प्रेम का पुरोधा

प्रेम का पुरोधा  (रचनाकार - प्रवीण कुमार शर्मा )

अध्याय: 13

पिछली रात को जैसे ही ठाकुर का बेटा उस महिला से मिलकर अपने घर पहुँचा वैसे ही उसके कमरे के बाहर दारु पीकर धुत्त पड़ा पहरेदार अचानक से सचेत हो गया। चेत होते ही उसे कमरे में से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। आवाज़ें और किसी की नहीं बल्कि उस ठाकुर के बेटे और उसके वफ़ादार नौकर के बीच होने वाले वार्तालाप से आ रहीं थीं। उन दोनों के बीच हुए वार्तालाप से वह पहरेदार सब माजरा समझ गया। वह अनुमान लगा लिया कि ठाकुर का बेटा उस मुजरे वाली के यहाँ होकर आया है और उसने चुपके से ठाकुर के बेटे की उस महिला से मिलकर आने की सूचना ठाकुर को दे दी। ठाकुर तब तो चुप रह गया। लेकिन उसने मन ही मन सुबह उस महिला को सबक़ सिखाने की ठान ली। 

सुबह होते ही वह महिला अपने घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गयी लेकिन वह बहुत ख़ुश नज़र आ रही थी। घर में आज उसकी अलग ही चहल क़दमी थी। ख़ुश हो भी क्यों नहीं? कल इतने दिन बाद उसका मनभावन उससे मिलने आया था। मिलन तो हमेशा ही सुख देने वाला होता है और विछोह हमेशा दुखद। स्नेहमल अपने नित्य कर्म से फ़ारिग़ होकर चाय पी रहा था। तभी उसकी नज़र उस महिला के खिले हुए चेहरे पर गयी और जब उसने उस महिला के खिले हुए चेहरे का कारण पूछा तो वह महिला शर्माकर अंदर चली गई। 

मन ही मन स्नेहमल ख़ुश हुआ और उस महिला के खिले चेहरे को देख वह संतुष्ट हो गया। वह अब किसी भी तरह से इस परिस्थिति को अनुकूलित करने की सोच रहा था। लेकिन उसको नहीं पता था कि पल भर में क्या से क्या होने वाला था। 

थोड़ी देर बाद चाय पीकर स्नेहमल स्नान ध्यान करने में व्यस्त हो गया और वह महिला भोजन बनाने लग गई। अचानक बाहर एक गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी में से चार पाँच लोग उतरे और सीधे घर में घुसे चले आए। स्नेहमल ने जैसे-तैसे उन्हें रोकने का प्रयास किया लेकिन वे लोग उसे धकेलते हुए आगे बढ़ गए और इस धक्का-मुक्की में स्नेहमल गिर पड़ा तथा उसके सिर में चोट लग गई। 

चोट लग जाने के कारण उसके आँखों के सामने थोड़ी देर के लिए अँधेरा छा गया। जब उसे होश आया और थोड़ा थोड़ा दिखाई देने लगा तब उसने देखा कि वे लोग उस महिला को घर से घसीटते हुए गाड़ी की ओर ले जा रहे हैं और जब उसने उन्हें रोकने का प्रयास किया तो उनमें से एक उसे भी घसीटने लगा। उस व्यक्ति स्नेहमल से पूछा, “हट बे! तू कौन लगता है इस का?” 

स्नेहमल मरी सी आवाज़ में जवाब दिया, “बाप जैसा समझ।” 

स्नेहमल के इतना कहते ही वे लोग उस महिला को छोड़कर स्नेहमल पर ताबड़तोड़ लात घूँसे और लाठियाँ बरसाने लगे। वे लोग उसको तब तक पीटते रहे जब तक कि वह बेहोश नहीं हो गया। गाँव वाले तमाशबीन होकर खड़े हुए तमाशा देख रहे थे और उस महिला की आँखों से आँसू बह रहे थे। इस प्रकार एक निर्दोष वयोवृद्ध को बेरहमी से पिटता देख गाँव वाले भी थोड़े से दुखी हो गये। उसके बाद उन दोनों को पेड़ से बाँध दिया गया और चेतावनी दे दी गई कि किसी ने भी अगर इस महिला की सहायता की तो उसका भी हश्र इस बूढ़े की तरह ही होगा। अब इतने में ही घर से छूट कर उस महिला का प्रेमी अर्थात्‌ ठाकुर का बेटा वहाँ आ गया और उस महिला पर पड़ रहे पटों को अपनी पीठ पर खाने लग जाता है।

गाँव की जनता को जब पता लगा कि यहाँ तो ठाकुर के बेटे और इस मुजरे वाले के बीच कुछ चल रहा है तो उस जनता के मन में इन सब के लिए विशेषकर उस बूढ़े के लिए कुछ देर पहले पैदा हुई सहानुभूति अचानक से घृणा में बदल गयी। जनता सोचने लगी कि यह बाबा इस मुजरे वाली और ठाकुर के बेटे को सुधारने की बजाय इन्हें ग़लत रास्ते पर भटका रहा है। यही सब सोचकर जनता का उदास चेहरा तिरस्कृत हँसी में बदल गया। 

इतने में ठाकुर अपनी गाड़ी में सवार होकर वहाँ पहुँच गया। गाड़ी से उतरते ही वह फ़रमान सुना दिया, “इनमें से किसी को भी मत बख़्शो चाहे मेरा बेटा ही क्यों न हो? यह अब मेरा बेटा कह लाने लायक़ नहीं रहा।”

अब तीनों की ही ताबड़तोड़ पिटाई होने लगी तथा वहाँ इकट्ठी जनता के चेहरे पर तीखी मुस्कान तैर रही थी। दोपहर का समय था और पास ही मंदिर में चल रही भागवत से एक भजन सुनाई दे रहा था:

“ज्योत से ज्योत जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो
राह में आए जो दीन दुखी, सबक़ो गले से लगाते चलो

जिसका न कोई संगी साथी ईश्वर है रखवाला
जो निर्धन है जो निर्बल है वह है प्रभु का प्यारा
प्यार के मोती लुटाते चलो, प्रेम की गंगा . . . 

आशा टूटी ममता रूठी छूट गया है किनारा
बंद करो मत द्वार दया का दे दो कुछ तो सहारा
दीप दया का जलाते चलो, प्रेम की गंगा . . . 
छाई है छाओं और अँधेरा भटक गई हैं दिशाएँ
मानव बन बैठा है दानव किसको व्यथा सुनाएँ
धरती को स्वर्ग बनाते चलो, प्रेम की गंगा . . . 

ज्योत से ज्योत जगाते चलो प्रेम की गंगा बहाते चलो
राह में आए जो दीन दुखी सब को गले से लगाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो . . . 

कौन है ऊँचा कौन है नीचा सब में वो ही समाया
भेद भाव के झूठे भरम में ये मानव भरमाया
धर्म ध्वजा फहराते चलो, प्रेम की गंगा . . . 
 
धीमी धीमी रिमझिम बारिश हो रही थी लेकिन ठाकुर और उसके चमचे तथा जनता किसी का भी मन इस ग़मगीन दृश्य को देखकर नहीं पिघल रहा था; सिवाय बादलों के। उन तीनों को तब तक मार पड़ती रही जब तक कि वे मरणासन्न अवस्था में नहीं पहुँच गए। फिर उन तीनों को मरा समझ ठाकुर और उसके चमचे वहाँ से चले गए। भीड़ भी तमाशा ख़त्म जान वहाँ से धीरे-धीरे खिसक ली। 

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