प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 16

स्नेहमल ठाकुर के गाँव को छोड़कर दूसरे गाँव की ओर चला जा रहा था। उसका मन विचारों में डूबा हुआ था। वह सोचता हुआ जा रहा था कि जिन बच्चों को पाल-पोस कर इतना बड़ा कर दिया वही उसके सगे बच्चे आज उसे पहचान नहीं पा रहे हैं। आज उसके अपने बच्चे उसे ही दोषी ठहरा रहे थे। वह अपने आपको निरीह अकेला समझ दुखी मन से विचार मग्न होता हुआ आगे बढ़ा जा रहा था कि अचानक उसके पैर को ठोकर लगी और जब उसने नीचे देखा तो उसे एक दीन हीन व्यक्ति नीचे पड़ा कराहता हुआ दिखाई दिया। 

उसने उसे अपनी बाँहों में उठा लिया। वह व्यक्ति बेहोशी की सी अवस्था में था। उस व्यक्ति के पूरे शरीर पर कोढ़ ही कोढ़ दिखाई दे रहा था। उसने उस व्यक्ति को होश में लाने के लिए अपने झोले में से पानी की बोतल निकाल कर उस के चेहरे पर पानी छिड़का तथा पानी पिलाया। वह व्यक्ति कुछ होश में आ गया। होश में आने के बाद उसने उसे एक छायादार पेड़ की छाँव में लिटा दिया। 

वहाँ से गुज़रने वाले सभी राहगीर उन दोनों से बच के निकल रहे थे। सब के चेहरों पर वीभत्सता साफ़ झलकती थी। वह हर जाने वाले को इस आशा से रोक रहा था कि कोई उस कोढ़ी व्यक्ति की सहायता कर दे और उसे पास ही के शहर में किसी कुष्ठ अस्पताल में भर्ती करा दे ताकि उसका सही इलाज हो सके। लेकिन हर वह व्यक्ति जो अपने साधन से शहर की ओर जा रहा था उन दोनों को घृणा की निगाह से देखते हुए निकले जा रहे थे। 

क़िस्मत से एक गुज़रते हुए व्यक्ति ने स्नेहमल को पहचान लिया। पहचानते ही वह उसके पैरों में गिर गया और विनती करने लगा।
राहगीर ने पूछा, “बाबा तुम यहाँ कैसे? तुम ठाकुर के यहाँ से क्यों चले आये? मुझे पहचाना!! मैं ठाकुर का सेवक हूँ। मैं तुम्हें ही लेने आया हूँ।” 

स्नेहमल ने कहा, “बहते हुए पानी और रमते हुए जोगी का कोई ठिकाना नहीं होता बेटा।” 

राहगीर ने विनय किया, “लेकिन ठाकुर, उसका बेटा, और उस बेटे की पत्नी सभी बहुत दुखी हैं। तुम लौट चलो बाबा। मैं तुम्हें ही ढूँढ़ता हुआ आ रहा हूँ। मुझे ठाकुर ने तुम्हें ढूँढ़ कर लाने को कहा है। उन सब का रो-रो कर बुरा हाल है। उनके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे।” 

स्नेहमल ने समझाते हुए कहा, “उनसे कहना कि मैं लौट कर तो नहीं जा सकता क्योंकि इस समय मैं संन्यास धर्म का पालन कर रहा हूँ। मेरा कर्तव्य सेवा धर्म का पालन करना है जिसे मैं निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। उनसे कहना कि वे सब अपने आँसुओं को पोंछ डालें। आँसू इंसान को कमज़ोर बनाते हैं। उनसे कहना कि वे अगर मुझसे स्नेह रखते हैं तो आँसुओं को पोंछ लें और ख़ुशी-ख़ुशी अपने कर्त्तव्यों का पालन करें। समय अनुकूल रहा तो उनसे फिर मुलाक़ात होगी।” 

राहगीर ने फिर पूछा, “फिर मैं उनको क्या जवाब दूँगा, बाबा?” 

स्नेहमल ने कहा, “उनसे कहना मोह को छोड़ दें और अपने अंदर प्रेम पैदा करें। प्रेम में व्यक्ति पास हो या दूर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अब तुम एक काम करो इस व्यक्ति की हालत ज़्यादा ख़राब है हम दोनों को तुम अपने साधन से पास ही के शहर में छोड़ आओ।” 

राहगीर ने उसव्यक्ति की ओर देखते हुए कहा, “बाबा ये तो वही व्यक्ति है जिसने तुम्हारी जान बचाई थी जब तुम्हें ठाकुर के चमचों ने पीट-पीट कर मरणासन्न कर दिया था। तुम्हें तब होश नहीं था। अगर यह व्यक्ति नहीं होता तो आज तुम जीवित न होते।” 

स्नेहमल ने कहा, “ऐसा है तो अब इस व्यक्ति के लिए मेरा कर्तव्य पालन और भी ज़्यादा आवश्यक हो गया। अब मुझे हर हाल में इस व्यक्ति की जान बचानी है। अब तुम जल्दी से हमें शहर छोड़ आओ।” 

इस तरह राहगीर उन दोनों को अपने साधन से शहर की ओर ले गया। शहर पहुँच कर उसे कुष्ट अस्पताल में भर्ती करा दिया। भर्ती कराने के बाद उस सेवक को स्नेहमल ठाकुर के पास चले जाने को कह दिया। ठाकुर का सेवक वहाँ से चला गया और स्वयं स्नेहमल उस कोढ़ी व्यक्ति की सेवा में लग गया। 

लगभग पंद्रह दिन स्नेहमल ने उस कोढ़ी व्यक्ति की पूरे जी-जान से सेवा की। लेकिन उसकी तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ और कुछ समय बाद उसके शरीर में से प्राण निकल गए। उस व्यक्ति का अंतिम संस्कार स्नेहमल ने ख़ुद अपने हाथों से किया। 

दुखी मन से वह शहर छोड़ कर ग्रामीण अँचल की ओर निकल पड़ा। वह शहर में ज़्यादा रुक भी नहीं सकता था क्योंकि उसे तो बचपन से ही प्रकृति से प्रेम रहा था। लेकिन आज उसे शहर छोड़ने का मन नहीं हो रहा था उसके क़दम आगे बढ़ जा रहे थे लेकिन उसका मन पीछे शहर में दफ़न उस कोढ़ी व्यक्ति की ओर ही खिंचा जा रहा था। उसे इस बात का बहुत मलाल था कि वह उस कोढ़ी व्यक्ति की जान नहीं बचा सका था। जिसने ख़ुद उसकी जान बचाई थी। 

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