गुर्जरी
भीकम सिंह
बहुत सारे पथवारें हैं, जिनमें उपले पथे हैं। ना जाने कितने आहते हैं जिनमें बँधी गाय-भैंसे डकराती रहती हैं। गलियों-मोड़ों पर भैंसा-बुग्गी अड़ी होती है, और सड़क के किनारों पर गोबर . . . लिपाई-पथाई से बचा स्वच्छता अभियान को चुनौती देता रहता है।
गढ़ी गाँव की यह गंध उसके जीवन का अंग है। वार्ड नंबर पंद्रह की छाती पर कुंडली मारकर बैठा है यह गाँव।
इसी गाँव में उसका भी एक घर है, जिसमें दमे से खोखली उसकी माँ रहती है, जिसे तरसती हुई हालत में छोड़कर वह ग्रेटर-नोएडा में बस गया है, लेकिन परम्पराओं से जुड़े पड़ोसी उसे सँभाल रहे हैं। माँ लाठी पकड़कर चलती है, आँख से भी अच्छा नहीं दिखता।
आज माँ लाठी टेकती हुई, दोनों आँखें पोंछती हुई पड़ोसी के घर आई, उसके चेहरे पर हँसी-रुलाई का अद्भुत समन्वय था। अपने पीले-पीले दाँत दिखाकर बोली, “बेटा! कडुल्ले, कंगन और हँसली की हर पल चौकन्नी नजरों से रखवाली करनी पड़ती, वैसे भी वे चीज (आभूषण) मेरे पतले सूखे अंगों में ढीली हो गई थी, इसलिए उन्हें तो सुधीर ले गया . . . जब वो ग्रेटर-नोएडा गया . . . ये अलमुनियम का थाली कटोरा और गिलास रह गया है . . . इसे तू रख ले।”
पड़ोसी ने संतुष्ट होकर सिर हिलाया, “रहने दो माँ!”
. . . और फिर माँ उसी भूसा रखने वाली बंद सीलन भरी गन्दी कोठरी में धूल भरी पल्ली के ऊपर आकर गिर गई।
मानों वह अंतहीन आकाश की ऊँचाइयों से गिरती जा रही है—अंतहीन गहराइयों की ओर।
गढ़ी में भीड़ जमा हो गई . . . गुर्जरों की भीड़।
महँगी गाड़ियों के हॉर्न का मिला-जुला शोर निकल रहा है, बीच-बीच में चीखने और रोने के स्वर भी उभर जाते हैं। सुधीर बिना आँसुओं की आँख पोंछकर भंगिमा को थोड़ा परेशान वाली बनाकर माँ को देखता है।
माँ के चेहरे पर आशीष वाली मुस्कुराहट फैली है।
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