कलियुग का स्वयंवर

01-10-2025

कलियुग का स्वयंवर

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(सौरभ शैली में) 
 
त्रेता में धनुष उठा था जब, 
जनकपुरी थर्राई थी। 
धरा काँपी, गगन डोला, 
वीरता मुस्काई थी। 
राम ने तोड़ा जिसको छूकर, 
वह धनुष, वह गर्व पुराना—
आज उसी की जगह लिये हैं, 
फ़ॉर्म, रजिस्ट्रेशन, थाना! 
 
द्वापर का वह दृश्य अनोखा, 
जहाँ आँख मछली की थी, 
नीचे जल में देख निशाना, 
छूटती बाणों की थी। 
अर्जुन ने दिखलाई शक्ति, 
राजकुमारी हर्षाई, 
पर अब की दुलहन कहती है, 
“सरकारी में सेलेक्शन आई?” 
 
न काल था वह, न स्वर्ग था वह, 
न नरक का कोई मेला, 
यह कलियुग है, जहाँ प्रेम नहीं, 
बस कटऑफ का ही झेला! 
ना तप है, ना योग बचा है, 
ना ही धर्म के गीत, 
अब दूल्हा बनता वो ही है, 
जिसके हाथ में हो सीट! 
 
ना राम चाहिए, ना अर्जुन, 
ना शिव का कोई रूप, 
अब दूल्हा वही बनेगा जो, 
निकाले ‘Pre’ और ‘Mains’ की धूप। 
सीता की जगह अब लड़की पूछे, 
“ग्रेड-पे क्या है तुम्हारा?” 
और सास बने इंटरव्यू बोर्ड, 
पूछे–“क्या है विचार तुम्हारा?” 
 
पांडव तप में, राम मर्यादा में, 
आज का युवक बस परीक्षा में, 
ना धनुष, ना बाण, ना गदा, 
लड़ा जा रहा है पोस्टिंग की भाषा में। 
वीर नहीं अब बनते रण में, 
वीर बनते हैं टियर-वन में! 

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