प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 20

पौ फटते ही स्नेहमल उस व्यक्ति को लेकर उस गाँव में पहुँचा। हालाँकि वह व्यक्ति इतना डरा और सहमा हुआ था कि वह सुबह बमुश्किल ही गाँव चलने को राज़ी हो पाया था। लेकिन स्नेहमल उसे साहस देते हुए यहाँ लाया था। अभी गाँव उनींदा ही था कि इतने में ही स्नेहमल के साथ वह व्यक्ति थोड़ी हिम्मत जुटाकर अपने घर में प्रवेश कर गया। अब वह तेरहवीं की तैयारी शुरू करने लगा। इतने में उजाला होते ही उसी के मोहल्ले में, उसके घर में उसे देख लोगों में सुगबुगाहट शुरू हो गयी। उसका मोहल्ला गाँव के शुरू में ही पड़ता था। बाक़ी गाँव बाद में पड़ता था। पंच पटेल ज़मींदार आदि लोगों के घर उसके घर से दूर बीच गाँव में पड़ते थे। सबसे ज़्यादा इन सभी लोगों में वही धनराम नाम का ज़मींदार चिढ़ा बैठा था और इस गाँव में उसी की चलती थी। इसलिए उस ने उसके पड़ोसियों में से एक को पैसे का लालच दे रखा था और कह रखा था कि वैसे तो वह व्यक्ति कभी आएगा नहीं और आ भी जाए तो उसे तुरंत सूचित किया जाए। इसलिए उन सब लोगों को विशेषकर उस ज़मींदार को कोई चिंता न थी। इतनी पिटाई के बाद वह व्यक्ति कभी वापस नहीं लौटेगा और लौट भी आया तो पड़ोसी उनको ख़बर कर ही देगा। यह सोच कर वे सब निश्चिंत थे। 

यही हुआ। कहते हैं न कि विपरीत समय आने पर अपने अपनों के ही दुश्मन हो जाते हैं। उसी के मोहल्ले वालों में से वही पड़ोसी जो उसका सबसे ज़्यादा घनिष्ट था और पहले उसकी सहायता भी कर चुका था। लेकिन वही पड़ोसी इस बार पैसों के लालच में आ गया। उसने बीच गाँव में जाकर, धनराम और उसके लोगों को उसके आने की सूचना दे दी। उस व्यक्ति की आने की ख़बर सुनते ही वे लोग उसके घर पर भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़े। 

उन लोगों के साथ पूरा गाँव था। उस जमावड़े ने उस बेचारे ग़रीब के टूटे फूटे घर को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। 

गाँववाले एक सुर में कहने लगे, “अबकी बार ये बचना नहीं चाहिए। ये हमारे समाज में रखने लायक़ नहीं है। इसने सामाज की नाक काटी है। इसने अपनी औलाद को सिर चढ़ा रखा है। पर वह तो मूर्ख और नासमझ था लेकिन ये तो समझदार था फिर भी इसकी मति मारी गयी थी। इसके साथ आये इस हिमायती बाबा को भी यम के दर्शन करा दो। मारो . . . मारो . . . इनको तब तक मारो जब तक कि इनके शरीर से अतिंम साँस न निकल जाए।”

स्नेहमल को भी उस व्यक्ति के साथ उन लोगों ने तब तक पीटा जब तक कि वे दोनों बेहोश होकर ज़मीन पर न गिर गए। उन्हें मृत समझ गाँव के लोगों ने पुलिस के डर से पास ही की पहाड़ी से बहती हुई नदी में उन्हें फेंक दिया। 

अब वे लोग निश्चिन्त होकर प्रसन्न चित्त से गाँव की ओर लौट आये। वे ऐसे हाव-भाव दिखा रहे थे मानो किसी युद्ध में फ़तेह हासिल कर लौट रहे हों। सभी लोग घमंड में चकनाचूर थे; विशेषकर वह ज़मींदार, धनराम। उस धनराम का गाँव वालों ने गर्मजोशी से स्वागत किया। 

पूरा गाँव ख़ुश था; दुखी थे तो सिर्फ़ उसी व्यक्ति के मोहल्ले के लोग। लेकिन अब दुख मनाने से क्या फ़ायदा जब घर में ही विभीषण पैदा हो जाएँ। अगर उस व्यक्ति का पड़ोसी उसकी ख़बर उन अमीरों तक नहीं पहुँचाता तो वे दोनों तेरहवीं से संबंधित सभी क्रियाकर्म करके उजाला होने से पहले ही गाँव से चले जाते। गाँव वालों को कानों-कान ख़बर भी नहीं लगती और जब ख़बर उन लोगों को मिलती तब तक उन गाँव वालों का क्रोध भी शांत हो जाता और फिर रहे बचों को स्नेहमल किसी भी तरह से समझा-बुझा कर शांत भी कर लेता। इसीलिए तो वे भोर होने से पहले ही आ गए थे। लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था। 

आज स्नेहमल और उस व्यक्ति को नदी में फेंके हुए पूरा साल बीतने को है। जब से गाँव के अमीर और गणमान्य लोगों के इशारे पर उस ग़रीब के साथ जो हुआ था तब से लेकर आज तक इस गाँव में कोई भी मृत्युभोज की परंपरा के ख़िलाफ़ नहीं जा पाया है। चाहे वह कितना ही ग़रीब क्यों न हो। उस घटना से सब जगह बहुत ज़्यादा ख़ौफ़ फैल गया था। लेकिन अबकी बार इस गाँव के आसपास के इलाक़े में बारिश नहीं हुई है और न ही नदी में पानी आया है। आसपास का पूरा इलाक़ा अकाल की चपेट में है। कुछ अमीरज़ादों को छोड़कर बाक़ी सभी लोगों के पास खाने के लिए अनाज तो दूर मवेशियों के लिए चारा भी नहीं है। 

लेकिन इन सब अमीरों में अब आपस में ज़्यादा बनती नहीं है। इसलिए ग़रीबों को क़र्ज़ देने की सभी में होड़ मची हुई है। ताकि आने वाले समय के लिए उन्हें इस मजबूर वक़्त में कुछ बंधुआ मज़दूर रोटी के लालच में आसानी से मिल सकें जो आजीवन उनकी सेवा कर सकें। क्योंकि यह समय ऐसा था जब ग़रीब अपनी व अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। 

इसी अकाल के दौरान उस धनराम के घर कुछ भी शेष नहीं बचा था जो कुछ समय पहले इस गाँव में सबसे बड़ा ज़मींदार और अमीर हुआ करता था। आज उसके हालात ये थे कि उसके टुकड़ों पर पलने वाले लोग उससे कहीं ज़्यादा बेहतर स्थिति में थे। 

हुआ कुछ यूँ कि जब यह धनराम अपने साथियों के साथ उन दोनों लोगों को नदीं में फेंककर लौट रहा था तो अचानक से उसके घर में आग लग गयी। उसका सब कुछ जलकर नष्ट हो गया। धन-दौलत, अनाज कुछ भी नहीं बचा। 

ऊपर से ये अकाल तो सभी को परेशान कर ही रहा है। कुछ समय पहले जो लोग उस धनराम पर आश्रित हुआ करते थे वही आज उसे अपने दरवाज़े पर कोई चढ़ने भी नहीं देता है। साल भर पहले जिसका पूरे गाँव में सिक्का चलता था वही आज पूरे परिवार सहित अपने खेत में टूटी फूटी कुटिया बना कर रह रहा है। जो कल तक छप्पन भोग जैसा भोजन करता था आज उसके घर चूहा भी ग्यारस कर रहे हैं। 

एक शाम अचानक उस धनराम की माँ भूख से तड़प तड़प के दम तोड़ दिया। धनराम ने जैसे तैसे उसका अंतिम संस्कार किया। धनराम की माँ वयोवृद्ध होकर परलोक सिधारी है ऐसा सोचकर गाँव के अन्य गणमान्य लोग उसके घर पहुँचे और उसे झूठमूठ की सांत्वना देते हुए मृत्युभोज के मुख्य बिंदु पर आ गए। शोक सांत्वना की बातों के बीच मृत्युभोज शब्द को सुनते ही उसका मुँह लटक गया। मृत्युभोज शब्द उसे कबाब की हड्डी की तरह नज़र आया जिसे न तो वह निगल सकता था और न ही उगल सकता था। क्योंकि वह उनके सामने मृत्युभोज की स्पष्टतः मना भी नहीं कर सकता था और अपनी इस दयनीय दशा में हाँ भी नहीं कर सकता था। वह शर्म के मारे पानी पानी हो रहा था। उसने जैसे-तैसे हिम्मत करके उनमें से अपने कुछ बेहद ख़ास लोगों को बाहर ले जाकर उनके कान में अपनी सारी स्थिति बयाँ कर दी। वहाँ पर तो उन लोगों ने उसकी मृत्युभोज न दे पाने की उसकी असमर्थता में अपनी दिखावटी सहमति दे दी। लेकिन जब वे लोग अंदर आये और अन्य बैठे हुए लोगों ने जब बार-बार उसकी चिंता का कारण पूछा तो उसने उन लोगों को जैसे ही अपनी असमर्थता बताई तो सबसे पहले उन्हीं लोगों ने उसका विरोध किया। 

वहाँ बैठे हुए कुछ गणमान्य लोग अचानक से उखड़ गए और कहने लगे, “वाह, वाह धनराम! हाथी के दाँत दिखाने के लिए कुछ हैं और खाने के कुछ। हमारी समाज की परंपरा का पता होते हुए भी मृत्युभोज देने से मना कर रहे हो। तुम से भी बुरे हालातों में लोगों ने अपने स्वर्गीय प्रियजनों का मृत्युभोज दिया है। इस मृत्युभोज को देने से मना करने पर और तुम्हारा अपमान करने के कारण ही हमने उस ग़रीब और उसका साथ देने वाले उस बाबा को स्वर्ग पहुँचा दिया था। मृत्युभोज तो हमारे समाज की अवश्यम्भावी परम्परा है। मृत्युभोज तो तुम्हें हर हाल में देना पड़ेगा।”

उन्हीं में से कुछ अन्य लोगों ने धनराम को हिम्मत देते हुए सुझाव दिया कि वह अपने बढ़िया से उपजाऊ खेत को उनमें से किसी के लिए गिरवी रख दे और इस तरह अपनी बूढ़ी माँ का मृत्युभोज दे दे। इससे बूढ़ी माँ की आत्मा को शान्ति भी मिलेगी और तुम्हारी समाज में इज़्ज़त भी बनी रहेगी। जो लोग उसके हितेषी थे और बाहर कह रहे थे कि हम उन लोगों को मना लेंगे कि धनराम अकाल के कारण मृत्युभोज नहीं दे पाएगा, उन्होंने भी खेत को गिरवी रखे जाने के सुझाव में अपनी सहमति दे दी और धनराम अचंभित होकर उनके मुँहों को देखता ही रह गया। 

कल उसकी माँ की तेरहवीं है। रात हो चुकी है लेकिन उसको नींद नहीं आ रही है। एक साल पहले का सारे दृश्य उसकी आँखों के सामने चलचित्र की तरह एक एक कर घूम रहे हैं। एक पहर बीत चुका है दूसरा भी आधा सा निकलने को है लेकिन उसे नींद नहीं आ रही है। जैसे ही वह आँखें बंद करता है तो उस ग़रीब व्यक्ति का चेहरा उसके सामने आ जाता है। सबसे ज़्यादा दुख तो धनराम को उस व्यक्ति के साथ साथ उस अपरिचित बाबा के साथ की गई मारपीट को सोचकर हो रहा है। 

“उस बेचारे का कोई दोष नहीं था वह तो केवल उस व्यक्ति के साथ ही तो आया था। लेकिन हम सब गाँव वालों ने उसे मारकर सही नहीं किया। वह कोई तेजस्वी-तपस्वी बाबा लग रहा था जिसके साथ हमने बहुत बुरा किया। आज उसी करनी का फल हम सब भोग रहे हैं। सबसे ज़्यादा उस करनी का फल मुझे भुगतना पड़ रहा है क्योंकि मेरे कहे अनुसार ही लोगों ने उन दोनों को मारा था। जब से मैंने होश सँभाला है तब से आज तक नदी कभी नहीं सूखी और न ही कभी ऐसा अकाल पड़ा है। लेकिन आज नदीं में एक बूँद भी पानी नहीं है। एक चमत्कार यह भी है कि नदी के हमारी ओर ही सूखा है जबकि दूसरी तरफ़ तो लोगों के खेतों में फ़सलें लहलहा रही हैं क्योंकि नदी के दूसरी तरफ़ तो समय-समय पर बरसात होती रही है। मुझे तो वह ईश्वर का कोई दूत लगता था। उसके चेहरे पर दिव्य तेज था। हमने उसे बहुत मारा लेकिन वह मार को तब तक चुपचाप सहन करता रहा जब तक कि वह बेहोश नहीं हो गया। हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी। मैं कल ही गाँव वालों से उस घटना के बारे में बात करता हूँ। उन्हें राज़ी करूँगा कि हम सबको उन दोनों की तलाश करनी चाहिए। हो सकता है उन दोनों का सही ढंग से अंतिम संस्कार नहीं हो पाने के कारण हम सब ईश्वर के कोप का भाजन बन रहे हों। हो सकता है आस पास के निचान वाले क्षेत्रों में उनकी सुध ख़बर मिल जाए। अगर ऐसा हो जाए तो उनकी अस्थियों को किसी पवित्र जगह पर विसर्जन कर आएँ और इस तरह हम अपने पापों का प्रायश्चित कर पाएँ।” सोचते सोचते वह ज़मींदार भारी मन किए हुए नींद के आग़ोश में चला गया। 

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