प्रेम का पुरोधा (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )
अध्याय: 12रात होते होते स्नेहमल को नींद आ गयी। घर के अंदर जाकर वह महिला अपने कामों को निपटाने में लग गयी। एक गहरी नींद लेने के बाद पास में घर से आ रही बुदबुदाहट से उसकी निद्रा में कुछ अड़चन आयी। लेकिन वह उस बुदबुदाहट का पता लगाने के लिए सोने का नाटक करता रहा। वह बुदबुदाहट उस महिला और एक उसके हम उम्र आदमी के बीच हो रही वार्तालाप की थी। इस बार की वार्ता में झगड़े की बू नहींं बल्कि प्यार की सुगंध आ रही थी।
महिला कह रही थी, “इतने दिन बाद मिलने आए हो। जब से तुम्हारा घर मुझसे छूटा है तब से हमारा मिलन भी कभी-कभी ही हो पाता है। हालाँकि तुम्हारे पिता ने बचपन से ही मुझसे कुछ ज़्यादा अच्छा व्यवहार नहींं किया। ग़नीमत यही रही है कि अब तक उन्होंने मुझे कोठे पर नहींं पहुँचाया।”
पुरुष ने अपनी लाचारी प्रकट करते हुए कहा, “जिस दिन मेरे पिता तुझे कोठे पर पहुँचा देंगे उसी दिन तू मुझे मृत देख लेना। मेरे पिता ही मेरे सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। हम कितने लाचार और दुर्भाग्यशाली हैं। हमारे पिता ही हम पर अत्याचार कर रहे हैं। पर मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि मेरे पिता ऐसे नहींं हैं। उन्हें उनके चमचों ने और दारू ने ही ऐसा बना दिया है।”
महिला आवेशित हो उठी, “तुम अपने पिता का नाम न ही लो; तुम्हारे लिए यही बेहतर है। मुझे उस नाम से ही नफ़रत हो गयी है। वैसे तुम भी कमाल ही हो; तुम्हारे पिता ने तो तुमको भी नहींं बख़्शा तब भी तुम्हें अपने पिता की बढ़ाई की ही सूझ रही है। तुम्हारे पिता को हमारे प्रेम की क्या पता चला; तभी से उन्होंने मुझको तो इस टूटे-फूटे मकान में समस्त गाँव वालों के लिए मुजरा तथा नाच-गाने के लिए रख छोड़ा है। हमारी मुलाक़ात न हो सके इसके लिए तुमको तुम्हारी ही हवेली में क़ैद कर दिया। पहले उस तुम्हारी हवेली पर जब मैं रहती थी कम से कम लोग केवल मेरा मुजरा और नाच गाना देख कर बिना बदतमीज़ी किए चले जाते थे। यहाँ तो लोग ऐसे घूरते हुए आते हैं जैसे मेरे शरीर पर पल भर में ही भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़ेंगे। तुम्हारे यहाँ से आए हुए पूरा एक महीना होने को आ गया। जब से इस जगह आयी हूँ तभी से लोग यहाँ चील-कौओं की तरह मँडराने लगे हैं। कल ही उसी ठाकुर के चमचे यहाँ मुझे धमकी देने आए थे जो बदनसीबी से तुम्हारा बाप है।”
पुरुष को शायद बुरा लगा, उसने अपने पिता का फिर बचाव किया, “देख तू कुछ भी कह ले पर मेरे बाप को भला बुरा मत कह। देख लेना जिस दिन चमचे और दारू छूट जाएँगे उस दिन मेरे पिता भी अच्छे हो जायेंगे।”
महिला कुछ समय चुप रही और फिर उसने अपने मन की शंका व्यक्त की, “. . . और वह सब कभी छूटेगा नहींं। एक बात और कहनी है। मुझे लगता है तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति को हड़पने के लिए ही तो चमचे इतनी चापलूसी कर रहे हैं। ये चमचे देख लेना एक न एक दिन तुम्हारे पिता, तुम और मुझे अर्थात् जो भी तुम्हारे पिता की सम्पत्ति को हड़पने की राह में उन चमचों के लिए काँटे बनेंगे उन सबको ये चमचे हटवा देंगे। इसलिए सावधान रहना और अपने पिता को इनके चुंगल से आज़ाद करने का प्रयास करना। कहीं ऐसा न हो कि मुझे मोहरा बनाकर ये तुम्हारे पिता का सर्वनाश करवा दें।”
पुरुष ने सहमति जताई, “बिल्कुल सही कह रही हो तुम! हमको सावधानी बरतने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। इसीलिए मेरे साथ हमेशा विश्वसनीय और ताक़तवर लोग रहते हैं। रही बात पिताजी की, तो मैं उनको सही दिशा में लाने के लिए प्रयासरत हूँ। मैं अंदरूनी रूप से पिताजी के चमचों को खोखला करने का प्रयास कर रहा हूँ। आगे ईश्वर की इच्छा . . . ” उसने लंबी साँस लेते हुए कहा।
महिला ने बात आगे बढ़ाई, “आगे सुनो वह तो तुम्हारी क़िस्मत अच्छी है कि तुम्हारी अमानत अभी अछूती है। लेकिन कल तो मुझे डरा ही दिया था। अपने चमचों के माध्यम से तुम्हारे पिता ने मुझे धमकी भिजवाई थी कि मैंने कोई भी अगर-मगर की तो मुझे कोठे पर भिजवा देंगे। अगर-मगर का मतलब तो समझ ही गए होंगे?”
पुरुष ने कहा, “हाँ! मतलब हमारा मिलना जुलना।”
महिला ने लगभग पुरुष की बात को अनसुना करते हुए कहना जारी रखा, “मुझे दुख तो इस बात का है कि अब तक जिस्मानी इज़्ज़त तो मेरी बची हुई है परन्तु उस इज़्ज़त का क्या? जब से तुम्हारी माँ, ठकुराइन स्वर्ग सिधारी हैं और तुम्हारे पिता का मेरे प्रति जो अचानक से व्यवहार बदला है, तभी से यहाँ के लोग मुझे मुजरा करने वाली के रूप में जानने लगे हैं। वही लोग जो पहले ठाकुर की गोद ली हुई बेटी के रूप में जानते थे, वही अब मेरे शरीर से अपनी वासना की प्यास बुझा लेना चाहते हैं। अब, जब तुम्हारे पिता ने मुझे अपनी मुँह बोली बेटी को अपने घर से इस तरह किसी के बहकावे में आकर निकाल दिया था, तब मैंने भी तय कर लिया था बेटी न सही तो कोई बात नहीं लेकिन अब इस घर की बहू बनकर ही मुझे आना है। बेटी के रूप में तो तुम्हारे पिता ने कभी स्वीकार नहींं किया लेकिन अब उसके बेटे की बहू बनकर इस हवेली को सँभालना है। कभी न कभी तो तुम्हारे पिता मुझे स्वीकारेंगे। वैसे भी प्रेम तो हम दोनों बचपन से ही करते हैं। वह बात अलग है कि अब इन सबको पता चल गया है। अब चाहे कुछ भी हो जाए हम दोनों एक होकर ही रहेंगे लेकिन इस गंदगी में आ जाने से मेरी बहुत बदनामी हुई है। जब कि मुझमें ऐसी कोई बुराई भी तो नहींं। एक बार कोई ख़ुद में कोई बुराई आ जाए तो वह सुधारी और सहन की जा सकती है पर बदनामी नहींं। लोग कहते भी हैं, 'बद अच्छा, बदनाम बुरा' मैं बद तो नहींं पर बदनाम तो हूँ। यही बदनामी मुझे अंदर अंदर सालती रहती है,” कहते-कहते वह हिचकियाँ भरते हुए रोने लगी।
पुरुष भी व्याकुल होकर कहने लगा, “रो मत। सब ठीक हो जाएगा। महीने भर से; जब से तू यहाँ आयी है तब से ही मेरे वफ़ादार और शक्तिशाली नौकर यहाँ आठों पहर मुस्तैद रहते हैं। इसलिए जिस्मानी इज़्ज़त की तो तू फ़िक्र मत कर। रही बात सामाजिक इज़्ज़त की वह तुझे मैं दिला के रहूँगा चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाये। यह एक प्रेमी का अपनी प्रेमिका से वादा रहा,” उसने महिला को अपनी बाँहों में जकड़ लिया और उसके आँसू पोंछ दिए।
महिला ने पूछा, “तुम अपनी हवेली से कैसे आए?”
पुरुष ने बताया, “हवेली में से बाहर निकलने में नौकरों ने मदद की। आज पिताजी अपने कुछ चमचों के साथ दारू पीकर धुत्त थे। मेरे नौकर कई दिनों से अवसर की तलाश में थे। जो नौकर मेरे पिताजी और उनके चमचों की दारू तैयार करता था उसे उन नौकरों ने चालाकी से मुझसे मिलवा दिया और मैंने उसे हज़ार रुपये का लालच देकर ख़रीद लिया। उसे आज अवसर मिल गया और उसने चमचों सहित जो भी संदिग्ध व्यक्ति थे; वे तथा मेरे पिता सभी की दारू में नींद की गोलियाँ मिला दीं और वे सब गहरी नींद में सो गए।”
महिला ने फिर पूछा, “पर तुम आए कहाँ से? तुम्हारे कमरे के बाहर तो पहरेदार होंगे।”
पुरुष मुस्कुराया, “जो पहरेदार थे उनको भी दारू में नींद की गोलियाँ डालकर पिला दी। तभी मेरे नौकरों ने मेरे कमरे की पीछे की दीवार में घण्टे भर में ही सेंध लगा दी और मैं वहाँ से निकल आया उस जगह पर नाम मात्र को ईंट चिन दी गयी हैं। जिससे किसी को शक न हो कि इस दीवार में सेंध भी लगी है।”
महिला ने घबराते हुए कहा, “अब तुम जल्दी जाओ नहींं तो कोई हमारा दुश्मन देख लेगा। वरना मुझे कोठे पर ही जाना पड़ेगा,” उस महिला ने उस पुरुष के कंधे पर अपना सिर रखते हुए कहा, “अब तुम जाओ, मुझे सोने दो कहीं बाबा न जग जाएँ।”
पुरुष ने आश्चर्य से पूछा, “अब यह बाबा कौन है?”
महिला ने बताया, “एक राहगीर बाबा कल सुबह ही आए हैं। यह बेचारे भूखे और थके हुए थे इसलिए मैंने इन्हें अपने घर ठहरा लिया है। बहुत अच्छे हैं।”
पुरुष ने घबराते हुए कहा, “किसी भी आदमी को सोच-समझ कर आश्रय दिया कर। वैसे भी इस समय हमारे प्रेम की राह में कई दुश्मन खड़े हैं। अच्छे से देख लेना, कहीं ये भी मेरे पिता का कोई जासूस न हो।”
महिला आश्वस्त थी, “नहींं ऐसा नहींं, ऐसा कुछ नहींं होगा। मैंने सब तरह से जाँच परख करने के बाद ही अपने यहाँ ठहराया है। वैसे भी अगर कोई बात हुई तो तुम्हारे नौकर यहाँ हैं ही।”
उस महिला ने अपनी बात ख़त्म की और उस पुरुष ने उस महिला के माथे को चूमा और वहाँ से चला गया।
इन दोनों के मध्य वार्तालाप इतनी धीमी आवाज़ में हुआ कि कोई तीसरा बमुश्किल ही सुन पाए। स्नेहमल कान लगाए हुआ था इसलिए कुछ बातों को सुनने में सफल हो गया। इतना उसे पता चल गया था कि यह महिला ठाकुर के बेटे को बहुत प्यार करती है और ठाकुर का बेटा भी उसे ख़ूब चाहता है। दोनों ही एक दूसरे को किसी भी क़ीमत पर खोना नहींं चाहते। लेकिन दोनों ही ठाकुर और उसके चमचों से डरते हैं।
अब स्नेहमल मन ही मन विचार किया कि उसके लिए इन दोनों का मिलन कराने का सफ़र इतना आसान रहने वाला नहींं था। इनको मिलाने में कई मुश्किलें आने वाली थीं। लेकिन अब वह दृढ़प्रतिज्ञ हो चुका था जबकि उसे भली-भाँति पता था कि उसे एक तरफ़ ठाकुर से पंगा तो लेना ही था साथ ही साथ गाँव और समाज का बहिष्कार झेलते हुए इन दोनों का मिलन भी करवाना था।
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