प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 02

चलते चलते सुबह के चार बजने को आ गए हैं। अभी थोड़ी दूर कुछ पशु पालकों की बुदबुदाहट और पशुओं के रंभाने की आवाज़ सुनाई देने लगी है। अचानक पैर पड़ जाने से कुत्ते की चीख निकलने के साथ ही उस अधेड़ की विचार तंद्रा भंग हुई। पिछले एक पहर से वह विचार तंद्रा में ही तो था . . .। 

एक जाने माने ज़मींदार के घर उसका जन्म हुआ था। नाम रखा गया 'स्नेहमल'। सब लोग प्यार से उसे 'स्नेहू' पुकारते थे। पिता का नाम पूरनमल था। चार भाई बहनों में सबसे छोटा था, स्नेहू। सबसे छोटा था इसलिए सबका लाड़ला भी था। उसे अपने पढ़ाई के दिन याद आने लगे . . .। 

एक चार-पाँच साल का लड़का अपने बड़े भाई-बहनों के साथ पीछे-पीछे खिंचा चला जा रहा है। उसके हाथ में टाट का बना हुआ बस्ता है। उस बस्ते में स्लेट और चाक रखी हुई है। बस्ते में वज़न तो न के बराबर है लेकिन चार-पाँच साल के लड़के के लिए ये ही बहुत ज़्यादा है। पिता का मानना है कि बच्चों को स्वावलंबी होना चाहिए। अतः वे उसके बड़े भाई बहनों से उसकी कोई भी मदद करने की मना कर देते हैं। वह न केवल रेत में बहुत दूर तक पैदल चलकर अपनी शाला जाता है बल्कि अपना बस्ता भी ख़ुद ही लेकर जाता है। भाई बहनों में कोई भी उसको गोदी तो दूर उसके बस्ते को भी नहीं लेता है। शाला भी तो लगभग मील भर की दूरी पर है। 

स्नेहू पढ़ने लिखने में शुरू से ही ठीक रहा है। सब बच्चों में अव्वल ना भी रह पाता हो पर प्रमुख दो चार में उसकी गिनती ज़रूर होती है। बड़े भाई बहन पढ़ने लिखने में ज़्यादा कुशाग्र नहीं हैं। 

एक दिन की बात है जब स्नेहू बच्चा ही था और अपनी कक्षा में न जाकर अपनी बहन के साथ उसकी ही कक्षा में चला गया तब उसके गुरूजी ने उसकी ख़ूब पिटाई की थी। तब उसने कुछ दिनों के लिए शाला ही जाना छोड़ दिया था। इसका प्रभाव यह हुआ कि उस गुरूजी को बड़ा पछतावा हुआ क्योंकि उसकी मासूमियत ही एसी थी कि हर किसी को उस पर दया आ जाये। उसमें बचपन से ही ऐसी दिव्यता थी कि जो भी उससे मिलता उसे प्रेम करने लगता। 

अब स्नेहू बड़ा होने लगा है। उसके दोस्त बहुत ही कम हैं। इसका कारण यह है कि वह अपनी ही धुन में रहने वाला है। उसे मौज मस्ती में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसे तो प्रकृति से ही अद्भुत प्रेम है। इसलिए उसके हमउम्र उसे ज़्यादा समय नहीं देते हैं। वह भी ज़्यादा सामाजिक होने की चाह नहीं रखता है। वह तो एकांत में ही रमता है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे इत्यादि में ही उसका मन लगता है। 

एक बार की बात है उसके पिताजी ने उसे खेत पर खलिहान की रखवाली करने बिठा दिया था। पास में ही कदंब का पेड़ और चाँदनी रात वह तो सब कुछ भुला कर मीरा के भजन में रम गया:

हरि तुम हरो जन की भीर। 
द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर॥
भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर। 
हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥
बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर। 
दासि 'मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥

थोड़ी देर बाद जब उसके पिताजी घर से खाना खाकर लौटे तो देखते हैं कि वह तो खलिहान से कुछ दूर कदंब के पेड़ के नीचे बैठा ज़ोर की आवाज़ में भजन गाने में लीन है और उधर कुछ आवारा मवेशी खलिहान को उजाड़ रही है। पिताजी ने आकर ही उसे होश दिलाया और तब उन्हीं ने उस मवेशी को वहाँ से दूर भगाया। इस तरह से वह दुनियादारी से बेफ़िक्र होकर कबीर, तुलसी, बिहारी, सूरदास आदि-आदि संतों के भजनों में रम जाता था। ये उसका रोज़ का काम हो गया था। 

इस तरह से सांसारिकता से दूर प्रकृति और अध्यात्म की छाँव में ही वह पलने बढ़ने लगा। एक ओर वह किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा था उधर दूसरी ओर उसकी आध्यात्मिकता प्रगाढ़ होती जा रही थी। फ़सल को देख कर कल्पना करने लगता कि जिस तरह से ये गेहूँ, धान आदि के पौधे अपने शैशव को जीते हैं, उसके बाद बड़े होकर इनमें दाना पड़ता है, फिर ये पकते हैं और अंत में किसान अपने हंसिया से पकी हुई फ़सल को काट देता है। उसी प्रकार मनुष्य धरती पर जन्मता है फिर बचपन को जीकर जवान होने लगता है और उसके बाद उम्र पक जाने पर ईश्वर किसान ही की तरह अपने काल रूपी हंसिया से मनुष्य रूपी फ़सल को काट देता है। 

अब वह किशोर हो गया है। और उसके पिता ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए पास ही के शहर में जाने का फ़रमान सुना दिया है। उसे यह सुनकर बहुत ही दुख हुआ और शहर जाने से इंकार कर दिया। वह पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जीवजंतु आदि को छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहता था। तब उसके पिता ने स्पष्ट कह दिया कि तुझे शहर तो जाना ही होगा और अब तेरा इस कल्पना लोक से निकल कर वास्तविक लोक में आने का समय हो गया है। तूने बहुत इनसे मन लगा लिया। इससे तेरा पेट तो भर नहीं जाएगा। पेट भरने के लिए व्यावहारिक ज्ञान की ज़रूरत होती है और उसके लिए शहर जा और वहाँ लोगों से घुल-मिल कर सामाजिक विकास करते हुए अपने जीवन को व्यवाहरिक बना। बिना व्यवहारिकता के जीवन जीना कठिन है। 

पिता को मन ही मन एक चिंता ये भी हो रही थी कि कहीं हमारा बेटा वैरागी ना हो जाए क्योंकि उसकी सोच और हरकतें कुछ सालों से वैरागी होने की ही नज़र आ रहीं थीं। कहीं बेटा संन्यासी ना हो जाये इस डर से पिता ने अंततः उसे उसके बड़े भाई के पास शहर भेज दिया। 
 

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