प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 10

गाँव मेंं प्रवेश करते ही उसे लोग आते–जाते दिखने लगे। सभी लोग अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थे। कुछ अपनी मवेशियों को चारा डाल रहे थे, कुछ मवेशियों का दूध दुहने मेंं व्यस्त थे, कुछ अपने नित्य कर्मों मेंं व्यस्त थे, कुछ महिलाएँ अपने घरों को झाड़ने-बुहारने मेंं व्यस्त थीं। इस तरह सभी लोग भोर संबंधी सभी कार्यों में मशग़ूल थे। इसलिए किसी ने भी उसकी ओर कोई ध्यान नहींं दिया। रात भर से उसने कुछ खाया पिया न था। उसे बड़े ज़ोर की प्यास लगी थी। 

उसके होंठ मारे प्यास के सूखे जा रहे थे। उसने एक घर से पानी माँगा। लेकिन उस महिला ने यह कहते हुए दरवाज़ा बंद कर लिया, “न जाने सुबह-सुबह कहाँ से आ जाते हैं भिखारी कहीं के।” वह आगे बढ़ गया और फिर अगले घर से पानी माँगा तो उस घर की महिला ने भी अटपटा सा जवाब देकर अपने घरेलू कामों मेंं व्यस्त रही। इस तरह वह पानी माँगता-माँगता उस गली से पार हो गया और गाँव के दूसरे नुक्कड़ पर जा पहुँचा पर किसी ने उसे पानी नहींं पिलाया। वह अपने गुरु को याद करते हुए सोच रहा था, “गुरुजी ठीक कहते थे कि मुझे बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी निभानी है। इस दुनिया मेंं मानवता मरती जा रही है और आध्यात्मिक शून्यता बढ़ती जा रही है। प्रेम विहीन यह दुनिया ऊसर भूमि की तरह हो गयी है जिसमेंं प्रेम सींच कर उर्वरा शक्ति फिर से बढ़ानी है।” इतना सोच ही रहा था कि वह बेहोशी की सी हालत मेंं एक झोंपड़ी के आगे बरगद के पेड़ के नीचे बैठ गया। तभी अचानक पान जैसा कुछ मुँह मेंं दबाये एक महिला आयी। उसे बेहोशी की हालत मेंं देख वह झट से पानी लायी तथा उसके लिए पानी पिलाया। उसके बाद उनके बीच छोटा सा वार्तालाप शुरू हुआ।

महिला ने पूछा, “कहाँ से आए हो बाबा?” 

स्नेहमल ने उत्तर दिया, “पास ही के गाँव से आया हूँ, बेटी।” 

महिला ने फिर पूछा, “जा कहाँ रहे हो?” 

स्नेहमल ने मुस्कुराते हुए कहा, “कहीं भी जहाँ लोग मेरी अहमियत समझने लगें। मुझे और मेरी इच्छा को समझें।” 

महिला में जिज्ञासा जागी, “इच्छा!! तुम्हारी क्या इच्छा है और तुम्हें लोगों को क्या समझाना है?” 

स्नेहमल ने टालते हुए कहा, “कुछ नहींं, बेटी! तू नहीं समझेगी। अच्छा मैं चला बेटी। भगवान तेरा भला करे।” 

महिला ने आदरपूर्वक कहा, “शुक्रिया कैसा, बाबा! राहगीरों को पानी पिलाना तो नेक काम है। वैसे भी नेक काम हमारे नसीब में कहाँ! तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि तुम बहुत थके हुए हो और तुमने बहुत समय से खाना भी नहींं खाया लगता। मुझे अपनी बेटी कह ही दिया है तो यहाँ आराम कर लो। फिर जब थकान मिट जाये तब चले जाना।” 

स्नेहमल ने विस्मित हुए पूछा, “'नेक काम हमारे नसीब मेंं कहाँ!’ इसका मतलब नहीं समझा, बेटी?” 

महिला ने अपनी पीड़ा बताई, “मतलब साफ़ है बाबा। मुझे इस गाँव का ठाकुर मेले में बदक़िस्मती से लेकर आया था। ठकुराइन के मरने के बाद अपने कुछ चमचों के बहकावे में आकर उसने मुझे दंभवश हवेली से निकालकर यहाँ ला पटक दिया और सभी के लिए मुजरा करने वाली नृत्यांगना बना छोड़ा है।” 

इतना सुनते ही स्नेहमल सकपका गया। सोचने लगा यहाँ से मुझे अब किसी भी तरह से बच निकलना चाहिए। लोग मुझे बदनाम कर देंगे। मेरे बच्चे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैंने इस पापिन के हाथों से पानी पी लिया। अब और ज़्यादा देर यहाँ ठहरा तो ये मुझे खाना भी खिला देगी। मेरा तो पथ ही भ्रष्ट हो जाएगा। अब मुझे यहाँ से जैसे-तैसे निकल जाना चाहिए। 

स्नेहमल को सोच मेंं डूबा देख महिला बोली, “कहाँ खो गए बाबा? चलो अंदर चलो। मैं तुम्हारे लिए खाना तैयार करती हूँ।” 

स्नेहमल की तन्द्रा टूटी, “कहीं भी तो नहींं खोया। यहीं तो हूँ। खाना, नहीं-नहीं मुझे भूख नहीं है। जब मैं दूसरे गाँव से चला था तब खा के ही चला था। सुबह-सुबह मेरा मन भी नहीं हो रहा। थकान से चेहरा ऐसा हो गया है। अच्छा तो मैं चलूँ, बेटी। मुझे पास ही के एक गाँव मेंं सत्संग मेंं शरीक होना है। अतः मुझे जाने दे, बेटी।” 

अचानक से बाबा का ऐसा व्यवहार देख वह महिला समझ गयी कि बाबा लोक लाज के डर से ऐसा कह रहे हैं जबकि थकान और भूख उनके चेहरे से साफ़ झलक रही थी। उनकी शारीरिक स्थिति से यह भी स्पष्ट हो रहा था कि वह अभी तुरंत नहीं चल सकते उन्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है। 

महिला ने भारी मन से फिर कहा, “भूख नहीं है तो खाना मत खाओ। लेकिन इस समय आप जाने की हालत में नहीं हैं। आप थोड़ा आराम कर लीजिए। फिर चले जाना। मैं यहीं पेड़ के नीचे आपके लिए चारपाई बिछा देती हूँ। मैं अंदर घर का काम कर लूँ। कोई ज़रूरत हो तो मुझे बुला लेना। 

स्नेहमल ने पुनः जाने की ज़िद की, “परेशान मत हो बेटी। मैं अब ज़्यादा देर नहींं रुक सकता। मेरा उस सत्संग में पहुँचना ज़रूरी है।” 
 
स्नेहमल का सत्संग तो बहाना था। वह तो इस स्थान को यथाशीघ्र छोड़ना चाह रहा था। उसे डर था कि कहीं उसे लोग ग़लत ना समझ बैठें।

जैसे ही महिला ज़िद करती हुई चारपाई लेने अंदर गई तभी वह वहाँ से खिसकने के लिए खड़ा हो गया और खड़ा होते ही फिर से बैठ गया। वह वास्तव मेंं ही बहुत थका हुआ था और मारे भूख के उसके शरीर मेंं कोई ऊर्जा शेष नहींं रह गयी थी। 

इतने मेंं महिला चारपाई ले आई और ज़िद करके उसे उस पर बिठा दिया। 

“दिन के ग्यारह बजने को हो आए हैं और आप मेरे यहाँ से अब खाना खा के ही जायेंगे और यहाँ तब तक रहेंगे जब तक बिल्कुल ठीक नहींं हो जाते। रहा आपका सत्संग तो पास ही मंदिर में सौभाग्य से साप्ताहिक भागवत कथा का आयोजन चल रहा है। यहाँ पूरे दिन माईक चिल्लाता रहता है। चारपाई पर लेटे-लेटे आराम से भागवत कथा सुन लेना।” महिला ने ठीक उसी तरह आदेशात्मक लहज़े मेंं स्नेहमल से कहा जैसे कोई बेटी अपने बीमार पिता से कहती है। 

बेमन से स्नेहमल चारपाई पर लेट गया और अपराध बोध महसूस करता रहा। थोड़ी देर मेंं ही पास मंदिर के माईक से आवाज़ आनी शुरू हो गयी। कुछ देर बाद माईक से भजन सुनाई देने लगा:

“प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो, 
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, 
चाहो तो पार करो। 
एक लोहा पूजा में राखत, 
एक घर बधिक परो। 
सो दुविधा पारस नहींं देखत, 
कंचन करत खरो॥
प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो॥
प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो, 
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, 
चाहो तो पार करो। 
एक नदिया एक नाल कहावत, 
मैलो नीर भरो। 
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, 
सुरसरी नाम परो॥
प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो॥
प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो, 
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, 
चाहो तो पार करो। 
एक माया एक ब्रह्म कहावत, 
सुर श्याम झगरो। 
अब की बेर मुझे पार उतारो, 
नहीं पन जात तरो॥
प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो॥
प्रभुजी मोरे अवगुण चित ना धरो, 
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, 
चाहो तो पार करो।” 

स्नेहमल ने यह भजन बड़े ही ध्यान से सुना और सुनते ही उसे विवेकानंद की घटना याद आ गयी और उन्हीं की तरह आज उसका विवेक जग गया और सारी लोक चिंता को छोड़कर चारपाई पर लेटे रहा। 

उसे अपनी सोच पर बड़ा ही पछतावा हुआ। वह मन ही मन बहुत दुखी हुआ और अपने गुरु से मन ही मन अपने तुच्छ व्यहवार के लिए माफ़ी माँगने लगा। इतने मेंं वह महिला उसके लिए खाना ले आयी और फिर उसने सम्पूर्ण श्रद्धा से बिना किसी परवाह के प्रेमपूर्वक खाना खाया। 

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