाइस साल का युवा गड़रिया उसी किनारे की ओर शौच आदि के लिए आया तो भोर के अँधेरे में अचानक से उसका पैर ठोकर खा गया और गिरते-गिरते रह गया। जब उसने वहाँ देखा तो उसे दो मानव आकृतियाँ पड़ी हुई दिखाई दीं। वह अचानक से घबरा गया और उसने शोर मचाते हुए कहा, “यहाँ तो शव पड़े हुए हैं।” 
इतना सुनते ही वहाँ मौजूद लोग दौड़कर उधर इकट्ठे हो गए। अब तक पूरी तरह से उजाला हो चुका था। लोगों ने देखा कि एक बुज़ुर्ग और एक अधेड़ बेसुध पड़े हुए थे। उन्हीं लोगों में एक ने उन दोनों की नब्ज़ टटोली तो उसने आश्चर्य व्यक्त किया क्योंकि बुज़ुर्ग की अभी नब्ज़ चल रही थी जबकि अधेड़ की नब्ज़ ठंडी पड़ चुकी थी। 

कुछ लोग उस मृत ग़रीब के दाह-संस्कार के लिए चले गए और कुछ लोग उस वृद्ध व्यक्ति को गाँव में ले आए। उसका गाँव के वैद्य से इलाज शुरू करवा दिया। कुछ दिनों तक इलाज अनवरत चलता रहा। गाँव वालों के द्वारा की गई थोड़ी बहुत सेवा के बाद उसे कुछ-कुछ होश आने लगा। अब उसका स्वास्थ्य भी धीरे-धीरे सुधरने लगा। लेकिन सर्दियों की रात में नदी किनारे रात भर पड़े रहने से और ठंडी लहरों के थपेड़ों से वह पूरी तरह से होश में नहीं आ पाया था। उसे बहुत ज़्यादा ठंड लग गयी थी। लेकिन वैद्य की दवाओं का असर अब धीरे-धीरे होने लगा था। थोड़े दिनों बाद जब वह कुछ बोल पाने की हालत में आ गया, तो लोगों ने उसका परिचय चाहा। लेकिन वह केवल अपना नाम ही बता पाया था। उसने काँपती हुई आवाज़ में अपना नाम ‘स्नेहमल’ बता दिया। जैसे ही कुछ और बोलना चाहा तभी उसको अचानक से ज़ोर की खाँसी हुई। ज़ोर से खाँसने के दौरान उसके कफ़ में ख़ून आ गया। वैद्य तब वहीं मौजूद था। उसने उसके शरीर की नब्ज़ और थूक को देख कर लोगों की ओर आश्चर्य से देखते हुए उसके क्षय रोग से ग्रसित होने की पुष्टि कर दी। ये ख़बर सुनते ही सब लोग उससे दूर हो गए और वहाँ से चलते बने। स्वयं वैद्य ने भी अपना मुँह गमछा से ढाँप लिया। थोड़ी बहुत दवाई दारू देकर वह भी उसे अकेला छोड़ वहाँ से चल दिया। 

लोग उसे चाहकर भी वहाँ से नहीं भगा सके। क्योंकि उसे जहाँ ठहराया गया था वह राजकीय धर्मशाला थी। इस पर किसी का अधिकार नहीं था। इसलिए लोग उसे वहाँ अकेला छोड़ कर ख़ुद ही चले गए। अभी वह पूरी तरह सही नहीं हुआ था। अभी खड़ा होने में वह लड़खड़ा जाता था। ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी उसने अभी हिम्मत नहीं हारी थी। अभी उसे अपने गुरु के द्वारा दी हुई शेष ज़िम्मेदारियों को पूरा करना था। 

लेकिन आज वह बहुत अकेला पड़ गया था उसे आज अपनी पत्नी की याद आ रही थी। अपने बच्चों की याद आ रही थी। लेकिन पत्नी तो परलोक थी। बच्चों ने इसी लोक में रहकर भी उसकी एक बार भी सुध नहीं ली। उसके अपने बच्चे ही उसे बुरा समझते हैं। उससे घृणा करते हैं। ऐसा कोई जघन्य अपराध तो कर नहीं दिया। जब से संन्यास लिया था तब से लेकर आज तक एक बार भी मिलने नहीं आए हैं। फिर वह अपने मन को शांत करता है। संन्यास धर्म का पालन करते हुए सभी का त्याग करना पड़ता है। मोहवश वह बहुत बेचैनी महसूस कर रहा था। लेकिन अब वह स्वयं को समझा लिया था। सुबह से उसने कुछ भी नहीं खाया था। भूख से व्याकुल और मन से विह्वल होकर वह लड़खड़ाते हुए धर्मशाला से बाहर निकल आया। अब शाम होने को आ गयी थी। 

अस्त होता सूरज पास में ही स्थित तालाब में हिलोरें लेती लहरों के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहा था। वह तालाब के किनारे बैठा उस अस्त होते सूरज को निहार रहा था। अब शरीर थोड़ा सा उसका साथ देने लगा था। लेकिन अंदर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। सुबह की ख़ुराक लेने के बाद ही वह बाहर निकल आया था। अचानक खाँसी अब बढ़ती ही जा रही थी। दवाई धर्मशाला में रह जाने के कारण अब दवाई भी नहीं ले सकता था। बार बार कफ के साथ ख़ून भी आ रहा था। अब साँझ होने लगी थी। सूरज महाराज भी अब अपने घर लौटने की तैयारी में थे। 

अब वह तालाब के किनारे से उठकर धर्मशाला की ओर लड़खड़ाते हुए चल दिया। उधर से वही गड़रिया, जिसने स्नेहमल को नदी किनारे बेहोशी की अवस्था में देखा था, अपनी भेड़ों को अपने घर की ओर ले जा रहा था। उसका ध्यान अचानक स्नेहमल की ओर गया। वह उसे तुरंत पहचान गया। वह उसे सहारा देकर धर्मशाला तक छोड़ आया। 

उस गड़रिये ने उसकी ख़राब हालत देखकर कहा, “बाबा तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है। तुम यहीं आराम करो अब बाहर मत निकलना। तुमने कुछ खाया की नहीं?” 

स्नेहमल ने कहा, “मुझे भूख ही नहीं है।” 

गड़रिये ने कहा, “अच्छा! वो तो तुम्हारी हालत बता रही है। अच्छा मैं कुछ देर में आता हूँ। मेरी भेड़ अब तक अपने खिरक पहुँच गई होगी। उन्हें बाँधकर अभी आता हूँ। तब तक आराम करो।” 

इतना कह कर गड़रिया वहाँ से चला गया . . . 

स्नेहमल फिर से अपनी पुरानी यादों में खो गया। गुरुजी ने जिस तरह उसको ज़िम्मेदारी सौंपी थी उस तरह से वह उसका बहुत कम निर्वहन कर पाया था। अब उसे ऐसा लग रहा था कि उसके गुरु के वचन को शायद ही निभा पाए क्योंकि उसका शरीर अब जवाब देने लगा था। उसका शरीर अच्छा महसूस नहीं कर पा रहा था। आज बहुत दिनों बाद धूप निकली थी इसलिए वह कुछ दूर स्थित तालाब किनारे दिनभर बैठा रहा। लेकिन कोई ज़्यादा राहत उसे महसूस नहीं हो पा रही थी। 

अब उसे ऐसा लग रहा था मानो कि उसकी अपनी रीता उसे कहीं दूर बैठी अपनी ओर बुला रही हो और उसकी आत्मा उसके शरीर से निकलकर उसके पास पहुँचने को बेताब हो रही हो। रीता जबसे इस दुनिया से विदा हुई है तब से उसने अपने बच्चों के रूखे व्यवहार और गुरु की ज़िम्मेदारी के कारण घर तो छोड़ दिया था। मन से उसने भले ही संन्यास धारण कर लिया था लेकिन कहीं न कहीं आज भी वह गृहस्थी था। आज भी उसके अंदर एक पिता, पति और पुत्र आदि मानव सम्बन्धों का हृदय है। आज वही हृदय विह्वल हो रहा है। 

कुछ देर बाद वह गड़रिया उसके पास आया। स्नेहमल धर्मशाला में सिर झुकाए बैठा पुरानी यादों में खोया हुआ था। अचानक से जब उसके कंधे पर उस गड़रिये ने अपना हाथ रखा तब एकदम चौंककर उसने अपनी गर्दन उठाकर उसकी ओर देखा। 

स्नेहमल ने आश्चर्य से पूछा, “कौन है? इतने अँधेरे में।” 

गड़रिया बोला, “बाबा मैं खाने के लिए दलिया लाया हूँ।” 

स्नेहमल ने कहा, “तू क्यों परेशान हुआ। मैंने कहा तो था मुझे भूख बिल्कुल भी नहीं है।” 

गड़रिया ने ज़िद की, “फिर भी कुछ खा लो।” 

स्नेहमल ने कहा, “ठीक है भई इतनी ज़िद कर रहे हो तो कुछ खा ही लेता हूँ नहीं तो तू बुरा मान जाएगा। वैसे मुझे कुछ भी खाने का मन नहीं है।” 

गड़रिया ने कहा, “मैंने सुना है, बाबा! तुम्हें क्षय रोग हो गया है। गाँव वाले कह रहे थे। यह छूत का रोग होता है जो एक दूसरे के लग जाता है। वैद्य ने मुझे अभी बताया था। जब मैं आपके पास आ रहा था तो गाँव वालों ने मुझसे इतनी रात में जाने का कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि बाबा को खाना देने जा रहा हूँ। गाँव वालों ने आश्चर्य प्रकट करते हुए मुझसे कहा कि कल दिन भर बाबा के पास हम रहे थे लेकिन जैसे ही वैद्यजी ने बाबा के क्षय रोग से ग्रसित होना बताया तो हम सभी उस बाबा को छोड़कर आ गए। उसके पास जाना तो दूर हम तो उससे खाने-पीने की भी पूछने नहीं गए। क्या पता यह बीमारी हमारे पूरे गाँव में फैल जाए। तुझे नहीं पता क्या उसकी बीमारी का? अब तू जानबूझ कर मौत के मुँह में जाए तो जा। पर ध्यान रखना एक बार उस बाबा से मिलने के बाद गाँव के किसी भी आदमी के संम्पर्क में मत आना।” 

स्नेहमल ने कहा, “जब तुमने सुन लिया है तो फिर यहाँ तुम्हें नहीं आना चाहिए था। मुझे तो अपनी बीमारी के बारे में ज़्यादा कुछ भी नहीं पता क्योंकि उस समय मैं ख़ुद ही होश में नहीं था। पता चल जाने के बाद भी तुम्हें अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए थी।” 

गड़रिया ने उत्तर दिया, “जब किसी की जान जा रही हो तो संकट में जानवर भी जानवर के काम आता है। मैं तो फिर भी एक इंसान हूँ। अगर तुम्हारी अनुमति हो तो मैं तुम्हारे पास ही ठहर जाऊँ। क्योंकि गाँव में अब मेरे लिए कोई जगह नहीं है। धर्मशाला के पास ही अपनी भेड़ों के लिए खिरक बना लूँगा। वैसे भी मेरा इस दुनियाँ में कोई नहीं है। मैं अनाथ हूँ। भेड़ ही मेरी सबकुछ हैं।” 

स्नेहमल ने समझाया, “तुम क्यों अपनी जान के दुश्मन हो रहे हो। मेरे पास रहोगे तो अपनी ज़िन्दगी को ख़तरे में डालोगे।” 

गड़रिया स्नेहमल के पैरों में गिरते हुए कहने लगा कि मुझे तुम अपनी शरण में ले लो। मुझे अपनी सेवा का मौक़ा दो। मेरा ये जन्म बहुत ही दुख से भरा निकला है। आगे का जन्म सुधारने का मौक़ा दे दो। इंसान होने की ख़ातिर मैं तुम्हें इस तरह तड़पते हुए नहीं देख सकता। तुम्हारी सेवा करने दो। 

स्नेहमल ने उसे अपने हाथों से उठाने का असफल प्रयास करते हुए कहा, “ठीक है; भई! अब तुम उठ जाओ। जैसा तुम्हें उचित लगे वही करो। भगवान तुम्हारा भला करे!” 

इतने शब्द सुनते ही गड़रिये की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह अब गाँव कल सुबह थोड़ी देर के लिए ही अपनी भेड़ों को लेने जाएगा। यह सोचकर बाबा का बिस्तर ठीक करने लग गया। 

अगले दिन वह धर्मशाला के पास ही ख़ाली जगह में अपनी भेड़ों को लेकर आ गया। अब वह बाबा के साथ ही रहने लगा और सेवा करने लगा। बाबा को समय पर दवाई देता। दवाई ख़त्म हो जाती तो वैद्य से दूर से ही बात करके नई दवाई ले आता। बाबा की तबीयत लुकाछिपी का खेल खेले जा रही थी। बाबा की तबीयत कभी सही हो जाती तो कभी बिगड़ जाती। लेकिन वह गड़रिया पूरे मन से उसकी सेवा में लगा रहा। गड़रिये की तबीयत भी कुछ ऐसी ही होने लगी थी। उसकी साँस लेने में कठिनाई आ जाती थी। खाँसी भी होने लगी थी। लेकिन उस गड़रिये ने अपनी परवाह नहीं की। 

इस तरह उस गड़रिये ने उस बाबा की ख़ातिर अपनी ज़िन्दगी संकट में डाल ली थी फिर भी निश्चिन्त होकर पूरे मनोयोग से वह बाबा की सेवा में दिन-रात लगा रहता। 

कुछ दिनों बाद, पूर्णिमा की सर्दरात में बाबा को अचानक से खाँसी उठी। खाँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। गड़रिये ने तुरंत उसे दवाई दी। थोड़ी राहत मिली। फिर दोनों सो गए। बाबा को कुछ देर बाद बेचैनी सी हुई। वह अपने कंबल को ओढ़ धर्मशाला के बाहर निकल आया। वह बाहर खुले में आ गया। रात्रि का तीसरा पहर चल रहा था। पूर्णिमा का चाँद अपनी पूरी चाँदनी बिखेरे हुआ था। खेत सुनसान पड़े हुए थे। वह धीरे-धीरे रास्ते में आगे निकल गया। वह बेसुध चला जा रहा था जबकि चलने की उसमें ताक़त न के बराबर ही बची हुई थी। फिर भी वह लड़खड़ाते हुए चला जा रहा था। दो खेत चलने के बाद एक ख़ाली से खेत में जाकर वह लेट गया। उसका कफ अटक गया। उसका गला रुँधने लगा। उसकी साँस फूलने लगी। 

पास ही एक क़दम्ब का पेड़ था। उसके पत्तों से छनकर चाँदनी उसके स्वर्णिम बदन पड़ अपनी आभा बिखेर रही थी। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात्‌ कान्हा क़दम्ब पर बैठा बाँसुरी बजा रहा हो और चाँदनी बाँसुरी की धुन की तरह क़दम्ब के पत्तों में से छन-छन कर आती हुई स्नेहमल के तन को स्पर्श कर रही हो। चाँदनी के स्पर्श से उसके शरीर में कुछ अलग ही अहसास होने लगा। मानो ईश्वर उसके शरीर को शीतल चाँदनी से सर्द रात में भी अलाव जैसी तपन दे रहा हो। क़दम्ब के पेड़ पर बैठा मोर कुहकने लगा; उसे देख आसपास जंगल में बैठे अन्य मोर भी कुहकने लगे मानो सभी मिलकर भगवान से स्नेहमल को अपने पास बुलाने की विनती कर रहे हों। उनकी आवाज़ को गहराई से सुनने पर ऐसा लग रहा था मानो वे कुहक रहे हों: “इसे ले जाओ—इसे ले जाओ।”

अचानक से उसे ज़ोर से खाँसी उठी। खाँसते-खाँसते मुँह में से ख़ून आने लगा। वह हिम्मत करके खड़ा हुआ और कुछ क़दम चलते ही क़दम्ब के पेड़ के पास आते ही गिर गया। जैसे-तैसे उस पेड़ के तने से पीठ लगाकर बैठ गया। फिर से उसका कफ अटकने लगा। मोर लगातार कुहक रहे थे जैसे वे भगवान से लगातार विनती कर रहे हों कि अपने इस प्रेम के पुरोधा को इस नफ़रत भरी दुनिया से अपने पास जल्दी से जल्दी बुला लो। अबकी बार कफ बुरी तरह से गले में फँस गया। ज़ोर लगाने पर भी उसके गले से कोई बोल नहीं निकल रहा था। उसने अपना चेहरा ऊपर को उठाकर अपने निस्तेज हाथों से चाँद को प्रणाम किया और देखते ही देखते अगले ही क्षण उसका सिर नीचे झुक गया। उसके चेहरे पर वही नूर और मुस्कुराहट झलक रही थी। ऐसा लग रहा था मानो कोई देवदूत सफ़ेद कपड़ों में लिपटा हुआ सफ़ेद चाँदनी रूपी चादर ओढ़े चिर निद्रा में सो रहा हो और मोर उसके लिए रात भर जागकर पहरा दे रहे हों। इस तरह ईश्वर ने मोरों की फ़रियाद अंततः सुन ही ली। 

उधर धर्मशाला में लगभग सुबह के आख़िरी पहर में वह गड़रिया अचानक से उठ बैठा। उसने बाबा को अपने बिस्तर पर नहीं पाया। वह बेचैन हो गया। धर्मशाला के बाहर देखने पर भी वह उसे नहीं देख पाया। फिर वह बाबा को ढूँढ़ने खेतों की ओर निकल गया। चाँद की चाँदनी भोर के धुँधलके में मद्धम पड़ चुकी थी। ऐसे में कुछ भी ज़्यादा साफ़ नहीं दिख रहा था। वह इधर-उधर ढूँढ़ता हुआ उसी क़दम्ब की ओर चला गया। अचानक से उसके पैर ने ठोकर खायी तो देखा कि बाबा शांत भाव से सिर झुकाए बैठे हुए से लग रहे हैं। उसने उन्हें झकझोरा, इतने में ही वो लुढ़क कर गिर गए और बाबा के लुढ़कते ही उस गड़रिये की चीख निकल गई। उसने बाबा को अपनी बाँहों में भर लिया और उसके चेहरे को अपने सीने से लगाकर फूट फूट कर रोने लगा। उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। बाबा के शांत मुस्कुराते चेहरे पर वे आँसू पड़ कर अपने को धन्य समझने लगे। मोर भी उस क़दम्ब से नीचे उतर उनके पास आ गए। वे अब बिल्कुल भी नहीं कुहक रहे थे। मानो वे भी उस गड़रिये के साथ शोक में शरीक होने के लिए ही नीचे उतरे हों और इस दिवंगत दिव्यात्मा के लिए शान्ति की कामना कर रहे हों। 

अब सुबह हो चुकी है। वह जैसे-तैसे करके उस बाबा के मृत शरीर को धर्मशाला तक ले आया। उसने किसी राहगीर से अपने गाँव को सूचित करवा दिया कि गाँव के लोग उस बाबा के दाह संस्कार करवाने आ जाएँ। लेकिन सूचित हो जाने के बाद भी गाँव से कोई भी नहीं आया। अब वह गड़रिये ने एक तरक़ीब सोची। बाबा के मृत शरीर को धर्मशाला के एक कमरे में खिसका दिया। बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया ताकि उस मृत शरीर को कोई जानवर क्षति न पहुँचा सके। फिर वह जंगल से ईंधन इकट्ठा करने चला गया। लगभग घण्टे भर की मेहनत के बाद वह धर्मशाला के पास स्थित ख़ाली जगह में जो सार्वजनिक थी, लकड़ियाँ जमाने लग गया और फिर बाबा के मृत शरीर को वहाँ रख कर दाह संस्कार कर दिया। 

उसे ये सब काम ख़ुद ही करना पड़ा क्योंकि गाँव वालों ने आने से साफ़ मना कर दिया और बाबा के किसी भी सगे-सम्बन्धी के बारे में उसकी कोई जानकारी भी नहीं थी। 

साल भर के बाद अचानक से गड़रिया भी बीमार पड़ गया। उसे भी वही बीमारी हो गई थी जो बाबा को थी। बीमारी के लक्षण तो बाबा के सामने ही होने लग गए थे लेकिन अब ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। खाँसी दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। कफ में ख़ून आने लगा। उसकी हालत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। उसने एक दिन किसी दूसरे गाँव वाले से बात करके अपनी सारी भेड़ें बेच दीं। जो पैसा उसे उन भेड़ों को बेचकर मिला उनसे उसने बाबा की स्मृति में थान बनाने का विचार मन में कर लिया। 

अगले ही दिन उसने कारीगर से बात की। दूसरे गाँव का कारीगर था। वह थान बनाने को राज़ी तो हो गया लेकिन गाँव वालों ने उसे भड़का दिया जबकि गड़रिया ख़ुद ही सबसे दूरी बना कर रखता था। उस गड़रिये ने अपनी भेड़ों का जब सौदा किया था तब भी उसने ख़रीददारों से दूर ही से बात की थी और अपने मुँह को ढके हुए रखा था। पैसे भी उसने नहीं गिने उन्होंने ख़ुद ही गिनकर एक निश्चित जगह पर उसके सामने रख दिए। गड़रिये ने उसी तरह कारीगर को पहले से ही सचेत कर दिया था कि वह अपने मज़दूरों सहित उससे दूर रहे क्योंकि उसे छूत की बीमारी हो गयी है जो दूसरों के लिए ख़तरनाक साबित हो सकती है। पैसे निश्चित जगह पर रखे हुए हैं उनकी सहायता से ये काम जल्दी ही कर दो क्योंकि मेरे पास अब समय बहुत कम है। मैंने बचपन से ही अपने माँ-बाप को नहीं देखा था अब ये ही मेरे लिए सब कुछ थे। अतः मैं चाहता हूँ कि अपने जीवन रहते मैं अपने बाबा की याद में ये थान बनवा जाऊँ। इसलिए कारीगर गाँव वालों की बातों में न आकर अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए थान का काम शुरू कर दिया। 

अब थान बन कर पूर्ण हो गया था। उधर गड़रिये की तबियत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। साल भर गुज़र जाने के बाद भी गड़रिये को ऐसा लगता था मानो बाबा का आशीर्वाद उस पर बना हुआ है। अचंभित कर देने वाली बात तो ये थी कि जब से बाबा इस दुनिया से विदा हुए थे तभी से नदी सूखी पड़ी हुई है। इससे पहले पहाड़ की तलहटी में बसे इस गाँव में नदी बारह मास बहती थी लेकिन इस साल नदी में पानी नहीं आया था। वर्षा ऋतु में भी पानी बिल्कुल भी नहीं बरसा था। लोग भूखे मर रहे थे। लेकिन लोग फिर भी नहीं सुधरे और बेचारे गड़रिये को अभी भी ताने मारते कि तेरे और तेरे उस दिवंगत बाबा के जादू-टोने से ही अबकी बार इस गाँव में सूखा पड़ा है। धर्मशाला नदी से दूर लेकिन पहाड़ी की तलहटी में ही बसी हुई थी। पहाड़ के नज़दीक धर्मशाला से थोड़ी दूरी पर जो तालाब था उसमें आज भी पानी था और धर्मशाला के आसपास का क्षेत्र आज भी हरा-भरा था। लोग यही देख कर चौंकते थे और गड़रिये को तान्त्रिक कहते हुए भला बुरा कहते थे। वह बेचारा सब कुछ शान्ति से सुन कर चुप रहते हुए अपना जीवन यापन कर रहा था क्योंकि वह ख़ुद अपनी बीमारी से ही परेशान था। 

एक दिन सर्दियों की दोपहर में वह गड़रिया धर्मशाला के बाहर धूप में बैठा हुआ था। उधर से बीसियों आदमियों का एक झुंड धर्मशाला के पास आकर रुका और दो आदमियों के बारे में पूछने लगा। उस झुंड में आए लोग कहने लगे कि साल भर पहले एक अधेड़ और एक वृद्ध व्यक्ति नदी में बहकर इधर आए थे। वे तुमने देखे क्या? ये जो पूछने वाले लोग थे ये कोई और नहीं बल्कि जिस गाँव के लोगों ने उन दोनों व्यक्तियों को पहाड़ी से नीचे बहती हुई नदी में फेंक दिया था। उसी गाँव का ज़मींदार जिसका नाम धनराम था और उसके कुछ साथी लोग थे जो बाबा स्नेहमल की दयादृष्टि प्राप्त करने आए थे ताकि उनके गाँव में दोबारा हरियाली आ सके और अकाल ख़त्म हो सके। 

उन लोगों ने उस बाबा और उस अधेड़ के साथ किए गए दुर्व्यवहार और उस दुर्व्यवहार से मिलने वाले कुफल की पूरी कहानी सुना दी। उन लोगों की कहानी सुनने के बाद उस गड़रिये की आँखों में आँसू थे। वह मन ही मन सोच रहा था कि पहले तो इन लोगों ने बाबा को ख़ूब सताया अब बाबा चले गए हैं तो इन लोगों को उनकी अहमियत पता चल रहा है। वाह! रे नियति तेरे खेल निराले हैं, एक लंबी आह भरकर उसने अचानक से कहा। 

क्यों क्या हुआ उन लोगों ने परेशान होते हुए पूछा। क्या वे दो लोग इधर नहीं आए? ये नदी के किनारे गाँव था इसलिए पूछ लिया। तुम्हें कोई परेशानी हुई हो तो हमें माफ़ करना। इतना कहकर वे लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए। 

गड़रिये थोड़ा खाँसते हुए उन्हें रुकने के लिए कहा। वह उन सब से दूर ही से बात कर रहा था। वह जानता था कि छूत की बीमारी बहुत जल्दी दूसरों के लग जाती है इसलिए उसने उन लोगों को भी दूर ही से बात करने के लिए कह दिया था। कुछ देर बाद उसने दुखी मन से कहा कि ठीक एक साल पहले ही उसी ने दो आदमियों को नदी के किनारे बेहोशी की हालत में देखा था। उनमें एक अधेड़ और एक वृद्ध था। अधेड़ तो नदी के किनारे मृत ही मिला था। वृद्ध की साँसें चल रही थीं। वृद्ध का इलाज करवा दिया लेकिन बाद में उन्हें छूत का रोग हो गया और उसके कुछ समय बाद उनका भी परलोकगमन हो गया। ये जो थान बन रहा है ये उन्हीं का बनाया जा रहा है। कहते-कहते उसे ज़ोर से खाँसी उठी और देखते-देखते वह वहीं लुढ़क गया। 

वे लोग बहुत दुखी हुए उनमें से दो आदमी उस गाँव में गए और उन्होंने उस गड़रिये की मृत्यु का समाचार सुनाया तथा अंतिम संस्कार करवाने के लिए कहा। पहले तो उन गाँव वालों ने उस गड़रिये के छूत का रोग होने के कारण न आने का बहाना बनाया फिर उन लोगों ने उस बाबा और गड़रिये को तांत्रिक बता कर उस गड़रिये के दाह संस्कार में शामिल होने से साफ़ इंकार कर दिया। जब उन लोगों ने उस गाँव के लोगों को आपबीती सुनाते हुए उस बाबा के कोपभाजन के कारण उनके गाँव में भी इस गाँव की तरह अकाल पड़ने के बारे में बताया तो उन लोगों की आँख फटी की फटी रह गईं। उस ज़मींदार धनराम के झुंड के दो लोगों के साथ पूरा गाँव उस गड़रिये के दाह संस्कार में शामिल होने आ गया। बिना अपनी जान की परवाह किए उस गाँव के लोगों ने पश्चाताप करते हुए दुःखीमन से उस गड़रिये का दाह संस्कार किया। 

जैसे ही वे सब गाँव वाले दाह संस्कार से लौटे तो अचानक से बादल घिरने लगे और फिर कुछ देर बाद मूसलाधार वर्षा होने लगी। वृद्ध लोग आपस में चर्चा करने लगे कि तूफ़ान के साथ इतनी तीव्र बरसात पूरे जीवन में उन्होंने पहली बार देखी। पूरे दिन मूसलाधार बारिश के कारण नदी अपनी उफान पर आ गयी। इस तरह उस गाँव के लोग बड़े ही ख़ुश हुए। उस धनराम के साथ आए लोग भी अपने गाँव में बारिश की आशा लगाए हुए थे। इस तरह सभी लोग मन ही मन उस बाबा के साथ किए गए बुरे बर्ताव से दुखी हो रहे थे और आगे से ज़रूरतमंद लोगों की सहायता करने का प्रण ले रहे थे। तत्पश्चात धनराम तथा उसके साथ आए लोगों ने उस थान पर उस बाबा की मूर्ति लगवाने का प्रण कर लिया। 

धनराम के झुंड के कुछ लोग अपने गाँव पैसे लेने के लिए लौट गए थे। वह धनराम नाम का ज़मींदार वहीं रुका रहा और अपनी देख-रेख में बाबा स्नेहमल की मूर्ति स्थापना के कार्य में जुट गया। उस झुंड के कुछ लोग अपने गाँव से पैसा लेकर वापस मूर्ति स्थापना वाले स्थान पर उस ज़मींदार के पास आए तो उन्होंने अपने गाँव में भी भारी बारिश होने की ख़ुशख़बरी ज़मींदार को सुनाई। इस ख़बर को सुनकर वह ज़मींदार बहुत ही ख़ुश हुआ और उसने बाबा स्नेहमल के साथ-साथ उस गड़रिये की मूर्ति लगवाने की घोषणा कर दी। इतना सुनते ही गड़रिये के गाँव वालों ने भी मंदिर के चारों ओर की ख़ाली पड़ी जगह मंदिर के नाम कर दी। 

कुछ लोगों ने गड़रिये की मूर्ति लगाए जाने का विरोध भी किया लेकिन समर्थकों ने गड़रिये का समर्थन करते हुए कहा कि अंतिम समय में हम सब ने बाबा को बहुत कष्ट दिए केवल गड़रिया ही था जिसने बाबा की निस्वार्थ सेवा की थी। जब समर्थक ज़्यादा होने लगे तो विरोधयों ने भी उस गड़रिये की मूर्ति स्थापित करने का समर्थन दे दिया। 

इस तरह धर्मशाला के पास जहाँ एक ओर उन दोनों का एक दूसरे के समीप अंतिम संस्कार किया गया था वहीं दूसरी ओर आज दोनों के थान मूर्ति सहित बन कर तैयार हो गए थे। बाबा स्नेहमल की मूर्ति की बग़ल में ही उस गड़रिये की एक छोटी सी मूर्ति प्रतिस्थापित कर दी गयी। उस साल इतनी बारिश हुई थी कि पहाड़ से एक झरना बहना शुरू हो गया था जिसे बाबा के नाम पर ‘स्नेहमल का झरना’ नाम दे दिया गया। उस झरने का पानी सीधे तालाब में आता था। अब उस तालाब में बारहमास स्वच्छ पानी भरा रहता था। ऐसी मान्यता हो गयी थी कि कोई इस पानी में अगर स्नान कर लेता था तो उसका न केवल चर्म रोग बल्कि असाध्य रोग भी सही हो जाते थे। अब कोई भी व्यक्ति जब छूत के रोग का शिकार होता तो इस तालाब के पानी को पीकर सही हो जाता। वैज्ञानिक कारण ये भी था कि पहाड़ियों से जो झरना निकलता था उसमें कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियाँ भी घुल-मिल जाती थीं जो लगभग हर बीमारी के लिए कारगर सिद्ध होती थीं। 

गाँव वालों ने धर्मशाला के पास तालाब और पहाड़ी तक जो ज़मीन दान की थी उस जगह अब हर वर्ष शरद पूर्णिमा को बाबा स्नेहमल की याद में मेला भरता है। उस मेले में बहुत दूर दूर तक के लोग बाबा स्नेहमल के दर्शनों के लिए आते हैं। उस गड़रिये के दर्शनों के बिना बाबा स्नेहमल के दर्शन अधूरे माने जाते हैं। इसलिए वहाँ दर्शनों के लिए आए लोग बाबा के साथ-साथ उस गड़रिये के दर्शन ज़रूर करके जाते हैं। 

एक बार शहर में रह रहे बाबा स्नेहमल के बेटे को असाध्य रोग हो गया। तब उसे किसी के द्वारा सलाह दी गई कि शहर से दूर पहाड़ियों की तलहटी में बसे एक गाँव में एक अद्भुत तालाब है उस तालाब में नहाने तथा उसके पानी को पीकर के असाध्य रोग जड़ से ठीक हो जाता है। हर वर्ष शरद पूर्णिमा को वहाँ मेला भी भरता है। यह सुनकर वह शरद पूर्णिमा के आसपास उसी स्थान पर पहुँचा। जैसे ही वह दर्शन करने उस मंदिर में गया तो उस मूर्ति को देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह देख कर चौंक गया कि यह तो उसके पिता की मूर्ति है। उसे तो पता ही नहीं चल पाया कि वे मर चुके हैं। वह अब इन लोगों से ये भी नहीं कह सकता कि वह इस बाबा का सगा बेटा है। उसे ख़ुद पर बहुत शरम आने लगी कि धन दौलत के नशे में वह अपने पिता को भी भूल गया था। माना कि उसके पिताजी ने उसके साथ शहर चलने को मना कर दिया था और संन्यास का जीवन जीने का निश्चय किया था फिर भी उसका कर्तव्य था कि उसे अपने पिता की समय समय पर कुशल ख़बर लेते रहनी चाहिए थी। न जाने अपने अंतिम दिनों में कैसे तड़पे होंगे, कैसे प्राण निकल पाए होंगे, आदि प्रश्न उसके दिमाग़ में बिजली की तरह कौंधने लगे। उसे बहुत ही पश्चाताप हुआ। उसने फिर पास ही बैठे कुछ लोगों से उसके पिता की मूर्ति के दूसरी बग़ल में स्थापित मूर्ति के बारे में पूछा। उन लोगों में से एक ने उसे उस गड़रिये की मूर्ति के बारे में बताते हुए उस गड़रिये के द्वारा की गई बाबा स्नेहमल की निस्वार्थ सेवा और प्रेम के बारे में विस्तार से बताने लगा। उसने आगे भी बताना जारी रखा कि जब सब लोगों ने बाबा के अंत समय में उसकी सहायता से मुँह मोड़ लिया था तब उस गड़रिये ने एक बेटे के जैसा फ़र्ज़ निभाते हुए बिना अपनी जान की परवाह किए बाबा की देख-रेख की क्योंकि अंत समय में बाबा को छूत की बीमारी हो गयी थी। अंत में बाबा के जाने के कुछ समय बाद यह गड़रिया भी छूत की बीमारी का शिकार हो गया और एक दिन वह भी बाबा के श्रीचरणों की परलोक में सेवा करने पहुँच गया। इस तरह उस सेवा के परिणामस्वरूप लोगों ने इस गड़रिये की मूर्ति भी बाबा स्नेहमल की बग़ल में लगवा दी। 

इन बातों को सुनकर वह व्याकुल हो उठा। उसने भारी मन से उस गड़रिया की प्रतिमा के सामने घुटने पड़ कर सजल आँखों से उसे अपने पिता की निस्वार्थ सेवा के लिए धन्यवाद दिया। फिर वह भारी मन से तालाब के किनारे पहुँच गया और उसके पानी को पी कर उसे अपने असाध्य रोग में बड़ी राहत मिली। अब वह तालाब से कुछ पानी अपनी बोतल में दवाई के रूप में भर कर अपने शहर वापस चल दिया। वह आगे की ओर बढ़ा जा रहा था लेकिन उसके क़दम पीछे की ओर खिंचे जा रहे थे। वह पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहा था। उसने अपने घर पहुँच कर अपने बीवी बच्चों को अपने भ्रमण के दौरान घटित हुई सम्पूर्ण कहानी सुना दी। अपने पिता के बारे में भी सबको बता दिया। कुछ समय बाद उसका असाध्य रोग बिल्कुल सही हो गया। अपने पिता की सूचना उसने अपनी बहन को भी दे दी। उसकी बहन इस ख़बर को सुनकर बहुत दुखी हुई। लगभग एक साल बाद अपनी व्यस्त ज़िन्दगी में से समय निकालकर वह अपने सम्पूर्ण परिवार और अपनी बहिन को भी साथ लेकर अपने पिता के दर्शनों के लिए उस पवित्र तीर्थ स्थल पर पहुँचा। उन सभी वहाँ कुछ समय प्रसन्नता से व्यतीत किया। कुछ समय वहाँ रहने के बाद अपने पिता के निस्वार्थ समाज सेवा के मार्ग को अपनाता हुआ उसने संन्यास धारण कर लिया और तत्पश्चात उसने अपनी बहिन व अपने परिवार को शहर भेज दिया। इस तरह अपने सम्पूर्ण कारोबार और सम्पूर्ण पारिवारिक ज़िम्मेदारी को अपने बड़े बेटे को सौंपकर वह अपने पिता “बाबा स्नेहमल” के प्रेम मार्ग पर चल पड़ा . . . . . .

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