एक मौक़ा और दे

01-11-2025

एक मौक़ा और दे

प्रवीण कुमार शर्मा  (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

एक मौक़ा और दे
ऐ, ज़िन्दगी! 
मौत भी एक बार को
बख़्श देती है
लेकिन तू तो निष्ठुरता में
मौत से भी एक क़दम आगे निकली। 
 
मौक़ा हाथ से निकलने के बाद
फिर बमुश्किल ही आदमी को
तू फिर से मौक़ा देती है। 
 
और बेचारा-बेबस आदमी
मौक़े की तलाश में पूरी उम्र गुज़ार देता है
और क़िस्मत से अगर एक-आध मिला मौक़ा
हाथ से निकल जाए तो फिर
ता-उम्र आदमी उस मौक़े की तलाश में
रहता है। 
 
लेकिन फिर ऐ, ज़िंदगी! 
तू मौक़ा देने का
रहम शायद ही आदमी को दिखाती है। 

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