जाको राखे साईंया . . . 

01-02-2024

जाको राखे साईंया . . . 

डॉ. पद्मावती (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

वह पलायन कर देना चाहता था। प्रयाण के सब उपाय सोच रखे थे। आस्तिक था वह, घोर आस्तिक . . . पर आज वह मोह भी टूट चुका था। समाप्त कर देना चाहता था जीवन को जिसने निराशा के अतिरिक्त उसे कुछ न दिया था। चला जा रहा था वह हाँफता, सिसकता, बड़बड़ाता इस उधेड़बुन में कि या तो पटरियों पर लेट जाएगा या नदी में छलाँग लगा देगा या पर्वत से कूद जाएगा। 

रात्रि अंतिम चरण के अवसान पर। 

सुबह होने से पहले निर्णय को अंजाम देना था। 

मार्ग अस्पष्ट। सड़क पर किसी के देखने का डर। उसने जंगल का रास्ता चुना। डरावनी निस्तब्धता और अँधेरा। अँधेरे में पेड़ से टकराकर वह गिर पड़ा। माथा फटा सिसकारी निकल गई। कुछ क्षण तने से सिर टिकाए वह वहीं निश्चेष्ट सा बैठा रह गया।

हारा मन थका बदन . . . आँख मुँदी जा रहीं थीं। 

अँधेरे में रोशनी दिखी। कोई था पेड़ के पीछे ध्यान मग्न। 

पास जाकर देखते ही वह काँप गया। चेहरा था या प्रकाश पुंज? अलौकिक तेज . . . अग्नि कुंड सदृश जाज्वल्यमान। उस ऊष्मा से उसके सब ताप घुलकर आँसुओं में बहने लगे। 

वह स्तब्ध-सा निश्चेष्ट ताकता रहा। 

अनायास उसकी दृष्टि ऊपर पेड़ पर गई। धुँधली रोशनी में दिखा . . . एक गिलहरी पके हुए बेर को हाथों के पंजों में दबोच कर मज़े से कुतर रही थी और निचली डाल पर काली बिल्ली घात लगाए हुई थी। 

अविलंब उसने एक कंकड़ी उठायी और बिल्ली की ओर दे फेंकी। अप्रत्याशित वार। बिल्ली धड़ाम से नीचे गिरी और गिलहरी चंपत। 

प्रकाश पुंज ने स्निग्ध दृष्टि से उधर देखा। उठे और चल दिए। 

“रुकिए . . . कौन हैं आप . . .?” उसका अंतर्मन चीख उठा। वह हड़बड़ा कर लपका उनकी ओर। 

उनके क़दम ठिठक गए। बिना मुड़े उन्होंने कहा, “योगी हूँ।” 

“मुझे अपना शिष्य बना लो। आपके साथ रहूँगा, साधना सीखूँगा।” 

“गुरु दक्षिणा में क्या दोगे?” उनकी वाणी सम्मोहित कर रही थी और वह बँधा जा रहा था। उसके होंठ चिपक गए थे। 

“जो माँगें वही। यह जीवन आपको समर्पित,” आश्चर्यचकित था वह कि कौन बोल रहा है? इतनी ऊर्जा उसमें आई कहाँ से। 

“पीछे तो न हटोगे?” वे अब भी न मुड़े। 

“परीक्षा ले लो।” 

“तो गुरु आदेश है कि वापस चले जाओ।” उनके शब्द तीर की तरह उसकी अन्तरात्मा को भेदते चले गए। “इस जगत को तुम्हारी आवश्यकता है। साधना समर्पण माँगती है पलायन नहीं। वह वरण करती है कर्मरत व्यक्ति का। और हाँ . . . प्रतीक्षा करना . . . मैं आऊँगा . . . किसी न किसी रूप में। ध्यान रहे, तुमने अपना जीवन मुझे समर्पित किया है। अब इस पर मेरा अधिकार है।” 

वे ओझल हो गए। 

उसकी तंद्रा हटी। भोर हो आई थी। 

सूरज क्षितिज पर अपनी रक्तिम आभा बिखेर रहा था . . . चारों और गुलाबी रश्मियाँ फैल गईं थीं। उसने सब ओर नज़र दौड़ाई। 

वहाँ कोई न था लेकिन . . . लेकिन उसका अन्तर्मन अब रसमय हो चुका था। 

मार्ग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 

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