प्रेम का पुरोधा (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )
अध्याय: 11खाना खाने के बाद दिन में स्नेहमल को लेटे-लेटे नींद आ गयी। तभी दो नौजवान उस महिला से ठाकुर के बेटे से न मिलने की कहने आए। वह महिला बिचारी उन के सामने हाथ जोड़े गुहार लगा रही थी कि मुझे तो तुम धमका दोगे लेकिन उस ठाकुर के बेटे को कैसे समझाएँगे। लेकिन वे लोग उसे धमकी देने लगे कि पिछले कुछ दिनों से तू कुछ ज़्यादा ही अगर-मगर कर रही है। इसीलिए तुझे यहाँ ला कर पटका है। अब भी अगर तूने उस ठाकुर के बेटे से मिलने की कोशिश की तो फिर से तेरी शिकायत गाँव के ठाकुर से करनी पड़ेगी। और वह ठाकुर बहुत ही रोष में है। अब की बार निश्चित रूप से वह तुझे कोठे पर पहुँचा देगा।
"न . . . न . . . न . . . ठाकुर से अब कुछ भी मत कहना। मैं ख़ुद ही कहीं दूर चली जाऊँगी। अभी कुछ दिनों की मुझे मोहलत दे दो। मैंअब तक जा चुकी होती लेकिन मेरे घर एक अनजान बाबा कुछ दिनों के लिए ठहर गया है। जिस दिन आया था उस दिन वह बेचारा बहुत ही भूखा और दुर्बल था सो मैंने उसे दो-चार दिनों के लिए अपने यहाँ ठहरा लिया है। वह तो जाने की कह रहा था। लेकिन उसकी हालत देख कर मैंने ही उससे ठहर जाने की ज़िद की थी। उसके चले जाने के बाद मैं ख़ुद ही यह गाँव छोड़कर हमेशा के लिए चली जाऊँगी। मैं वादा करती हूँ कि मैं अब उससे कभी नहीं मिलूँगी,” उसने सिसकियाँ भरते हुए कहा।
स्नेहमल को बाहर चारपाई पर लेटे लेटे नींद आ गयी थी और तब तक गहरी नींद में सोया रहा जब तक कि वह महिला शाम की चाय लेकर उसके पास नहीं आ गयी। जैसे ही चाय के लिए उसे जगाया। उसने उसे थोड़ी देर के लिए यूँ ही उसके पास बैठ जाने के लिए कहा। स्नेहमल को किसी भी बात का कुछ अंदाज़ा नहीं था। उस महिला का उतरा हुआ मुँह देख स्नेहमल ने उससे उस के उतरे हुए मुँह का कारण पूछा। वह थोड़ी देर के लिए चुप रही फिर आँखों में आँसू भरते हुए उसने कहा, “बहुत लंबी कहानी है बाबा . . . ” इतना कह कर उसने लंबी और गहरी साँस ली और फिर उसका रोना फूट पड़ा। स्नेहमल ने उसे शांत कराया और उससे कहा चिंता न कर सब ठीक हो जाएगा।
फिर वह बाबा के पास से चली गई और शाम के घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गयी। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी बनी रही। स्नेहमल रात का खाना खा रहा था तब भी उसका चेहरा उतरा हुआ था। अब स्नेहमल से रहा नहीं गया और उसने उस महिला से कहा, “मैंने तुझे अपनी बेटी कहा है तो तू मुझसे कुछ भी मत छुपा। अपना बाप जैसा ही समझ कर तू मुझको अपनी सारी व्यथा सुना दे। तेरा मन हल्का हो जाएगा।” थोड़ी देर बाद उस महिला ने हिचकियाँ भरते हुए कहना शुरू किया।
“तो फिर सुनो, बाबा! मैं जब बहुत छोटी ही थी। मुझे धुँधली सी याद है कि मेरी माँ और मैं गाँव के मेले में आए हुए थे। मेले में बहुत ज़्यादा भीड़-भाड़ थी। माँ घर की ज़रूरत की कुछ चीज़ें ख़रीदने एक दुकान पर ठहरी। बिछुड़ने के डर से मैंने पूरे मेले में माँ का हाथ कस के थामे रखा था। उस दुकान की बग़ल की दुकान पर ही गरमा-गरम जलेबियाँ सिक रहीं थीं। मैं माँ से कुछ पैसे लेकर जलेबियाँ लेने बग़ल की दुकान पर चली गयी। मैं जलेबी ख़रीद ही रही थी कि इतने में कुछ लोगों की चीखने चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं, ’भाइयो! सब दूर हट जाओ, जल्दी दूर हट जाओ, अभी सर्कस में से एक हाथी पागल हो गया है। वह सर्कस से साँकल तोड़ कर भाग निकला है। सावधान! सावधान!’
“इतना सुनते ही जनता में भगदड़ मच गयी। मेरी माँ और मैं दोनों बिछुड़ गए।
“माँ का तब से अब तक इंतज़ार बहुत किया पर सब व्यर्थ रहा। पिताजी को तो मैंने देखा नहीं। वह मेरे इस दुनिया में आने से पहले ही इस जहाँ से रुखसत हो लिए। मैं अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थी। मुझे अभी तक याद है हमारा, अपने गाँव में, बहुत बड़ा घर था। घर के आँगन में आम का पेड़ उसकी डाली पर डला हुआ मेरा झूला और खट्टी-मीठी आमी का स्वाद। कितनी मधुर याद थी वह! मेरा प्यारा बचपन, माँ का दुलार, घर का सुख, सब कुछ ख़त्म हो गया और अब इस कच्चे टूटे-फूटे मकान में आकर सिमट गयी, मेरी बदनसीब ज़िन्दगी! अब आगे और न जाने कहाँ कहाँ ले जाएगी? ज़िन्दगी!” उसने सिसकियाँ लेते हुए कहा।
उसने आगे कहना जारी रखा, “माँ से बिछुड़ने के बाद मैं ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी तो सिर पर पगड़ी पहने हुए एक अधेड़ ने मुझे गोदी में लेते हुए शांत कराया और मुझे माँ के पास ले चलने का बहाना बना कर एक ऐसी जगह ले गया, जहाँ पर मुझ जैसी कई छोटी बच्चियों का जमावड़ा था और सब की सब, किसी न किसी अपने की तलाश में थीं। कोई माँ को याद करते हुए, तो कोई पिता को, कोई अपनी बहन, तो कोई भाई को, सब की आँखों में अपनों से मिलने की आस थी जो इस मेले में उनसे अभी-अभी बिछड़ गए थे। लेकिन जमावड़े में इकट्ठे लोग जो अपने बनने का नाटक कर रहे थे वे सब के सब निष्ठुर बने उन बच्चियों की दलाली करने में मशग़ूल थे। जमावड़े में लाने से पहले जो लोग माँ-बाप से मिलाने का उन बच्चियों को आश्वासन दे रहे थे वही लोग अपनी दलाली लेकर उनकी ओर उपेक्षित भाव से एक दृष्टि डालकर निकलते बन रहे थे।
“उधर उसी मेले में ही ठाकुर और ठकुराइन भी आए हुए थे। संयोगवश वे दलाली वाली गली में मुड़ गए। वहाँ बच्चियों की दलाली होती देख उनको बड़ा दुख हुआ। वहाँ ठाकुर-ठकुराइन को ख़रीददारी के लिए छोड़ कर बहाना बनाते हुए पुलिस को सूचित करने चला गया। जब वह लौट कर आया तो ठाकुर पैसे निकालते हुए एक लड़की को ख़रीदने का नाटक कर ही रहा था कि अचानक ठकुराइन की नज़र उन बच्चियों में सबसे ज़्यादा बिलखती हुई एक बच्ची; यानी मुझ पर पड़ गयी। उसका मन मेरे मासूम और दीन चेहरे को देखकर पसीज गया। वह बच्ची उस ठकुराइन को पसंद भी आ गयी और इस तरह नाटक करते-करते हक़ीक़त में ही ठकुराइन ने दलाल को मुँह माँगी क़ीमत दिलवाकर ठाकुर के हाथों मुझे ख़रीदवा लिया ताकि मेरी ज़िन्दगी उन दरिंदे दलालों के हाथों से बच सके। तभी वहाँ पुलिस आ पहुँची। लेकिन हमसे पीछे उन बच्चियों को पुलिस के द्वारा बचाया गया या नहीं? ये मुझे मालूम नहीं क्योंकि ठाकुर व ठकुराइन मुझे वहाँ से लेकर भीड़ वाली जगह में आ गए। कहीं वे मुझे ख़रीदकर स्वयं ही दोषी सिद्ध न हो जाएँ; इसलिए वे वहाँ से चुपके से खिसक आए। बाद में मेले में भीड़-भाड़ वाली जगह पर आकर उन्होंने मुझसे मेरी माँ का नाम पूछकर ’खोया-पाया’ केंद्रों से लाउड स्पीकरों के माध्यम से मेरी माँ के नाम की आवाज़ भी लगवाई। गाँव का नाम मैं जानती नहीं थी। पूरे एक दिन उन्होंने मेरी माँ की तलाश की लेकिन उसकी माँ नहीं मिल पाई। बाद में थक-हार के वे बिचारी बच्ची यानी मुझे अपने साथ ले आए। हालाँकि शुरू में ठाकुर भी मुझे अपनी बेटी जैसा ही मानता था। लेकिन अब तो बहुत ही निष्ठुर हो गया है।
“इस तरह ठकुराइन के कहने पर ठाकुर मुझे ख़रीद कर अपने घर ले आया था। यहाँ ठकुराइन का मुझे ख़ूब लाड़-प्यार मिला। उसने मुझे मेरी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी। ठाकुर का भी मुझे पिता जैसा ही प्यार मिला। लेकिन जब ठकुराइन परलोक सिधार गयी। तभी अचानक से ठाकुर के व्यवहार में परिवर्तन आ गया। वह समझता था कि जब से मेरे इस घर में क़दम पड़े हैं तभी से उसके यहाँ कंगाली ने अपने पैर पसार लिए हैं। ऐसा वह अपने कुछ चमचों के उकसाने पर सोचने लगा।
“इस तरह ठाकुर ने अपने चमचों के बहकावे में आकर मुझे अभागिन मानकर यहाँ लाकर पटक दिया। जब से ठकुराइन मरी है तभी से मुझे दुख दे रहा है। मुझे उन चापलूसों ने ठाकुर को सलाह देकर यहाँ टूटे-फूटे मकान में मुजरा और नाच-गाना करके गाँववालों का मनोरंजन के लिए ला पटकवा दिया है। यह मुजरा करना बहुत ही गन्दा कार्य लगता है। मैं इस गंदे काम को करने से इंकार करती हूँ तो वह ठाकुर धमकी देता हुआ कहता है कि वह मुझे ऐसी जगह पहुँचा देगा जहाँ दिन और रात लोग आते-जाते रहते हैं तथा भेड़ियों की तरह मेरे पूरे शरीर को नोच नोच कर बर्बाद कर देंगे और उस जगह का नाम है, कोठा।
“कोठा तो और भी बुरी जगह है यहाँ तब भी थोड़ा चैन है और यहाँ सिर्फ़ मैं मुजरा करने वाली ही हूँ। वहाँ तो खुले आम बाज़ार की हो कर रह जाऊँगी। इसलिए मुझे ठाकुर के आगे झुकना पड़ता है। लोग रोज़-रोज़ मुजरा देखने नहीं आते। परन्तु जब भी आते हैं मुझे बुरी नज़रों से देखते हैं। इसलिए मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है। दुःख होता है सो अलग। अब मैं यहाँ से आज़ाद हो जाना चाहती हूँ। मैं एक शान्ति की ज़िन्दगी जीना चाहती हूँ। मेरा भी अपना घर हो, परिवार हो, बच्चे हों और इन सब से बढ़ कर इज़्ज़त हो, सम्मान हो।
“ठाकुर के चमचों ने ठाकुर का दिमाग़ दारू पिला-पिला कर बिल्कुल विकृत कर दिया है। जो चमचे कहते हैं वही ठाकुर करता है। ठाकुर की ओट में ही ये मुझे धमकी दे जाते हैं। ठाकुर एक बार को इनसे कहे या न कहे लेकिन ये अपने मन से ही धमकी देने लग जाते हैं। मुझे लगता है इन चमचों की नज़र ठाकुर की सम्पत्ति पर लगी हुई है। एक मात्र संतान को ये चमचे हटाकर उस ठाकुर की सम्पत्ति को हथियाना चाहते हैं। पहले मैं हवेली में रहती थी तो इनकी दाल कम गल रही थी। कहीं न कहीं उनकी साज़िश में मैं एक अवरोध बनी हुई थी। इसलिए ठाकुर को अपनी बातों में लेकर और उसके मुँह से मुझे हवेली छोड़ कर चले जाने की कहलवाकर ठाकुर के चमचे ही मुझे यहाँ पटक गए हैं। भगवान ठाकुर के एक मात्र बेटे को सलामत रखे,” उसने लगभग भय से कँपते हुए कहा।
“आज इनकी धमकी से मुझे ऐसा लगा कि कहीं ठाकुर से कहलवाकर ये चमचे मुझे कोठे पर ना पहुँचावा देवें। इसलिए मेरा चेहरा उतरा हुआ है,” इतना कहते ही वह महिला ठाकुर के बेटे की सलामती की चिंता और अपनी माँ को याद करते हुए रो पड़ी।
“तू चिंता न कर बेटी अब, जब तक तेरा दुःख दूर नहीं हो जाता मैं कहीं नहीं जा रहा चाहे मुझे ठाकुर व उसके चमचों से ही पंगा क्यूँ न लेना पड़े?” स्नेहमल ने दुखी होते हुए दृढ़ निश्चय के साथ कहा।
<< पीछे : अध्याय: 10 आगे : अध्याय: 12 >>विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
- कविता
-
- अगर इंसान छिद्रान्वेषी न होता
- अगर हृदय हो जाये अवधूत
- अन्नदाता यूँ ही भाग्यविधाता . . .
- अस्त होता सूरज
- आज के ज़माने में
- आज तक किसका किस के बिना काम बिगड़ा है?
- आज सुना है मातृ दिवस है
- आवारा बादल
- कभी कभी जब मन उदास हो जाता है
- कभी कभी थकी-माँदी ज़िन्दगी
- कविता मेरे लिए ज़्यादा कुछ नहीं
- काश!आदर्श यथार्थ बन पाता
- कौन कहता है . . .
- चेहरे तो बयां कर ही जाया करते हैं
- जब आप किसी समस्या में हो . . .
- जब किसी की बुराई
- जलती हुई लौ
- जहाँ दिल से चाह हो जाती है
- जीवन एक प्रकाश पुंज है
- जेठ मास की गर्माहट
- तथाकथित बुद्धिमान प्राणी
- तेरे दिल को अपना आशियाना बनाना है
- तेरे बिना मेरी ज़िन्दगी
- दिनचर्या
- दुःख
- देखो सखी बसंत आया
- पिता
- प्रकृति
- बंधन दोस्ती का
- बचपन की यादें
- भय
- मन करता है फिर से
- मरने के बाद . . .
- मृत्यु
- मैं यूँ ही नहीं आ पड़ा हूँ
- मौसम की तरह जीवन भी
- युवाओं का राष्ट्र के प्रति प्रेम
- ये जो पहली बारिश है
- ये शहर अब कुत्तों का हो गया है
- रक्षक
- रह रह कर मुझे
- रहमत तो मुझे ख़ुदा की भी नहीं चाहिए
- रूह को आज़ाद पंछी बन प्रेम गगन में उड़ना है
- वो सतरंगी पल
- सारा शहर सो रहा है
- सिर्फ़ देता है साथ संगदिल
- सूरज की लालिमा
- स्मृति
- क़िस्मत की लकीरों ने
- ज़िंदगानी का सार यही है
- लघुकथा
- कहानी
- सामाजिक आलेख
- विडियो
-
- ऑडियो
-