अहेर
दीपक शर्मा
“क्लब की लाइब्रेरी के बारे में जानना था,” शहर के सब से पुराने क्लब की खेल समिति की बैठक थी, “उस की पुस्तकों की सूची तैयार कर दी क्या?”
तीनों सदस्य वहाँ उपस्थित थे। ओंकारनाथ, क्लब की अपनी सदस्यता की दीर्घतम अवधि के आधार पर तथा दूसरे दो—शशिकिरण तथा नवल किशोर—क्लब के सदस्यों के प्रथागत वार्षिक मतदान के बूते पर।
“जी,” मैंने कहा। मेरी लाइब्रेरी क्लब की इसी खेल-समिति से सम्बद्ध थी। गुप्त सूचना के रूप में मैं जान चुका था क्लब की लाइब्रेरी का कमरा अब जिम को मिलने वाला था। और मैं पूरी तैयारी के साथ गया था।
“इस सी.डी. में लाइब्रेरी की सभी पुस्तकों की सूची है। डैसीमल क्लासिफ़िकेशन के अनुसार उनके लेखक, विषय तथा शीर्षक समेत . . .” अपने हाथ की सी.डी. मैंने मेज़ पर रखे पेपरवेट के निकट धर दी।
“बढ़िया,” ओंकार नाथ ने मुझे सौजन्य भरी अपनी उच्च वर्गीय मुस्कान दी। वह लगभग पचासी वर्ष के थे और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अन्तर्गत प्रदेश के मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए थे।
लाइब्रेरी के रजिस्ट्रों में उनका नाम सब से ज़्यादा चढ़ा था। उनके पढ़ने के शौक़ की कहानी कहता हुआ।
“इस सूची के प्रिंट-आउट क्यों नहीं तैयार करवाए? कम-से-कम तीन तो तुम्हें करवाने ही पड़ेंगे . . .” नवलकिशोर ने सी.डी. मेरी ओर खिसका दी। चालीस और पैंतालीस के बीच की आयु का नवलकिशोर एक करोड़पति का बेटा था। कस्बापुर के सर्वाधुनिक रेस्टोरेंट का कर्ता-धर्ता। साथ ही में वह रेसकोर्स के उस घोड़े का मालिक था जो पिछले तीन वर्षों से लगातार ट्रॉफ़ी जीतता रहा था।
“निश्चित रूप से तुम ख़ूब चतुर हो,” मुस्कुराहट और खिलखिलाहट के बीच की आवाज़ निकालती हुई शशिकिरण ने नवलकिशोर की ओर देखा, “तुम जानते हो इधर इस कॉन्फ़्रेंस रूम में कंप्यूटर तो है नहीं जो तुम्हारी यह सूची हम खोल कर देख पाते।”
केन्द्रीय राजस्व सेवा, आइ.आर.एस., के अंतर्गत शशिकिरण एक बड़ा दफ़्तर चला रही थी। चाहती तो इस सी.डी. के दस प्रिंट निकलवा लेती। मगर धुर सिर से उसे धौंस जमानी थी, सो जमा रही थी।
“आप को आज ही इस के प्रिंट-आउट मिल जाएँगे,” मैंने तीनों सदस्यों की ओर अपने हाथ जोड़ दिए। दीन-भाव ओढ़ते हुए। हालाँकि मैं जानता था उसके लिए मुझे क्लब-प्रबंधक के दफ़्तर वालों का वही नख़रा-तिल्ला और धौंस-धड़ल्ला सहना पड़ेगा जो इस सी.डी. को तैयार करने के समय मैं सहता रहा था।
“कितनी किताबें हैं यहाँ?” शशिकिरण के पद का दर्प उस की आवाज़ में आन उतरा।
“5215, मैम। पिछले पाँच साल से लाइब्रेरी की ख़रीद पर रोक लगी हुई है।”
“ठीक ही तो है,” शशिकिरण मुस्कुराई, “अब किताब कौन खोले? सँभाले? जब किंडल ‘टच’ मात्र से उन्हें हमारे सामने खोल-सँभाल सकता है? झकाझक?”
“और आई-पैड भी तो,” नवलकिशोर ने उसके सुर में सुर मिलाया, “बल्कि उस में किंडल से कहीं ज़्यादा लाभ हैं। किंडल से तिगुना महँगा ज़रूर है मगर किताबों और पत्रिकाओं की तस्वीरों के रंग ज्यों के त्यों सामने आते हैं और फिर वहाँ अपना निजी कंटेंट भी टाइप किया जा सकता है।”
जभी ओंकारनाथ ने अपनी जानकारी उछाली, “मगर मुझे कोई पूछे तो मैं यही कहूँगा, किंडल और आइ-पैड, दोनों ही से लैप-टौप कहीं बेहतर है। फ़ुल कंप्यूटर। और किताबों की बात करें, तो मैं यही कहूँगा, किताब का जवाब नहीं। जो आनंद और तृप्ति काग़ज़ पर छपे अक्षर देते हैं वह कोई और माध्यम नहीं दे सकता। ये ई-बुक्स तो हरगिज़ नहीं।”
“जी, सर,” मैं उत्साह से भर उठा।
“तुम यह लाइब्रेरी कब से देख रहे हो?” शशिकिरण मुझ पर लौट आयी।
“बचपन से, मै’म। मुझसे पहले मेरे पिता इस के इंचार्ज थे और मुझे मेरी अल्पावस्था ही से मेरे मातृविहीन हो जाने के कारण वह मेरे स्कूल के बाद मुझे वहीं अपने पास बुला लिया करते थे . . .”
“मै'म का मतलब तुम्हारे लाइब्रेरी के चार्ज लेने से है, तुम्हारे बचपन से नहीं,” नवलकिशोर ने मुझे टोक दिया।
“सन् 1983 में मैंने चार्ज लिया था, मै'म . . .”
“और अब तुम्हारी उम्र क्या है?”
“उनसठ वर्ष, मै'म,” शशिकिरण की उम्र भी यही थी। इधर आने से पहले मैंने जान लिया था, वह अगले साल रिटायर होने वाली है। और रिटायर्मेंट के बाद उसे एक महत्त्वपूर्ण कमीशन की अध्यक्षता मिलने वाली है। इस वर्ष के मतदान में उसे कई वोट इस सम्भावना के रहते भी मिले थे।
“मतलब? तुम उस समय कुल जमा सत्तरह साल के थे? जब तुम्हें लाइब्रेरी का चार्ज सौंप दिया गया?” शशिकिरण ज़रूर गणित में तेज़ थी, “बिना लाइब्रेरी सांइस का ए बी सी सीखे?”
“जी मै'म। मेरे पिता को उस साल एक सड़क दुर्घटना ने उठने-बैठने से लाचार कर दिया था तो मैं ही उनका काम देखने लगा, ताकि हमें उनकी पूरी तनख़्वाह और रिहाइश बराबर मिलती रहे . . .”
“मतलब?” शशिकिरण ओंकारनाथ की ओर मुड़ ली, “आप लोग ने इसे सत्तरह साल की उम्र में लाइब्रेरी का चार्ज दे डाला? बिना किसी कोर्स के?”
“यों समझो इस के पिता ‘वर्क फ़्रौम होम’ कर रहे थे। अपने बिस्तर से सब समझाते-बताते थे और फिर इसे भी तो अपने पिता की तरह लाइब्रेरी के काम की पूरी जानकारी रही थी। किताबों की, पत्रिकाओं की, आलमारियों की। लाइब्रेरी की कौन-सी किताब कहाँ रखी है और अगर वह इश्यूड है तो किसे इश्यूड है। कहने-सुनने में लाइब्रेरियन लोग ‘विलक्षण किताबों के अलक्षित रक्षक’ ऐसे ही नहीं कहलाए जाते। रक्षक तो निश्चित रूप से हैं ही। ऐसे में इनकी याददाश्त की, इनकी मेहनत की, इनके काम की अहमियत कम तो नहीं ही आँकी जा सकती . . .” ओंकारनाथ अपने स्वभाव स्वरूप उदार हो लिए।
“मतलब? लाइब्रेरी का चार्ज सँभालने के लिए सिर्फ़ याददाश्त अच्छी होनी काफ़ी है? मेहनती होना काफ़ी है? लाइब्रेरी सांइस की डिग्री ज़रूरी नहीं?” शशिकिरण उद्दंड हो ली।
“यह कौन कोई सरकारी लाइब्रेरी थी? केवल क्लब के सदस्यों ही के लिए ही तो थी। शौक़िया। जिस किसी सदस्य को अपनी मनपसंद कोई किताब या पत्रिका मँगवानी होती, वह अपना सुझाव हमारी मौजूदा कार्यकारिणी समिति के सामने रखता और आपसदारी में वह ओ.के. कर देती। यही बात स्टाफ़ पर लागू होती थी . . .”
“अब समझी,” अपने स्वर में शशिकिरण ने शिकायत भर दी, “कार्यकारिणी समिति में उस समय आप ही रहे होंगे जब इन बाप-बेटे का लाइब्रेरी वाला केस सामने आया होगा . . .”
“मोर कम्पैशन, लैस जजमेंट, मैं न्याय की धारणा से सहानुभूति को ज़्यादा ज़रूरी मानता हूँ,” ओंकारनाथ ने शशिकिरण के प्रति अपनी अप्रसन्नता प्रकट की।
“और लाइब्रेरी सांइस के दो कोर्स मैं कर चुका हूँ, मै'म। कंप्यूटर कैटेलौंगिग, मशीन स्टोरेज, माइक्रोफ़िश, माइक्रोग्रैफ़िक्स तक के बारे में सब जानता हूँ। बल्कि अपनी लाइब्रेरी के लिए अपनी हर रिपोर्ट के लिए कंप्यूटर की माँग भी रखता रहा हूँ . . .”
“लाइब्रेरी हम बंद कर रहे हैं,” अधीर हो कर नवलकिशोर ने वह घोषणा कर ही दी, जिसके लिए मुझे इस खेल समिति में मुझे बुलाया गया था।
“मगर क्यों सर, वे किताबें कहाँ जायेंगी? वे किताबें तो इस क्लब के सभी पुराने सदस्यों को बहुत प्रिय हैं . . .”
“तुम उन की चिंता न करो। अपनी चिंता करो। क्योंकि अब तुम्हें क्लब की तनख़्वाह और रिहाइश के बिना रहना होगा,” नवलकिशोर के स्वर की रुखाई बढ़ ली।
“सर,” मेरा सिर वेग से चक्कर खाने लगा और मैंने ओंकारनाथ की चिरौरी की, “ऐसा न होने दें, सर। मैं यहाँ कोई भी दूसरा काम पकड़ लूँगा और फिर आप तो जानते हैं मैं इसी क्लब के स्टाफ़ क्वार्टर में पैदा हुआ था और मैं मरना भी यहीं चाहता हूँ . . .”
अपना क्वार्टर मुझे अपनी लाइब्रेरी की किताबों ही की तरह बहुत प्यारा था। मेरे लिए उसे छोड़ना अकल्पनीय था। अच्छे ज़माने में बने आठ क्वार्टरों के सेट का वह तीसरा क्वार्टर सन् 1961 में मेरे पिता के नाम अलाट किया गया था। अपने पाँचवें साल तक अपनी माँ के साथ और उनकी मृत्योंपरांत अपने सत्तरहवें साल तक अपने पिता के पोषाहार का मैंने रसास्वादन किया था और फिर उनकी सड़क दुर्घटना के बाद उनके बिस्तर पकड़ने के दिन से लेकर उस दिन तक अपने पड़ोसियों एवं अपने सहकर्मियों के सहयोग का पूरा लाभ उठाता रहा था। अपने पिता की परिचर्या में भी और सफ़ाई-धुलाई में भी।
“चतुर, बहुत चतुर,” नवलकिशोर की आवाज़ और भी कड़ी हो ली, “मगर असंभव। एकदम असम्भव।”
“सर, और नहीं तो कम-से-कम मेरे पिता के जीवन-काल तक ही वह क्वार्टर हमारे पास रहने दीजिए . . .”
“तुम्हारे पिता अभी भी जीवित हैं?” नवलकिशोर ने अपनी ही-ही छोड़ी।
“जी, सर,” मैं आहत हुआ, “और मेरे सिवा उनका कोई दूजा है भी नहीं। मुझे सौतेली माँ न देने के चक्कर में उन्हों ने दूसरी शादी भी न की थी . . .”
“और तुम्हारा अपना परिवार? वह तो है न?” शशिकिरण ने पूछा।
“मैंने अपना परिवार बनाया ही नहीं, मै'म। पिता की देखभाल बनाए रखने के लिए शादी-ब्याह का झंझट पाला ही नहीं . . .”
“श्रवण कुमार हो?” नवलकिशोर ने व्यंग्य छोड़ा।
“मेरे पिता ही मेरे सर्वस्व हैं, सर . . .”
यह सच था। जिस दार्शनिक भाव से वह अपना वैधव्य झेलते रहे थे, उसी दार्शनिक भाव से चिरकालिक अपनी यह शारीरिक चुनौती भी झेल रहे थे। पिछले तैंतालीस वर्षों से। बिना अपना धैर्य गँवाए।
शायद इसी लाइब्रेरी की किताबों के सहारे। जिन में से अपने मनपसंद उपन्यास तथा कविता-संग्रह वह अक्सर मुझ से मँगवाया करते थे। उन्हें दोबारा-तिबारा पढ़ने हेतु। पढ़ने का शौक़ बेशक मुझे भी कम नहीं था किन्तु किसी भी कविता अथवा क़िस्से को मैं उन जैसी एकाग्रता एवं तन्मयता नहीं दे पाता।
“तुम्हारे पिता के साथ मुझे भी हमदर्दी है, माॅय बौए,” ओंकारनाथ ने मुझ पर अपनी कृपालुता बरसाने की चेष्टा की, “लेकिन अब ये नए लोग लाइब्रेरी की जगह जिम चाहते हैं तो फिर किताबों के साथ तुम्हें भी यहाँ से जाना ही पड़ेगा . . .”
“लेकिन सर,” निराशाजनक उस दृश्य-विधान में विनम्रता के अतिरिक्त मैं निराश्रय था, “आप लाइब्रेरी को ख़त्म मत करिए। उसे मोबाइल बना दीजिए . . .”
“और तुम्हें उस मोबाइल वैन का इंचार्ज? ताकि यहाँ की तनख़्वाह और रिहाइश के साथ-साथ तुम्हें अपने पिता को सैर-सपाटा कराने के लिए मुफ़्त में वैन भी मिल जाए?” नवलकिशोर ने एक क्रूर ठहाका लगाया, “तुम तो भई चतुर ही नहीं, ढीठ भी हो। बेखटके अपनी बहस जारी रखते जा रहे हो . . .”
“मैं बहस नहीं कर रहा, सर,” मैंने नवलकिशोर के सम्मुख अपनी सफ़ाई दी, “केवल निवेदन कर रहा हूँ। वे किताबें बचा ली जाएँ . . .”
“बचाएँगे अब नहीं। बस पहले डिस्काउंट पर अपने सदस्यों को पेश करेंगे और जो नहीं बिकेंगी, उन्हें किसी स्कूल या कॉलेज में डाल आएँगे. . .” शशिकिरण ने कहा।
“तुम्हारे पास सब की क़ीमत दर्ज है या नहीं?” नवलकिशोर ने पूछा।
“क्यों नहीं दर्ज होगी, सर,” मैं खीझ उठा, “जब एक-एक किताब मेरे रजिस्टर की गणना में है तो उसकी क़ीमत भी तो लेखे में रहेगी . . .”
“फिर तुम अभी तो उन किताबों की डिस्काउंटिड क़ीमत आँकने का काम कर ही सकते हो। ज़्यादा ख़स्ताहाल किताबों पर पचास प्रतिशत डिस्काउंट लगा देना और बाक़ी सब पर तीस,” शशिकिरण आदेशात्मक स्वर में बोली, “और तुम्हारी आँकी गई नयी क़ीमत की सभी पर्चियाँ बस जल्दी ही तैयार हो जानी चाहिए ताकि तुम उनकी बिक्री पर बैठ सको . . .”
“और बिक्री का दस प्रतिशत तुम्हारा रहेगा,” ओंकारनाथ ने समापक मुद्रा में घोषणा कर दी।
“मैं आपके आदेश का पूरा पालन करूँगा, मै'म,” मैंने शशिकिरण से निवेदन किया, “सभी किताबों पर उनकी डिस्काउंटिड क़ीमत की पर्चियाँ चिपका दूँगा और उन्हें बेचने की भी पूरी कोशिश करूँगा। किन्तु साथ में आप से एक कृपा भी चाहूँगा। आप मुझे क्लब से जाने के लिए मत बोलिए, मै'म। मुझे किसी और काम में लगवा दीजिए। रसोई का ख़ानसामाँ बना दीजिए। बार का वेटर बना दीजिए। तनख़्वाह आधी कर दीजिए मगर मेरा क्वार्टर मेरे पास बना रहने दीजिए . . .”
“तुम्हारे दोनों निवेदन हम अपनी कार्यकारिणी समिति के आगे ज़रूर रखेंगे,” औंकारनाथ ने मुझे दिलासा दिया, “इस बीच तुम किताबों पर अपना काम शुरू कर दो।”
“हाँ,” शशिकिरण ने हामी भरी, “और अपनी सी.डी. के प्रिंट-आउट हमें देना मत भूलना। तुम्हारी सूची में से अपने लिए किताबें चुनने का अवसर हम सदस्यों को सब से पहले तो मिलना ही चाहिए. . . ”
“बिल्कुल,” नवलकिशोर हँसने लगा।
“जी, मै'म। जी, सर. . . ”
“तुम जा सकते हो, हरीश,” ओंकारनाथ ने मुझे अपनी विदा-मुस्कान दी। मापी और सधी हुई।
“धन्यवाद, सर। . . .”
♦ ♦
किताबों की बिक्री के बारे में मेरा अनुमान शत-प्रतिशत सही निकला। ख़रीदारों की अपर्याप्त संख्या के कारण उस की गति इतनी धीमी रही कि एक सप्ताह के अंदर ही उन्हें लाइब्रेरी वाले कमरे से उठवा कर बाहर बाथरूम वाले बरामदे में पहुँचवा दिया गया। ताकि आगामी माह उन्हें क्लब के गोदाम में कूड़े के ढेर की भाँति सहज ही फेंका जा सके। क्योंकि जिन स्कूलों और कॉलेजों के सामने उन्हें भेंट-स्वरूप देने का प्रस्ताव रखा गया था, उन सभी ने उन्हें लेने से इंकार कर दिया था। यह कह कर कि इन्हें रखने के लिए उनके पास कोई गुंजाइश नहीं थी। एक के पास यदि जगह की कमी रही थी तो दूसरे के पास आलमारियों की।
इधर क्लब के मुख्य भवन से किताबें लोप हुईं तो उधर कार्यकारिणी समिति की ओर से मुझे दो फ़रमान प्राप्त हुए।
एक में जहाँ मुझे क्लब में वेटर का काम करने की अनुमति प्रदान की गई थी वहीं दूसरे में मुझे पंद्रह दिन के अंदर अपने क्वार्टर को उसके नए भोगाधिकारी के हवाले करने का आदेश था।
मेरे पिता ने उन दोनों को प्राणदंड के रूप में लिया।
पहले फ़रमान से उनके प्राण ख़ुश्क हुए तो दूसरे से निकल ही गए।
क्लब का परिसर छोड़ने में फिर मैंने देर नहीं लगाई।
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