ज़िंदगी का कोलाज: ‘अंतःकरण की गूँज’ 

01-04-2023

ज़िंदगी का कोलाज: ‘अंतःकरण की गूँज’ 

डॉ. पद्मावती (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित काव्य संग्रह: ज़िंदगी का कोलाज
लेखिका: डॉ. सुनीता जाजोदिया 
प्रकाशक: बोध प्रकाशन, चेन्नई, तमिलनाडु 
संस्करण: वर्ष 2022
मूल्य: ₹350.00

चेन्नई की उभरती प्रतिभा सुनीता जाजोदिया का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह है ‘ज़िंदगी का कोलाज’ जिसमें उन्होंने पल-प्रतिपल अपने अंतःकरण में उभरे मनोभावों को चित्रमयी शब्दों में पिरोया है। संग्रह की भूमिका में ही वे स्वीकारतीं है कि ‘कल्पनाओं की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति’ लेखक की सार्थक पहचान होती है। उनका मानना है कि ‘भावों के आलोड़न की शाब्दिक अभिव्यक्ति है कविता, परिवेशगत सहज प्रतिक्रिया है कविता’। अगर माना जाए कि कविकर्म भावना प्रधान होता है, तो उस आधार पर तो शुद्ध कल्पना के वायवी लोक में विचरना ही कवयित्री का अभीष्ट कभी नहीं हो सकता। और यह कथन सत्यता से प्रामाणित होता है संग्रह में उनकी कविताओं को पढ़कर। न वे किसी धारा से जुड़कर अपनी गति अवरुद्ध करती है न काल्पनिक उड़न खटोले पर बैठ सौंदर्य के गीत गाती है। विषय वस्तु की दृष्टि से देखा जाए तो उनकी कविताएँ अनुभूत यथार्थ की भावात्मक अभिव्यक्ति हैं। वे आद्यांत यथार्थ से जुड़ी रहती है, वो यथार्थ जो देखा हुआ, भोगा हुआ सच है, जो परिवर्तनशील है, गतिशील है, प्रेरणात्मक है, परिवेश के प्रति सजग है, और इतना ही नहीं अधुनातन परिवेशगत राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्यों में व्याप्त विसंगतियों का प्रतिवाद करता हुआ नए प्रतिमान बनाता है, नए संदेश देता है और नए बिम्ब रचता है। भाषा में गतिशीलता है। कहीं भी पाठक को शिथिलता का अनुभव नहीं होता। इनकी भावानुगामिनी सृजनात्मकता सामाजिक सरोकारों को सँजोती ही नहीं बल्कि समभाव से उन्हें स्वीकारने की गुहार भी पाठक से करती है। उनकी सृजनशीलता में आस्तिकता और आस्था के गीत है जिन्हें वे जीवन का सिरमौर मानती है। अंतर्मन में उभरे संवेदनाओं के प्रस्फुटन को बड़े ही कलात्मक कौशल के साथ वे उन्हें एक रचनात्मक धरातल प्रदान करती है और अंततः उनका यह भावात्मक आवेश आस्था और यथार्थ की संश्लिष्टता में अवसान पाता है। 

काव्य संग्रह का आरंभ वीणावादिनी माँ सरस्वती की चरण वंदना से किया गया है। भारतीय संस्कार और मूल्यों के प्रति गहन आस्था और प्रतिबद्धता उनकी लगभग सभी कविताओं में दिखाई दे जाती है जहाँ परिवार, माता-पिता, गुरु और आत्मीय सम्बंधों के धरातल पर उगे जीवन दर्शन की प्राण वायु से वे इस भवसागर को तारने की शक्ति पाती है। आत्मीयों का प्रेम और गुरु का मार्गदर्शन हो तो सच में जीवन सफल बन सकता है। प्रार्थना और मन्नत की शक्ति को परंपराओं की थाती मानकर चलने वाली कवयित्री ने ‘भोग से योग और राग से विराग’ की यात्रा को अपनी साधना का ध्येय माना है। संग्रह का फलक बहु विस्तृत है। इनका प्रकृति प्रेम और सौंदर्य बोध अनूठा है। अथाह समुंदर की विराटता से विशेष लगाव इनके ‘भावों को नमी’ देता हुआ इनकी कविताओं में सहजता से प्रतिध्वनित हो उठता है जिसका कारण वे समुद्री तटीय शहर में अपने निवास को मानती है। संग्रह कविताएँ अनुभवों का सत्यापित दस्तावेज़ है जिसे वे साहित्यिक बुनाव देकर मान्य आदर्शों और संस्कारों से संपृक्त कर समाजोन्मुख बनाती है। संस्कृति की पोषक ‘जलधारा’ को साम्प्रदायिकता की तंग गलियों से मुक्त रखने की अभिलाषी वे उसे मानवीय चेतना की ओजस्विनी धारा का प्रतीक मानती है। अनंत विस्तृत क्षितिज उनका अभीष्ट है और राह में आई मुसीबतों के टकराने का अदम्य साहस उनकी साधना। हर कविता अपरिमित ऊर्जा की परिचायक है जो काल को परास्त करती हुई ‘सागर’ की गहराइयों में उतर कर मोती चुनने का संदेश देती है। कविताओं में जहाँ सागर की अगाधता को सफलता की चुनौती के रूप में स्वीकृत किया गया है, वहीं सूरज की तपन भी जगत के संताप हरने वाली प्रेमिल शक्ति के रूप में चित्रित है। अतिश्योक्ति न होगा अगर कहा जाए कि प्रकृति के मानवीकरण में वे सिद्धहस्त मानी जा सकती है। 

एक बिम्ब देखिए: 

‘बेला ये रसभरी, नन्हे मोतियों सजी, चूनर लाज की ओढ़ प्राची खड़ी, 
चूमकर होंठों को नटखट दिनकर ने, झट से सजनी की व्रीड़ा हरी।’ (भीगी भोर, पृ. सं ४८) 

जड़ हो या चेतन हर एक अणु प्रकृति प्रेम में पगा हुआ प्रतीत होता है। भारत की वैदिग्ध्यपूर्ण संस्कृति में इनकी गहरी आस्था है। यहाँ त्योहार मिलन और उत्साह के प्रतीक है। दीवाली हो या होली, त्योहारों को कवयित्री पारम्परिक धार्मिक दृष्टिकोण से ऊपर उठाकर उन्हें ‘नेह बंधन’ का स्रोत स्वीकार करती है और उन्हें एक अलग आयाम देती है जो उनकी समाजोन्मुखी सोच का परिचायक है। सौंदर्यानुभूति की भावाभिव्यक्ति में भाषा की प्रांजलता सराहनीय है। कोमल सुकुमार शब्दावली जब ‘पुरुष सत्ता के अंगारों से झुलसती’ है तो आग उगलती है। संग्रह की कई कविताएँ ‘नारी को केंद्र में रख कर लिखी गई है। कवयित्री ने नारी को भोग्या अबला और असहाय नहीं, शक्ति से भरपूर मातृत्व की मूर्ति माना है जो ‘बार-बार बिखर कर भी न प्रेम का अजस्र स्रोत सूखने देती है न भरोसे की नींव हिलने देती है; नर हो या नारी, सब होवें सम्मान के अधिकारी’ की उद्घोषणा कर इन्होनें नारी को ‘आधा जगत नहीं, इक पूरा संसार माना है’। 

मानवता के अभिशाप सदृश राष्ट्र विरोधी तत्वों के प्रति उनका आक्रोश पाठक को झकझोर देता है। सांप्रदायिक दहशत, लोकतंत्र की बिसात पर वोटों की राजनीति खेलते नेता ‘रोटी के टुकड़े को तरसती आँखों की पीड़ा’ की अभिव्यक्ति में कवयित्री की क़लम तलवार की धार बन कर प्रहार करती है। कोरोना महामारी का वर्णन अत्यंत त्रासद है। निष्ठुर महामारी ने जहाँ जनता के प्राण लील लिए, वहीं नए पाठ भी पढ़ाए हैं। मानवता की नयी परिभाषाएँ भी गढ़ी हैं। रिश्तों के समीकरण उलट-फेर कर दिए हैं। इन्हीं विभीषिकाओं का जीवंत चित्रण इनकी कई कविताओं के पाया जाता है। 

संग्रह में केवल कविताएँ ही नहीं, गीत हैं, मुक्तक हैं, और जीवन दर्शन समझाती हुई क्षणिकाएँ हैं। संग्रह में जहाँ आत्मीय रिश्तों की अनुभूतियाँ हैं, वहीं महानगरीय संस्कारों का अभिशाप अकेलापन है। फागुन की बहार है, तो दहेज़ के अनल में जलती होलिकाएँ हैं। एक ओर जीवन का अर्थ है तो दूसरी ओर व्यर्थता और शून्य बोध है। जहाँ नव वर्ष का आह्वान है वहीं घनघोर वेदना के सन्नाटें हैं। जीवन की वंशी बजाने वाली भोर है, तो कहीं धरती के गर्भ में पलने वाला रत्न भंडार अँधेरा है। जीवन की संवेदनाओं और विसंगतियों को उसकी समग्रता में संग्रह में समेटा गया है। गागर में सागर भरती हुई ये कविताएँ आज की शती का चिरस्थायी सच राजनैतिक भ्रष्टाचार, जाति गत भेद-भाव, भूमंडलीकरण के दौर में व्यक्ति का वस्तु बन जाने की पीड़ा, अति आधुनिकता के मोह में लुप्त होते आज की पीढ़ी के संस्कार, आर्थिक परवशता के कारण वृद्धों की परिवार में अवहेलना इत्यादि कई सामयिक मुद्दों को तीखी पर स्पष्ट शैली में अभिव्यक्त करती है। भाषा में कहीं दुराव नहीं है। शब्द संयोजन और गत्यात्मक लोच पाठक को बाँधे रखता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ‘जिंदगी का कोलाज दिल से लिखी प्रेम-भाव से पगी किताब है’। 

समीक्षक: डॉ. पद्मावती 
कामकोटि नगर, नारायना पुरम, 
चेन्नई, तमिलनाडु। 

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