प्रेम का पुरोधा (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )
अध्याय: 17स्नेहमल अपनी लंबी यात्रा के बाद एक गाँव में ठहरा। गाँव में एक तालाब के किनारे पेड़ की छाँव में बैठ गया। पास ही में एक कुएँ से पानी खींचकर उसने अपनी प्यास बुझाई और अपनी बोतल को भर लिया। वहीं पर वह अपने झोले को सिरहाने लगाए सो गया। तभी अचानक उसे शोर गुल सुनाई दिया और वह जग गया।
उसने देखा कि एक फटे चिथड़ों में ख़ून से लथपथ युवक उसके बग़ल में सुबक रहा है और डर से काँप रहा था। वह कहीं छुप जाने का नाकाम यत्न कर रहा था। वहीं कुछ दूरी से कुछ लोगों की आवाज़ें आ रही थीं। लेकिन पर्याप्त दूरी होने के कारण कोई दिखाई नहीं दे रहा था। केवल लोगों का शोरगुल ही सुनाई दे रहा था। स्नेहमल उसे ढाढ़स बँधाते हुए उसके इस हाल का कारण पूछा लेकिन वह कोई जवाब नहीं दे पाया। वह सिर्फ़ सुबक रहा था और काँप रहा था।
स्नेहमल ने कुएँ से पानी खींचा और उसे थोड़ा पानी पिलाने की कोशिश की। उसने एक दो घूँट पानी पीकर उसे बाहर उगल दिया। फिर स्नेहमल ने उस फटेहाल युवक पर पानी उड़ेल दिया ताकि उसकी गर्मी शांत हो सके और होश में आ सके। पानी पड़ते ही उस युवक का शरीर ऐसे दमक उठा जैसे कचरे में दबा हीरा कचरा साफ़ होने के बाद चमक उठता है। थोड़ी देर बाद बहुत भारी शोर गुल के साथ लोगों की भीड़ उधर उस ओर आती दिखाई दी। स्नेहमल माजरा समझ गया कि इस युवक पर कोई संकट आन पड़ा है। तुरन्त ही उसने उस युवक को पास ही कुछ दूरी पर एक झाड़ी के पीछे छुपा दिया।
इतने में भीड़ उसे ढूँढ़ती हुई वहाँ आ पहुँची। भीड़ ने आकर स्नेहमल से उस युवक के बारे में पूछा लेकिन स्नेहमल ने ऐसा व्यवहार किया मानो वह इस घटना से अनजान हो। भीड़ में से कुछ लोग कहने लगे कि पागल था चला गया होगा कहीं, ख़ैर छोड़ो अब अपने अपने घर चलते हैं। थोड़ी देर बाद भीड़ वहाँ से चली गई।
भीड़ के चले जाने के बाद स्नेहमल ने उस युवक को अपने पास बुलाया। वह युवक अभी भी डर से काँप रहा था तथा कुछ भी बोलने की दशा में नहीं था। सूरज ढलने को आ गया था लेकिन अभी तक वह युवक पूरी तरह से सहमा हुआ था। तभी उसी गाँव का एक सज्जन वहाँ उस युवक के लिए खाना लेकर आया लेकिन वह सज्जन भी इधर-उधर सहमी हुई नज़र से देख रहा था कि कोई उसे वहाँ देख नहीं ले। अँधेरा होने लगा। अब स्नेहमल की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी कि वह इस सब घटनाक्रम का मर्म जान सके।
स्नेहमल ने उस सज्जन के कंधे पर हाथ रखते हुए इस सब घटना के बारे में पूछा। सज्जन ने आँखों में आँसू गए और उसने कहा, “मैं इस अभागे का पिता हूँ। यह पढ़ा-लिखा और क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत नवयुवक है। गाँव में कुछ दिन पहले एक नग्न रहने वाला बाबा आया था जो युवक ही था। वह गाँव के मंदिर पर ठहरा हुआ था।”
उसने आगे कहना जारी रखा, “एक दिन मेरा बेटा मंदिर पर पूजा पाठ करने गया हुआ था। वहाँ उस बाबा को जो बिल्कुल नग्न बैठा हुआ था, एक गाँव की ही युवती से अश्लील हरकत करते हुए देख लिया। जब इसने विरोध किया तो वहाँ पर मौजूद उस बाबा के चमचों ने इसे ख़ूब पीटा और धक्का देकर इसे बाहर निकाल दिया। धक्का मुक्की में इसके सिर पर गहरी चोट लग गयी और यह अपनी सुध-बुध भूल गया। तभी से यह पागल-सा हो गया है। उन चमचों ने गाँव की जनता को इसके ख़िलाफ़ भड़का दिया। गाँव का प्रधान भी उन लोगों की बात में आ गया और मुझको अपने इस पागल बेटे को सँभाल कर रखने की नसीहत दे दी। तब से मैं इसे सँभाल कर रख रहा था। लेकिन आज इसने उस बाबा को हमारे घर के सामने गुज़रते हुए देख लिया। उसे देखते ही यह पूरी तरह से बिफर गया और अचानक ही इसने उस बाबा पर लाठी से प्रहार कर दिया। लाठी से प्रहार करके यह भाग गया और इसके पीछे लाठी डंडे लेकर गाँव की भीड़ लग गयी। इतनी भीड़ को देखकर यह पूरी तरह से घबड़ा गया और एक दो लाठी लग जाने से लहू लुहान हो गया। लहूलुहान अवस्था में भागता पड़ता हुआ यह यहाँ आ पहुँचा है। मैं भी भीड़ से बचते-बचाते इस पर नज़र रखते हुए इसे खाना देने आया हूँ। कल शाम को इसने खाना नहीं खाया और सुबह इसने यह उपद्रव कर दिया। इस तरह मैंने सोचा कि शायद खाना खाने के बाद इसकी सिर की गर्मी शांत हो जाए। पर मुझे यहीं आकर पता चला है कि मेरे बेटे को उन लोगों ने इतनी बेरहमी से पीटा है। भीड़ के चले जाने के बाद अब मैं चुपके से इसे खाना देने आया हूँ।”
स्नेहमल ने उस सुबकते हुए सज्जन के कंधे पर हाथ रख कर उसको सांत्वना देते हुए कहा, “अच्छा यह बात है। तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा।”
सज्जन ने हैरानी से पूछा, “तुम कहाँ से आये हो बाबा? तुम्हारा गाँव कौन-सा है? तुम कहाँ जा रहे हो?”
स्नेहमल ने कहा, “मेरा कोई ठिकाना नहीं है। मैं संन्यासी हूँ। मैं एक गाँव से दूसरे गाँव ऐसे ही घूमता फिरता हूँ।”
सज्जन ने पूछा, “फिर तुम खाना?”
स्नेहमल ने कहा, ‘मुझे भूख नहीं है। अभी सुबह ही दूसरे गाँव में खाना खाकर ही आया हूँ।”
सज्जन ने फिर कहा, “नहीं, मैं अभी आपके लिए भी खाना लेकर आता हूँ।”
स्नेहमल के लाख मना करने पर भी वह सज्जन खाना लेने चला गया। स्नेहमल अपने बग़ल में बैठे उस तथाकथित पागल युवक को देख विचारों में खो गया।
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