प्रेम का पुरोधा (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )
अध्याय: 05स्नेहू और रीता के दिन ख़ुशी-ख़ुशी गुज़रने लगे। धीरे-धीरे ज़िम्मेदारी बढ़ने लगी। शादी को पाँच वर्ष होने को हैं। दो बच्चे हैं। लेकिन अभी कोई रोज़गार नहीं मिला है। माँ बाप भी शादी होने तक ही साथ देते हैं। शादी हो जाने के बाद ज़िम्मेदारी स्वयं दोनों को ही निभानी पड़ती है। प्रेम, सुख हो तभी तक रहता है; थोड़ा सा भी कष्ट आ जाने पर ही प्रेम के पैर उखड़ने शुरू हो जाते हैं। फिर प्रेम के स्थान पर सिर्फ़ गृह क्लेश ही रह जाता है।
प्रेम जब ज़िम्मेदारी और कर्तव्य को महसूस करता है तो वही प्रेम, जीवन को बेड़ियाँ नज़र आने लगता है। सुख-दुःख प्रेम के दो हिस्से हैं। असल प्रेम की पहचान बुरे समय में ही होती है। हालाँकि इन दोनों के जीवन में परेशानी ज़रूर आयी; विचलित भी हुए, पर टूटे नहीं। क्योंकि उन्हें एक दूसरे से प्रेम था, मोह नहीं। मोह और प्रेम के बीच एक महीन सी परत होती है। मोह में सिर्फ़ स्वार्थ होता है जबकि प्रेम स्वार्थ रहित। उन्होंने निश्चल और निःस्वार्थ भाव से परस्पर प्रेम करते हुए अपने जीवन को सँभाला है।
अंततः स्नेहू को रोज़गार मिल जाता है और अब दोनों ख़ुशी से जीवन यापन कर रहे हैं। जो बुरा समय था वह निकल चुका है।
स्नेहू के माता-पिता अब वृद्ध हो चुके हैं। बड़ा भाई शहर जा चुका है। स्नेहू और रीता गाँव में ही माता-पिता के साथ रहते हैं। पास ही शहर में उसे रोज़गार मिला हुआ है। रोज़ सुबह स्नेहू नौकरी पर जाता है और शाम को घर वापस आ जाता है। बच्चे शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ने जाते हैं। रीता घर पर ही गाँव में आस-पास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है। शाम को स्नेहू खेतों पर घूमने निकल जाता है। इस तरह उन दोनों का जीवन पूर्णतः आधुनिकता और आध्यात्म का संगम बन के व्यतीत हो रहा है। प्रकृति की गोद में रहकर उसने अब काफ़ी आध्यात्मिक उन्नति कर ली है। जब समय मिलता है तो भगवान की कथा भी वह कह लेता है। उसने घर पर रह कर ही ध्यान, योग, ज्योतिष इत्यादि में सिद्धि प्राप्त कर ली है।
स्नेहू अब पचास पार का हो चुका है। उसके माँ बाप अब इस दुनिया में नहीं हैं। दोनों बच्चों की उसने शादी कर दी है। अब सिर्फ़ स्नेहू और रीता ही गाँव में रहते हैं। दोनों बच्चे शहर में व्यवस्थित हो कर रहने लगे हैं। स्नेहू ने अब शहर की नौकरी छोड़ दी है। अब उसने कथा वाचक का काम शुरू कर दिया है। जो सिर्फ़ अपनी आध्यात्मिक उन्नति और सत्संगति के लिए ही कथा वाचन करता है। रीता ने ट्यूशन देना भी छोड़ दिया है। अब वह अपने पति की सेवा में ही लगी रहती है। दोनों के गुज़र-बसर के लिए उनके अपने खेत हैं और थोड़ा बहुत कथा वाचन से प्रसादस्वरूप मिल जाता है। ज्योतिष विद्या में भी उसे ज्ञान है। लोगों की भलाई के लिए वह इस विद्या को काम में ले लेता है।
अब स्नेहू, बाबा स्नेहमल बन चुका है। गुरू प्रेमलदास ने उसे गुरू दीक्षा दी है। गुरू से उसे कई सिद्धियाँ प्राप्त हो गयी हैं। लेकिन अभिमान उसे लेशमात्र को भी नहीं है। वह इन सिद्धियों का उपयोग लोगों की भलाई के लिए करता है। गुरू प्रेमलदास को ऐसे ही स्नेहमल ने अपना गुरू नहीं बना लिया। पूरे बीस साल जाँच परखने के बाद ही इस शिष्य ने बाबा प्रेमलदास को अपना गुरू बनाया है। बाबा प्रेमल दास ने भी रामकृष्ण परमहंस की ही तरह अपने शिष्य नरेंद्र,स्नेहमल, के लिए स्वयं को उसे पूरा परख लेने का समय दिया। स्वयं प्रेमलदास ने भी स्नेहमल को परखने के बाद ही उसके लिए गुरूदीक्षा दी है। उसके सरल स्वभाव को महसूस कर और जौहरी की तरह उसे पारखी नज़रों से पहचान लिया कि यही है जो विवेकानंद की तरह इस दुनिया में आमूल-चूल सुधार ला सकता है। इसलिए प्रेमल दास ने भी मन ही मन उसे सभी प्रकार से जाँच परखने के बाद ही अपना शिष्य बनाया।
हुआ ऐसा कि एक दिन स्नेहू अपने खेत पर काम कर रहा था कि अचानक उसने एक ख़रगोश के बच्चे की दुःख भरी आवाज़ सुनी। जहाँ से आवाज़ आ रही थी वहाँ जाकर देखा कि एक जरक ने उस बच्चे को दबा रखा है। स्नेहू इस हृदय विदारक दृश्य को देख कर दुखी हो गया। वह तुरंत ही अपनी जान की परवाह किए बग़ैर जरक से भिड़ गया। जरक वहाँ से भाग गया। इस तरह जरक से उसने उस ख़रगोश के बच्चे को तो बचा लिया पर ख़ुद घायल हो गया।
अँधेरा हो आया था। घायल अवस्था में उसे अपना होश नहीं था वह तो उस बच्चे की चिंता में ही चिंतित था। गिरते-पड़ते उस बच्चे को उसने अपने हाथों से पानी पिलाया। वहीं उसने अपने खेत में बनी कोठरी में, अपने ओढ़े हुए कंबल को धरती पर बिछाकर उसमें उस बच्चे को लपेटकर सुला दिया। रीता को इस सब घटना के बारे में सूचना भिजवा कर बुलावा भेज दिया। रीता उस ख़रगोश के बच्चे तथा अपने पति की मरहम पट्टी के लिए कुछ दवाई तथा खाना ले कर खेत पर आ गयी। उसने उन दोनों की सेवा सुश्रुषा बड़ी लगन से की। फिर घर जाकर स्वयं दोनों के लिए वह बिस्तर ले आई। वे दोनों वहीं ख़रगोश के बच्चे के पास रात भर रहे और अगले दिन जब वह बच्चा सही हो गया। तब उन्होंने उसे पास ही बनी बिल में उसकी माँ के पास छोड़ दिया।
इस सारी घटना को एक साधु ने देखा और अच्छा महसूस किया। अगले दिन वह साधु स्नेहू के घर पहुँच गया। वह साधु कोई और नहीं बल्कि स्वयं गुरू प्रेमल दास थे। उनको देख कर स्नेहू की आँखों से ख़ुशी और पश्चाताप के आँसू टपकने लगे और उनके चरणों में गिरकर अपनी करनी पर माफ़ी माँगी। गुरूजी ने उसे उठाते हुए कहा कि तुम्हारी जगह मैं होता तो मैं भी यही करता। बिना परखे ना तो गुरू को शिष्य और ना ही शिष्य को गुरू बनाना चाहिए।
साधु स्नेहू के जीवों के प्रति प्रेम और सेवा को देखकर उसका क़ायल हो गया था। स्नेहू ने जब साधु से पूछा कि तुम्हें कैसे पता चला तो उस साधु ने कहा कि मैं वहीं होकर गुज़र रहा था। जब तुम उस जरक से लड़ रहे थे, घायल हुए थे और पूरी रात दोनों पति-पत्नी सेवा में लगे रहे आदि घटित हुई घटनाओं के समय मैं वहीं था। मैं तुम्हारी सहायता करने आगे बढ़ा ही था कि तभी तुम अपनी बहादुरी से उस जरक को वहाँ से भाग चुके थे। मैं फिर तुम्हारे प्रति उत्सुक हो गया और पूरी घटना को देखने के लिए वहीं रुका रहा।
”फिर रात को कहाँ थे आप?” स्नेहू ने चिंतित होकर पूछा।
”चिंता मत करो मैं वापस तुम्हारे गाँव के पास आ गया हूँ। मुझे तुमसे मिलने का मन हो रहा था। तुम मुझे मिले भी तो जीव सेवा करते हुए। मैं तो तुम्हारा मुरीद हो गया कल ही तुम्हारे गाँव के बाहर मैंने कुटिया बनाई है। अब रोज़ आया करना, स्नेहू! तुझे बहुत से काम करने हैं मेरे साथ भी और मेरे बाद भी,” साधु ने प्रसन्नचित्त होकर कहा।
“फिर सुबह आकर मैंने तुम दोनों को ख़रगोश के बच्चे को उसके बिल में पहुँचाते हुए भी देखा। इस तरह मैं तुमसे बहुत प्रभावित हूँ,” साधु ने निश्चिंत होकर कहा।
इस तरह परस्पर अच्छी-ख़ासी परीक्षा के बाद प्रेमल दास ने स्नेहू को शिष्य और स्नेहू ने प्रेमल दास को अपना गुरू बना लिया। इस तरह प्रेमलदास से गुरूदीक्षा लेने के बाद अंततः स्नेहू 'बाबा स्नेहमल' बन गया।
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