हम कैसे पिता हैं? मूल प्रश्न यही है . . .

 

प्रिय मित्रो,

आज का सम्पादकीय लिखते हुए मेरे भाव, शब्द और संवेदनाएँ—उलझे हुए हैं—कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहा। रह-रह कर एक ही प्रश्न मन को उद्वेलित कर रहा है। हम किस काल खण्ड में जी रहे हैं? 

पिछली सदी के आरम्भ से ही इस सदी के घटनाक्रम की नींव रखी गई थी। लगता है कि जैसे-जैसे विज्ञान ने उन्नति की, उतना ही मानव में मानवता का पतन होता गया। विज्ञान ने एक ओर मानव के जीवन को सुगम बनाने के लिए उपकरणों का एक भण्डार समूचे जगत को अर्पित कर दिया तो दूसरी ओर विज्ञान ने समूची मानवता के विनाश के लिए  अस्त्र-शस्त्र भी उपलब्ध करवा दिए। विमानों ने और अन्य संचार साधनों ने वैश्विक दूरियों को कम कर दिया तो दूसरी ओर अपनी सीमाओं से दूर विश्व के दूसरे कोने के देशों के साथ युद्ध करने की क्षमता भी मानव के हाथ में थमा दी। वैक्सीन से जीवाणुओं और कीटाणुओं से पैदा होने वाली व्याधियों से मनुष्य को सुरक्षा कवच प्रदान किया तो दूसरी ओर अन्वेषण के नाम पर कोराना जैसी मानव निर्मित आपदा का उपहार भी विश्व को दे दिया। 

इस सदी के आरम्भ से ही विचारकों ने विज्ञान के सदुपयोग के आधार पर विश्व-ग्राम की संकल्पना की थी। संचार के साधनों ने व्यक्ति के लिए ऐसे उपकरण बना लिए थे कि विश्व के किसी भी कोने में अपने मित्रों के साथ संपर्क साधना सम्भव हो गया था। मानव समाज वैश्विक पटल पर एकता के सूत्र में बंध रहा था। इंटरनेट के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक आदान-प्रदान देशों की राजनैतिक और कूटनीति की सीमाओं से मुक्त हो गया था। मानव का मानव से सम्पर्क वैश्विक पटल पर  संभावनाओं के आकाश की गहराइयों को नापने लगा। पिछली सदी में वैश्विक स्तर पर औपनिवेशिक दासता ने अंतिम साँस ली इत्यादि-इत्यादि। 

यह एक संसारिक यथार्थ है कि साकारत्मक ऊर्जा के साथ नकारात्मक ऊर्जा का भी संचार होता है। आणविक शक्ति एक ऐसी ही ऊर्जा जा उदाहरण है। एक ओर वैज्ञानिक सूर्य की ऊर्जा के स्रोत को मानव की मुट्ठी में थमा देना चाहते हैं तो दूसरी ओर वही आणविक ऊर्जा बम्ब के रूप में इस धरा को नष्ट करने के लिए भी सक्षम है। विमानों ने वैश्विक दूरियों को कम किया था तो दूसरी ओर दूरस्थ देशों पर बम बरसाने की क्षमता भी देशों के शासकों को थमा दी। वैज्ञानिकों ने सृष्टि को समझने के लिए रॉकेट बनाए तो सेनाओं ने उनें मिसाइल्स में परिवर्तित कर दिया। चिकित्सकों ने किटाणुओं और जीवाणुओं को समझने के लिए अनुसंधान किए तो उन्हीं वैज्ञानिकों के एक वर्ग ने वैश्विक स्तर पर मानवता कि विनाश करने के जैविक अस्त्र भी सेनाओं को दे दिए। यह सूची इसी तरह आगे ही बढ़ती जा रही है—कहना चाहता हूँ कि विनाश की सम्भावनाएँ केवल सेनाओं तक सीमित नहीं हैं। एक बात और—ऊपर मैंने लिखा है कि पिछली सदी में औपनिवेशिद दासता ने अंतिम साँस ली, नहीं, मैं ग़लत कह रहा था। इन औपनिवेशिक शक्तियों ने केवल मुखौटा बदला था अपना व्यवहार या मानसिकता नहीं।

एक और युद्ध है जो मानवीय मूल्यों का है। पिछले कुछ सप्ताहों में देख लें तो इन मूल्यों के क्षरण के दर्जनों उदाहरण विश्व के किसी भी समाज में मिल जाएँगे। यह अन्धकार की ओर यात्रा वैश्विक है, सम्पूर्ण मानवता की है। 

आज पृति-दिवस है। मैं एक पिता भी हूँ और मेरे पुत्र भी पिता हैं। इस नाते आज मैं चिंता के सागर में डूब रहा हूँ और बार-बार स्वयं से पूछ रहा हूँ कि जिस विश्व में हम लोगों ने जन्म लिया था—क्या हम उससे बेहतर जगत अपनी संतति के लिए छोड़ कर जाएँगे? आश्चर्य की बात यह है कि इसके भी दो उत्तर मिलते हैं। हमारी पीढ़ी ने अगली पीढ़ी के हाथ में अमृत और विष दोनों थमा दिए हैं। हम कैसे पिता हैं? मूल प्रश्न यही है . . .

पितृ दिवस की शुभकामनाएँ!

—सुमन कुमार घई

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