कृषि (का) नून
भीकम सिंह
खेत मन ही मन सोच रहा है—वह क्यों जाए? . . . जाने कहाँ है लालक़िला . . . और पता नहीं क्यों वहाँ कृषि क़ानून लौटाना है, वह उस क़ानून के लपेटे में आती फ़सलों को देखता है जिसे कृषि क़ानून परम्परागत (देसी) कहता है और गाँव बेहद ज़रूरी।
खेत को तो हाईब्रिड फ़सलों पर इतना ग़ुस्सा आता है कि वह उनकी बात समझ नहीं पाता, खेत जानता है कि ये फ़सलें बिलकुल इमोशनल नहीं हैं, परफ़ेक्ट प्रेक्टिकल है, यूज़ एंड थ्रो में विश्वास करती हैं, इनके लिए उर्वरा शक्ति एक फिजिकल डिमांड है, अपनी बायलॉजिकल नीड्स को पूरा करने के लिए ये खेत को बंजर बना देती हैं।
“. . . और मैं स्थायी प्रतिबद्धता चाहता हूँ,” खेत ने सी ओ-0238 गन्ने की उन्नत क़िस्म की पोरी को देखकर कहना चाहा . . . जो पत्तियों का मेक-अप उतारकर अपनी देह का अलौकिक सौंदर्य बिखेरने लगी है . . . दूसरी ओर हरी धोती के छोटे-छोटे टुकड़ों को समेटते पीली सरसों ने नज़रें झुका ली हैं।
ठक . . . ठक . . . ठक . . . खेत पर फिर दस्तक हुई, नेता था किसान यूनियन का।
“ट्रैक्टर-ट्राली में सब लालक़िले जाने को आपका इंतज़ार कर रहे हैं,” नेता ने बिना लाग-लपेट के कहा।
खेत को इस क़द्र ग़ुस्सा आया कि उसे सीधे डाँट कर कह दे, “मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे हाईब्रिड, तुम्हारे कृषि क़ानून, तुम्हारे लालक़िले।
सहसा खेत से पीड़ा का अनियंत्रित आवेग उठा कि आज चंद रुपयों के लिए किस क़द्र मिट गया परम्परागत (देसी) क़िस्मों से सम्बन्ध . . .? जिसे बी टी नाम की दीमक ने नून समझ कर चाट लिया।
फिर ठक . . . ठक . . . ठक।
खेत चुप हो गया . . . जैसे ज़ोर से दरवाज़ा भिड़ा लिया हो।
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