रक्षक
प्रवीण कुमार शर्माजन्मते ही इंसान हिफ़ाज़त ढूँढ़ता है
माँ की गोद से ईश्वर उसे सँवारता है।
जैसे जैसे बड़ा होता जाता है
पिता का साया रक्षक बन साथ चलता है॥
फिर और बड़ा होता है
घर परिवार समाज उसके
साथ होता है॥
समाज घर परिवार से मिलकर ही
राष्ट्र बनता है।
जो रक्षा की पराकाष्ठा होता है॥
राष्ट्र के ही रक्षक हमारे जाँबाज़
सैनिक होते हैं
जो अपने घर परिवार को छोड़
सीमा पर डटे होते हैं॥
कड़कड़ाती ठंड में
रात रात भर जगे रहते हैं
कभी कभी बर्फ़ीली चोटियों में
फँसे रह जाते हैं
घर वालों से बात हो पाने में
कई कई पखवाड़े हो जाते हैं॥
ऐसे वीर जाँबाज़ों को
राष्ट्र के रक्षकों को
उन माता पिताओं को
जो हर कष्ट सहते हुए
हमें महफ़ूज़ रखने वालों को
क्या शब्द दूँ
कैसे शुक्रिया अदा करूँ॥
शायद जन्म लग जाएँगे
लेकिन इनका ऋण कभी नहीं
चुका पाएँगे।
ये निस्वार्थ प्रेम के पूरक हैं
जो साक्षात् देवरूप हैं॥