प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 07

गुरुजी के मार्गदर्शन में वह अपनी ज़िन्दगी जी रहा था। मानव सेवा ही अब उसका धर्म बन चुका था। स्नेहमल ने एक अनाथालय से सम्पर्क कर लिया, जहाँ वह हर महीने आर्थिक और शारीरिक मदद करने पहुँच जाता। अपनी दिनचर्या में से कुछ समय गुरुजी की सेवा के लिए भी निकलता। गुरुजी के यहाँ हर शनिवार-रविवार भजन संध्या का आयोजन होता। कुछ दिनों से गुरुजी बीमार रहने लगे थे। दोनों पति–पत्नी गुरुजी की सेवा-सुश्रूषा में लगे रहते। गुरुजी की हालत दिनो-दिन बिगड़ती जा रही थी। अपना अंतिम समय नज़दीक देख गुरुजी ने एक दिन स्नेहमल को अपने पास बिठाकर कहा, “स्नेहमल! अब तुझ पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आने वाली है। एक तो मेरा जाने का समय आ गया है और अब मेरे बाद मेरे इस आध्यात्मिक आंदोलन का उत्तरदायित्व तेरे कंधों पर रहेगा। तुझे ही अब इस संसार के प्रत्येक जीव के प्रति परस्पर प्रेम की इस मुहिम को आगे ले जाना है। दूसरा अब कुछ ही दिनों में आपदा आने वाली है उसमें तुझे अपनी सेवाएँ मानव कल्याण में देनी हैं।” ऐसा कहते-कहते प्रेमल दास इस दुनिया से रुख़सत हो गये। 

अब दोहरी ज़िम्मेदारी स्नेहमल के कंधों पर आ पड़ी। अचानक से इलाक़े में फ़्लू आ गया। लोगों में तेज़ी से संक्रमण फैलने लगा। अब स्नेहमल को गुरुजी की भविष्यवाणी याद आने लगी। उन्होंने मरने से पहले आपदा के बारे में सूचित किया था। अब आध्यात्मिक उन्नति के साथ साथ इस महामारी में मानव सेवा की ज़िम्मेदारी भी उसके कंधों पर आ गयी थी। 

लोगों में संक्रमण इतना ज़्यादा हो गया कि लोगों की जानें जाने लगीं। लोग में एक दूसरे से दूरी बढ़ने लगी। क्योंकि यह छूत की बीमारी थी। कोई किसी की सहायता के लिए आगे नहीं आना चाहता था। सभी में संक्रमित होने का भय व्याप्त हो गया था। फ़्लू धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गया। सभी को आगाह कर दिया गया कि सामाजिक दूरी बनाये रखें। पर्याप्त सुरक्षा के उपाय अपनाएँ। किसी से मिलना आवश्यक हो तो ही उससे मिलें। भीड़ में जाने से बचें। अकेला रह सकें तो और भी बेहतर। 

स्नेहमल ने अपने संक्रमित होने की परवाह किए बग़ैर स्वयं को मानव सेवा में लगा दिया। हालाँकि उसने सावधानी भी रखी क्योंकि अगर लापरवाही से अपनी जान को जोखिम में डाल देगा तो इस आपदा में लोगों की मदद नहीं कर पाएगा। उसने लोगों की रोग प्रतिरोधक शक्ति को प्रगाढ़ करने के लिए जड़ी-बूटियों को पीसकर काढ़ा बनाया और उन्हें लोगों को पिलाना शुरू कर दिया। फिर भी कई लोगों ने इस महामारी में अपनी जान गँवायी। लेकिन स्नेहमल ने अपनी जान की परवाह किए बग़ैर आस पास के लोगों की हर तरह से सेवा की। वह स्वयं भी अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए जड़ी-बूटियों का काढ़ा ज़रूर पी लेता था। 

इस महामारी के दौरान जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। इस आपदा ने लोगों में आपस में दूरी पैदा कर दी। लोग एक दूसरे के नज़दीक आने मात्र से ही सहम जाते। धीरे-धीरे स्नेहमल ने लोगों के अंदर व्याप्त भय को कम करने का प्रयास किया। उसने अपनी कथा के माध्यम से लोगों में विश्वास बढाते हुए उन्हें सामाजिक रूप से नज़दीक लाने की कोशिश की। साथ ही लोगों को सावधानी व सुरक्षा के साथ रहने के लिए प्रेरित किया। धीरे धीरे लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने लगी। फ़्लू कमज़ोर पड़ने लगा। इस तरह पूरे सालभर के बाद यह महामारी ख़त्म हुई। गाँव के सभी लोगों ने स्नेहमल की सेवा-सुश्रूषा को सराहा। इस तरह स्नेहमल ने गुरुजी के द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया। 

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