प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 19

सर्दियों के दिन थे, अँधेरा गहराया हुआ था। स्नेहमल एक वीरान जगह में होकर गुज़र रहा था कि अचानक उसे किसी से ठोकर लगी और गिर पड़ा। वह जब नीचे की ओर निगाह डाली तो देखा कि जर्जर, फ़टे पुराने कपड़े पहना हुआ, ठंड से काँपता हुआ एक कमज़ोर व्यक्ति रास्ते में पड़ा हुआ था। वह निढाल पड़ा था और उसका ठंड से ख़ून जमा हुआ सा लग रहा था। वह बेहोशी और बदहवास की हालत में था। ऐसा लगा मानो वह बहुत सदमे में है। होश आते आते फिर बेहोशी की हालत में चला जाता। स्नेहमल के हाथ लगाते ही वह डर के मारे सिमिट कर रह गया जैसे कोई उसे मार देने वाला हो। यह सब प्रतिक्रियाएँ उस व्यक्ति की बेहोशी की हालत में ही हो रहीं थीं। 

स्नेहमल ने उसे अपनी बाँहों का सहारा दिया तभी स्नेहमल को उस व्यक्ति की पीठ पर पिटाई के निशान नज़र आए। उसकी पीठ पर जगह जगह ऐसे नील के निशान पड़े हुए थे जैसे मानो किसी ने बेल्ट और पटों से पीठ पर मारा हो। डर और ठंड के मारे उसके शरीर के रोंगटे खड़े हुए थे। स्नेहमल ने अपना एक कम्बल झोले से निकला और उसे ओढ़ा दिया। अभी उस व्यक्ति को होश नहीं आया था। उसने उस व्यक्ति को पास ही स्थित एक धर्मशाला में लिटा दिया और उस व्यक्ति के शरीर को तपन देने के लिए अलाव का इंतज़ाम किया। जैसे-जैसे उसके शरीर को तपन मिलना शुरू हुआ तो उसे होश भी आने लगा। अब अँधेरा और ज़्यादा हो गया था। अँधेरी कृष्ण पक्ष की रात थी। उन दोनों के पास वहीं उसी धर्मशाला में रात बिताने के अलावा और कोई चारा नहीं था। 

जैसे ही वह होश में आया तो स्नेहमल को देख कर एकदम सकपकया और दया की भीख माँगने लगा, “मुझे अब मत मारो, तुम सब जो कहोगे मैं वही करूँगा। चाहे मुझे अपनी ज़मीन ही क्यों न गिरवी रखनी पड़े पर मैं अपने बापू का मृत्युभोज ज़रूर दूँगा। ब्राह्मणों को मुँह माँगी दक्षिणा भी दूँगा। मुझे बिरादरी से अलग मत करो। मैं ग़रीब ब्राह्मण हूँ। मेरे बच्चे भूखे मर जाएँगे। मेरे बड़े बेटे को माफ़ कर दो।”. . . कहते कहते वह व्यक्ति फिर से अचेत हो गया। 

स्नेहमल ने अलाव की आग को तेज़ किया और तुरंत ही अपने झोले से पानी की बोतल निकाल कर उसके मुँह पर पानी के छींटे मारे। उस व्यक्ति को फिर से होश आ गया . . . होश आते ही फिर से स्नेहमल के सामने गिड़गिड़ाने लगा, “मुझे माफ़ कर दो . . . मुझे बिरादरी से अलग मत करो . . . मुझे मत मारो . . .”

स्नेहमल ने उसे शांत कराया और कहा, “मैं राहगीर हूँ। तुम मुझसे मत डरो। मैं तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँचाऊँगा।”

ऐसा कहते हुए स्नेहमल ने उसके सिर पर प्रेम से हाथ फिराया और उसे साहस दिया। धीरे-धीरे उसके शरीर का कम्पन सही होने लगा और उसकी आँखों में निडरता की चमक आने लगी। इस तरह से स्नेहमल का स्नेह और अलाव का ताप उसे रास आने लगा। वह अब धीरे-धीरे बात करने की स्थिति में भी आ रहा था। 

स्नेहमल ने उससे उसके इस तरह भयभीत होने का कारण पूछा। पहले तो वह व्यक्ति थोड़ा सहमा लेकिन फिर स्नेहमल के द्वारा विश्वास दिलाने के बाद उसने आपबीती बताना प्रारम्भ किया:

“मैं बग़ल के ही गाँव में रहता हूँ। मैं बिरादरी से ब्राह्मण हूँ। मैं बहुत ही ग़रीब हूँ। कुछ दिन पहले ही मेरे पिता का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने पूरी उम्र पायी थी। जब उनकी तेरहवीं के लिए मैं बारह ब्राह्मण बुलाने गया तो कुछ अमीरज़ादों ने मुझे अपने पास बिठाया और कहा कितना बड़ा भोज कर रहा है तो मैंने जवाब में कहा कि इस बार मेरी फ़सल पानी के अभाव में सूख गई है। इसलिए मैं पूरे गाँव को भोज देने के लायक़ नहीं हूँ। मैं अपने बेटे के विवाह में पूरे गाँव का जीमना करा दूँगा। इतने में कुछ लोगों ने बातें बनाना शुरू कर दीं। कुछ लोग मेरे ख़ानदान को बुरा भला कहने लगे। मेरे कानों में कई तरह की बातें सुनाई देने लगीं; 

‘अरे ये तो जन्म से ही ऐसे ख़ानदान में पैदा हुआ है जो औरों के मृत्यु भोज में चाव से खाना खा जाते हैं पर जब अपनी बारी आती है तो ऐसे ही बहाना बना लेते हैं। इन लोगों को तो बिरादरी और समाज से ही अलग कर देना चाहिए।’

“कुछ अन्य कहने लगे, ‘इस का बाप भी ऐसा ही था उसने तो मृत्युभोज के जीमने में दूर के गाँव भी नहीं छोड़े। वह तो दूर तक भी मृत्युभोज में शामिल होने चला जाता था। वह तो अपनी से नीच बिरादरी वालों के यहाँ भी जीमने चला जाता था। ऐसे व्यक्ति के बारह ब्राह्मण में भी जीमना पाप है। हम तो उसके यहाँ जाएँगे नहीं जो जाएगा उससे हमारा वास्ता आज ही से ख़त्म समझो।’

“इतना ही नहीं वहीं चौपाल पर गाँव के पंच परमेश्वर भी बैठे हुए थे। लेकिन किसी ने भी मेरा साथ नहीं दिया। उन्होंने वहाँ इकट्ठे सभी लोगों से राय लेकर मुझ पर ही मृत्युभोज देने के लिए दवाब बनाते रहे। अंत में उन सभी लोगों ने, जिन में गाँव के गणमान्य लोग पंच आदि भी शामिल थे, यह फ़रमान सुना दिया कि मुझे मृत्युभोज देना ही पड़ेगा। अगर मृत्युभोज नहीं दिया तो मुझे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। 

“मैं भी उन लोगों की बात मानने को विवश हो गया। उनके फ़रमान को सुनकर मैं अपने घर आ गया और जब मैंने अपने घर मृत्युभोज वाली बात कही तो सभी निराश हो गए। मैंने भी घर वालों से बोल दिया कि अब समाज और पंचों की बात को हम नहीं टाल सकते सो भोज तो देना पड़ेगा चाहे ज़मीन ही क्यों न गिरवी रखनी पड़े।

“इन सब बातों को सुनकर मेरी पत्नी निराश हो गयी और वह रोने लगी। मेरा बड़ा बेटा आग बबूला हो उठा। मैंने उन लोगों को समझाया और कहा कि झगड़े से तो अच्छा है कि हम कमा कर खा लेंगे। ज़मीन गिरवी ही तो रखी जा रही है बिक तो नहीं रही। एक दिन अपना ख़ून पसीना एक करके हम उस ज़मीन को छुड़ा लेंगे। इस तरह मैं अपने घरवालों को झूठा दिलासा देने लगा। 

“इतने में गाँव का ही एक ज़मींदार जो सबसे ज़्यादा अमीर था और ‘धनराम’ उसका नाम था। धनराम हमारी ज़मीन को गिरवी रखे जाने के काग़ज़ लेकर हमारे घर आ गया और ज़मीन गिरवी रखे जाने की बात करने लगा। साथ में वह रुपये भी लेकर आया था। अब बस मेरा अँगूठा लगने की देर थी। मेरा अँगूठा लगते ही ज़मीन उस ज़मींदार के पास चली जाती और रुपये हमें मिल जाते। लेकिन इतने में ही मेरा बड़ा बेटा बोल उठा: ’हमारे दादा हमसे बहुत प्रेम करते थे। उनकी आत्मा बिना मृत्युभोज के ही शांत हो जाएगी। लेकिन हम उनकी एकमात्र निशानी ज़मीन को गिरवी नहीं रख सकते। उन्होंने अपने पूरे जीवन काल में चाहे कितने भी कष्ट सह लिए पर ज़मीन कभी गिरवी नहीं रखी। अगर तुम हमारी ईमानदारी को देखकर हमें रुपये देना चाहो तो दे दो। हम आपकी दी हुई रक़म को धीरे-धीरे चुका देंगे। इसके साथ ही हम ख़ुशी ख़ुशी भोज भी दे देंगे। पर हम अपनी ज़मीन गिरवी रख कर भोज नहीं देंगे।’

“इतना सुनते ही धनराम तुनक कर उठ खड़ा हुआ और कहने लगा: ’मैं कोई इतना बड़ा दानदाता नहीं हूँ जो अपनी ख़ून पसीने की कमाई को तुम ऐरों ग़ैरों पर लुटाता फिरूँ। मैं तो तुम्हारे भले की कह रहा था। तुम्हें जो सही लगे वही काम करो। समाज से बहिष्कृत तुम ही लोग होंगे। मेरा क्या, मेरे तो और भी कई लेनदार हैं इस गाँव में।’

“इतने में मेरे बेटे ने ताव में आकर उसे धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया और साफ़ कह दिया, ‘हमें अपनी ज़मीन का सौदा मरने मारने पर भी नहीं करना। तुझे जो करना है वह कर ले। न जाने कहाँ से आ गया हमारी ज़मीन का सौदा करने। अमीर होगा तो अपने लिए होगा। अमीर हमारे ज़मीर को कभी नहीं ख़रीद सकते।’

“इस तरह वह ज़मींदार अपमान का घूँट पीकर हमारे घर से चला गया। कुछ देर के लिए मैं अपने बेटे पर झूठमूठ का गर्म भी हुआ लेकिन फिर मैं शांत हो गया क्योंकि मेरा बेटा सही तो कह रहा था। मैं हिम्मत नहीं कर पाया वह हिम्मत करके हमें घोर विपत्ति से बचाने की कम से कम कोशिश तो कर ही रहा था। 

“लेकिन अभी विपत्ति आनी तो बाक़ी थी। उस धनराम ने गाँव के पंच पटेलों से जाकर हमारे घर पर हुई घटना को बता दिया। अब उन सब लोगों को यह बात नागवार गुज़री कि एक तुच्छ ग़रीब ने गाँव के सबसे बड़े ज़मींदार का अपमान कर दिया। उन सब ने ज़मींदार के अपमान को अपना अपमान समझा और वे सब लोग हमारे घर पर आने की तैयारी में थे कि इतने में ही हमारे पड़ोसी ने हमें गाँव वालों की चौपाल पर बन रही योजना की सूचना दे दी। वे सब मेरे बड़े बेटे को पीटने की योजना बना रहे थे। किसी अनहोनी की आशंका से मैंने चुपके से अपनी पत्नी और छोटे बच्चों को घर के पीछे के रास्ते बड़े बेटे के साथ रिश्दातेरों के यहाँ भेज दिया। 

“मवेशी और घर की रखवाली के लिए मैं घर पर ही रह गया। इतने में कुछ मुस्टण्ड जवानों ने हमारे घर पर हमला बोल दिया और मेरे बड़े बेटे के बारे में पूछने लगे। लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं और मैं चुप लगा गया। इतने में वे लोग चिढ़ गए और उन्होंने अपनी बेल्टों, पटों से मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी। मुझे तब तक मारा जब तक कि मैं बेहोश नहीं हो गया। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं। अब जाकर मुझे यहाँ होश आया है। मेरे बीवी बच्चे न जाने कहाँ किस हाल में होंगे?” कहते कहते वह रोने लगा। 

स्नेहमल ने उसे शांत करते हुए उसके पिता की तेरहवीं संपन्न हो जाने के बारे में पूछा तो उसने ना में अपना सिर हिला दिया।

“अब तुम सो जाओ। सबसे पहला काम तो तुम्हारे पिता की तेरहवीं कराना है। उसके बाद और कुछ देखेंगे। सुबह होते ही सबसे पहले तेरहवीं की व्यवस्था करनी है,”स्नेहमल ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। 

रात्रि के दो पहर उन दोनों को बतियाते हुए ही व्यतीत हो गए। इस तरह उनकी बातें ख़त्म हो जाने के बाद वे दोनों सो गए। 

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