मन का रावण

15-10-2025

मन का रावण

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

लो फिर पुतला फूँककर, 
ग़ज़ब किया संहार। 
मन के रावण दुष्ट से, 
गया आदमी हार॥
 
धधक उठी लपटें बड़ी, 
गूँजे जय-जयकार। 
भीतर जो था अंधकार, 
रहा वही साकार॥
 
बाहरी रावण राख हो, 
मन का जीवित शेष। 
अभिमान, क्रोध, लोभ में, 
हर पल रहे विशेष॥
 
धर्म की बातें हों मगर, 
कर्म बने विश्वास। 
राम की मर्यादा कहाँ, 
ढूँढ़े जग में पास॥
 
सच का दीपक जल उठे, 
मन से मिटे अंधकार। 
तभी मिलेगा जीत का, 
सच्चा हमें उपहार॥

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