प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 06

स्नेहमल अपनी जवानी के दिनों को याद करता था। यही गुरु थे यही कुटिया थी। वह अपने उन दिनों को याद करके भाव भिवोर हो जाता था . . . 

प्रेमल दास की कुटिया में स्नेहू अब रोज़ जाने लगा था। प्रेमल दास जितनी स्नेहू की आध्यात्मिक पिपासा को शांत करने का प्रयास करते, उतनी ही पिपासा उसकी बढ़ती जाती। प्रेमल दास भी उसकी आध्यात्मिक उत्सुकता को शांत करने का हर सम्भव प्रयास करते। प्रेमल दास को लगता है कि यही वह व्यक्ति है जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। यही है जो उनके बाद उनके इस आध्यात्मिक आंदोलन को आगे बढ़ाएगा। 

इसलिए प्रेमल कोई शंका उसके अंदर नहीं रहने देना चाहते। उनका वार्तालाप शुरू होता है:

स्नेहू पूछता है, “गुरुजी! अगर इस दुनिया में भगवान है तो वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता है?” 

प्रेमल दास मुस्कुराते, “कौन कहता है कि भगवान दिखाई नहीं देता, वत्स! मैं तुझे तथ्यात्मक रूप से समझाता हूँ। ऊर्जा ही भगवान है। इसका मुख्य स्रोत सूर्य है जो तुम्हें हर दिन अपनी उपस्थिति महसूस करवाता है। सब चर-अचर ऊर्जा से ही संचालित हैं। अतः ऊर्जा ही भगवान का पर्याय है। चाँद अपनी अलग रूप में ऊर्जा प्रदान करता है। इस तरह हर वह जो ऊर्जा का स्रोत है सब भगवान के ही रूप हैं। इसलिए हम सब भगवान के ही रूप हुए।” 

स्नेहू ने पूछा, “गुरुजी! सत्य क्या है?” 

प्रेमल दास ने उत्तर दिया, “वर्तमान ही सत्य और वास्तविक है बाक़ी सब मिथ्या है। वर्तमान में जो हम देख और महसूस कर रहे हैं वही सत्य है। भविष्य और भूत अपने हाथ में नहीं और जो अपने हाथ में नहीं वह वास्तविक नहीं और जो वास्तविक नहीं वह सत्य कैसे हो सकता है पुत्र?” 

स्नेहू का अगला प्रश्न था, “माया क्या है गुरुजी!?” 

प्रेमल दास ने कहा, “हृदय का हर नकारात्मक पहलू माया है।” 

वार्तालाप समाप्त होने के बाद स्नेहू घर तो आ गया पर वह अपने प्रश्नों का अजीबोगरीब जवाब पाकर और ज़्यादा असंतुष्ट हो गया। फिर उसे विवेकानंद वाली कहानी याद आयी जिस तरह से विवेकानंद ने अंधविश्वास नहीं किया था वैसे ही उसे अपने गुरु पर अंध विश्वास नहीं करते हुए अपने विवेक से तौल कर ही इन जवाबों पर भरोसा करना चाहिए। उसे उस रात ढंग से नींद नहीं आयी वह गुरुजी के जवाबों में ही भटकता रहा। 

अगले दिन स्नेहू ने पूछा, “गुरुजी! लोग तो यह कहते हैं कि भगवान अदृश्य है फिर आप सूर्य, चाँद, जीव आदि को भगवान का रूप कैसे कह सकते हैं?” 

प्रेमल दास ने कहा, “बिल्कुल सही प्रश्न किया तुमने। सूर्य ही तो दृश्य है ऊर्जा तो नहीं। मैंने ऊर्जा को भगवान कहा उसके स्रोत सूर्य को नहीं। यही नियम चाँद, जीव इत्यादि पर भी लागू होता है।”

स्नेहू ने अगला प्रश्न पूछा, “गुरुजी! कई लोग कहते हैं कि यह संसार असत्य है जो अपने आसपास दिख रहा है, जो लौकिक है सब मिथ्या है। फिर जो दिख रहा है वह सत्य कैसे हुआ?” 

प्रेमल दास ने समझाया, “सूक्ष्म दृष्टि से अगर देखें तो संसार सत्य है, पुत्र! हर जीव में ऊर्जा यानी आत्मा है जो परमात्मा का स्वरूप है और जो परमात्मा का स्वरूप इस संसार में विद्यमान है तो वह संसार निसार और असत्य कैसे हो सकता है?” 

स्नेहू ने प्रश्न आगे बढ़ाया, “माया तो पूरा संसार ही है, गुरुजी! पूरा संसार ही माया हुआ न फिर। हृदय का नकारात्मक पहलू ही माया क्यों?” 

प्रेमल दास ने तर्क दिया, “माया का मतलब धोखा होता है, वत्स! सम्पूर्ण संसार धोखा थोड़े ही है। यह धरती माँ जिसने अवतारों का भी पालन पोषण किया वह धोखा कैसे हो सकती है? इसलिए केवल संसार में व्याप्त नकारात्मकता ही माया है। सम्पूर्ण संसार नहीं।” 

अब स्नेहू की समझ में कुछ-कुछ आने लगा था। अब उसे अपनी आध्यात्मिक पिपासा शांत होती दिख रही थी। वह घर लौट आया। और फिर अन्य आध्यात्मिक पहेलियों में उलझता उलझता सो गया। अगले दिन:
स्नेहमल का प्रश्न था, “धर्म क्या है गुरुजी?” 

प्रेमल दास मुस्कुराते हुए बोले, "ऐसे ही प्रश्न रोज़ाना लाया कर स्नेहू! मुझे अच्छा लगता है। वैसे भी सत्संग बड़े भाग्यवानों को नसीब होता है।" 

प्रेमल दास तुलसी की चौपाई गुनगुनाने लगे "परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥"  

फिर इसका अर्थ समझाते हुए बोले,  “सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है, बेटा! कभी किसी को दुःख नहीं देना और दूसरों का हित करना ही सबसे बड़ा धर्म है।”

स्नेहू ने पूछा, “धर्म को लोगों ने क्यों बाँट लिया है?” 

प्रेमल दास ने कहा, “धर्म को लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए बाँट लिया है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई आदि इंसानों की ही देन है, भगवान की नहीं। ईश्वर ने तो एक ही धर्म बनाया है—'मानव धर्म'। आज के इंसान ने धर्म के नाम पर ही सबसे ज़्यादा नाटक किया है। 

“कान खोल के सुन ले ये संसार!" गुरुजी ने ओजस्वी आवाज़ में कहा, "कोई भी धर्म मांस-मदिरा या बलि की गुहार नहीं करता और ना ही कोई धर्म नग्न होने की कहता है। मेरी समझ में एक बात नहीं आती पागलपन के नाम पर या धर्म के नाम पर पुरुष ही क्यों नंगा होता है, औरत क्यों नहीं? यह मान मर्यादा शर्म क्या सिर्फ़ औरत के लिए ही है? चाहे वह धर्म के नाम पर हो या पागलपन के नाम पर। हे मेरे संसार वासियों! मानव धर्म का पालन करो और अन्य धर्मों को गौण समझो, " गुरुजी ने आँखों में आँसू लिए कहा, "कोई धर्म ढोंग करना नहीं सिखाता और न ही कोई धर्म अपने धर्म को ज़बर्दस्ती से थोपना सिखाता है।” 

कहते-कहते गुरुजी भावुक हो गए और एकांत की इच्छा करते हुए स्नेहू को घर जाने के लिए कह दिया। स्नेहू भारी मन से घर लौट आया और सोचने लगा कि आज मैंने गुरुजी को इतना दुःखी क्यों कर दिया? ऐसे ऊल-जलूल बातें करके मुझे उन्हें दुःखी नहीं करना चाहिए था। 

अगले दिन स्नेहू कुटिया के पास पहुँच तो गया था लेकिन अंदर नहीं गया और बिना मिले ही कुटिया के दरवाज़े से लौट आया। उसे गुरुजी की कल वाली बात याद तो आ रही थी कि वे कल क्यों भावुक हो गए थे लेकिन उसका मन गुरुजी द्वारा दिए जवाबों का विद्रोह कर रहा था। 

इसलिए वह अपने इन जवाबों को कहीं अन्यत्र ढूँढ़ने के प्रयास में कुटिया से वापस लौट आया। 

पिछली यादों से निकलकर जब स्नेहमल यथार्थ में आता है तो उसे गुरुजी के प्रति अपने मूर्खतापूर्ण व्यवहार पर हँसी आती है। आज उन्हें अपना गुरु के रूप में पाकर स्नेहमल अपने को धन्य समझ रहा है। अब वह अपने आप को दृढ़ संकल्पित कर लेता है कि अब गुरुजी के इस जीव मात्र की निस्वार्थ प्रेम के भाव के बीड़ा को आगे बढ़ाना है। जो शिक्षा उसने गुरुजी से ली है अब उसे व्यवहार में लाने का समय हो गया है। 

इतना सोचते हुए वह निश्चिंत हो गया। इतने समय बाद उसके मन की मुराद पूरी हो गयी। इतने उलट–पुलट के बाद आज उसे वही गुरु मिल गए थे जिनसे उसकी बहस हुई और जब मिले तब दोनों के बीच न कोई गिला था और न ही कोई शिकवा। दोनों ने ही अपनी अपनी परीक्षा पास कर ली थी

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