गर्व से कहिए—यस बॉस
डॉ. पद्मावतीपुस्तक का नाम: यस बॉस (निबन्ध संकलन)
लेखक: सोमा वीरप्पन
(मूल पुस्तक अंग्रेज़ी में-द आर्ट ऑफ़ जॉगिंग विद योर बॉस)
अनुवाद: रोहित शर्मा
प्रकाशन वर्ष: 2025
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन प्रा. लि.
4/19। आसफ अली रोड, नई दिल्ली
मूल्य: ₹350/
ISBN: 9789355623270
समय परिवर्तनशील है और आज का युग प्रौद्योगिकी व कृत्रिम मेधा का युग है, गति और मति का युग है। बदलता समय नवीन मूल्यों को जन्मता है। नवीन विचारधाराएँ पनपती हैं। पुराने मोह टूटते हैं। नई अवधारणाएँ विकसित होती हैं। परिवेश जब बदलता है, तब जीवन शैली भी बदल जाती है। आधुनिकीकरण और तकनीकी ने आज जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तित ला दिया। जीवन के अर्थ तंत्र का ढाँचा हिल गया। भौतिक सुविधाओं की बाढ़ आ गई और उन्हें पाने के लिए व्यक्ति छटपटाने लगा। प्राथमिकताओं में बदलाव आ गया। बाज़ार तंत्र में व्यक्ति उपभोक्ता में परिवर्तित हो गया। सीमित अवधि में असीमित आकांक्षाएँ पूरी करने की जद्दोजेहद में व्यक्ति मशीन बनता चला गया। आज पूरा विश्व एक बाज़ार है और इस बाज़ार में हर चीज़ बिकती है। सब कुछ ख़रीदा जा सकता है बशर्ते जेब में पैसा हो। तो धन ही आज जीवन का प्रथम लक्ष्य, प्रथम प्राथमिकता बन गया है। सच भी है कि पंच तत्त्वों से निर्मित इस शरीर को चलाने का छटवाँ तत्त्व पैसा है। तो कार्य क्षेत्र कोई भी हो, इस महामाया को अर्जित करने के लिए कार्यस्थल पर अपना अस्तित्व सुरक्षित रखने की आवश्यकता के चलते हर पल अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की अनिवार्यता भी बढ़ चली और अंततोगत्वा इस यांत्रिक युग की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बनी—प्रबंधन। बिना प्रबंधन के लक्ष्य प्राप्ति असंभव है फिर वह दैनंदिन जीवन हो या कार्य क्षेत्र। समय का प्रबंधन, अर्थ का प्रबंधन, मानवीय सम्बंधों का प्रबंधन। प्रबंधन जितना कुशल होगा, जीवन में सफलता उसी अनुपात में होगी। प्रबंधन तकनीक, जीवन के अर्थ तंत्र और कार्यालयीन कामकाज से जुड़े प्रसंगों का मनोविज्ञान है सोमा वीरप्पन की सद्यः प्रकाशित पुस्तक 'यस बॉस' जो भारतीय तमिल भाषा के कालजयी नीति शास्त्र ‘तिरुकुरल’ के सूत्रों में निहित प्रबंधन कला कौशल की शाश्वत प्रासंगिकता को आधार बनाकर लिखी गई है।
तमिल भाषा की अमूल्य धरोहर 'तिरुकुरल' भारतीय ज्ञानमीमांसा और तत्त्वमीमांसा की प्रारंभिक प्रणालियों में गिना जाता है। नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में सार्वजनीन व सार्वभौमिक मूल्यों को प्रतिपादित करने वाले इस ग्रंथ को तमिल भाषा में ‘वेद’ के रूप में मान्यता प्राप्त है जिसके तीन खंडों में समेकित 1330 दोहे—(कुरल) धर्म, अर्थ और नीति की त्रिवेणी से अनुस्यूत हैं। इस पूर्व पीठिका का उद्देश्य पाठक को समीक्षित पुस्तक के कथानक से अवगत कराना ही है जो इस नवोन्मेष अध्ययन की अंतरंग विशिष्टता कही जा सकती है जिसका मूल प्रतिपाद्य है ‘कॉर्पोरेटी परिवेश में कुरल की सामयिक अर्थवत्ता का औचित्य’।
लेखक ‘सोमा वीरप्पन’ की कॉर्पोरेटी जगत की इस तथ्यान्वेषी अंतर्यात्रा में साठ निबंध संकलित हैं जो कार्यालयीन तंत्र में कुशल प्रबंधन की चुनौती को सुलभ बनाने के लिए उसके सभी पक्षों को अनावृत करते चलते हैं—सहज सरल उद्धरणों के माध्यम से। सार्थक प्रश्न और शोध-परक निष्पत्ति। प्रामाणिक आँकड़ों का हवाला देते हुए व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सफलता के नेपथ्य में कारक बने कारणों को ‘कुरल’ की नीतियों से आबद्ध कर उनका औचित्य सिद्ध करने में लेखक की प्रतिभा सचमुच सराहनीय है। रोचक प्रभावशाली भाषा। फिर चाहे वह संगठनों के प्रबंधकों के लिए हो या नेतृत्व के पदों पर आसीन पदाधिकारियों के लिए हो, सरकारी तन्त्र हो या आम उद्यमियों से सम्बंधित हो, इस पुस्तक का वर्ण्य विषय हर पाठक वर्ग के लिए विशेष आकर्षण बन सकता है।
आइए चले पुस्तक में वर्णित कुछ अध्यायों पर नज़र डालते हुए . . .
अध्यायों के शीर्षक काफ़ी रोचक है, आकर्षक भी। हर अध्याय के अंत में ‘तिरुकुरल’ के दोहों से स्थिति और परिवेश में सामंजस्य बिठाने का अनुकूलन सराहनीय तो है ही पर साथ-साथ इन गंभीर विषयों को क़िस्सागोई शैली में समझाने का उनका ढंग बेहद निराला है। पाठक को लगता है कि जैसे कोई रोचक कहानी पढ़ रहा हो। पहले ही अध्याय का नाम देखिए, ‘नम्बर वन कैसे बने?’ जिसमें संगठन और कर्मचारियों के आपसी सहयोग और सहकारिता की अनिवार्यता को समझाने के लिए लेखक ने बैंकिंग कार्यक्षेत्र के क़िस्सों में ऐसे प्रभावशाली तर्क प्रस्तुत किए जहाँ पाठक उनके भाव से एकीकृत हो जाता है क्योंकि इन क़िस्सों का धरातल उनका अपना स्वानुभव है जो इस संलग्नता का एक कारण माना जा सकता है। तो इन क़िस्सों को पढ़ कर पाठक भी उनमें बहता चला जाता है। वह भी उस परिवेश का अंग बन जाता है और यह केवल एक निबंध की बात नहीं, पूरी पुस्तक पाठक को इसी तरह बाँधे रखती है चाहे फिर वह बैकिंक क्षेत्र हो या मल्टी-नेशनल कॉर्पोरेटी जगत। लेखक मानता है कि हर व्यापारिक संगठन में ग्राहक एक केंद्रीय भूमिका निभाता है और उसके अधिकारों के प्रति सजगता कंपनी की सफलता का मेरुदंड है। मानवीय संबंधों में सौहार्द और संवेदना न हो तो व्यापार का अर्थ-तंत्र चरमरा सकता है। सजगता हर स्तर पर अनिवार्य है।
कार्यलयों में अधीनस्थ कर्मचारियों पर अधिकारियों की दबंगाई की भर्त्सना करता निबंध है ‘हरि साडू न बने’ जिसमें लेखक टी.वी. उस पुराने विज्ञापन की ओर ध्यान आकर्षित करता है जहाँ एक कार्यालय का कर्मचारी अपने बॉस को ‘हरि’ नाम की वर्तनी इस प्रकार समझाता है—एच से हिटलर, ए से अरोगेंट, आर से रास्कल और आई से ईडीयट। उद्देश्य स्पष्ट है कि हर सत्तासीन अधिकारी को यह बात समझ लेनी चाहिए कि ऊँची आवाज़ में बात करना अपने अधिकारी होने की शक्ति को जताने का एक मात्र तरीक़ा नहीं है। तिरुकुरल इस विषय में कहता है:
“कटुक वचन बोले बिना, मिलनसार है भूप।
उसका शासन श्रेष्ठ है, तथैव सदा अनूप॥”
पंजाब नेशनल बैंक में पूर्व-प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर सेवा-निवृत हुए लेखक का अनुभव काफ़ी गहरा है। विस्तृत अध्ययन से तथ्यों का संचयन कर उनका तार्किक प्रस्तुतीकरण हर निबंध में देखा जा सकता है। किसी भी व्यावसायिक तंत्र को सुदृढ़ कैसे किया जा सकता है? कुशल प्रबंधन के लिए क्या आवश्यक है? सफल नेतृत्व के लिए क्या अनिवार्य है? प्रशासनिक तंत्र को कैसे व्यवस्थित किया जा सकता है? कोर्पोरेट जगत में मानवीय संबंधों की अहमन्यता क्या है? इन सभी प्रश्नों के जवाबों में लेखक ने नीति, नियम और जीवनानुभुवों का सहारा ही नहीं लिया बल्कि उन्हें तिरुकुरल से संदर्भित कर एक नवाचार उपस्थित कर दिया है। विषय वस्तु की गंभीरता को ध्यान में रखकर स्पष्ट सटीक पारदर्शी भाषा ने ‘कुरल’ के ज्ञान को संप्रेषित करने में सफलता हासिल की है। दो सहस्राब्दियों से भी पुराने इस ज्ञान को आधुनिक प्रबंधन की दुनिया से जोड़ देना लेखक की नवोन्मेषी सृजनात्मकता का परिचायक है।
औद्योगिक जगत से ही जुड़ा अगला लेख ‘थोड़ा अभिनय भी करें’ में वे ‘डेल’ कम्पनी की रणनीति की असफलता के दुष्परिणामों का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि 2016 में इस कंपनी ने अपने प्रतिस्पर्धियों को हराने के लिए गोपनीय रीति से ई.एम.सी. को ख़रीद लिया था ताकि उनके प्रतिस्पर्धी उनकी ओर से लापरवाह हो जाए और कंपनी अपने प्रतिद्वंद्वी पर जीत हासिल कर सकें। पर हुआ कुछ और। दुर्भाग्यवश राज़ खुल गया और डेल कंपनी के शेयरों में भारी गिरावट आ गई।
कॉर्पोरेटी संस्कृति में लाभ-हानि की अनियमितता स्वतः सिद्ध है। जो जीता वही सिकंदर। लेकिन इसके बावजूद कंपनियों को उदारता का चोला पहन कर चलना पड़ता है। क्योंकि यही ‘उदारता’ की छतरी कई कॉर्पोरेटी आपदाओं में रक्षा भी देती है। तिरुकुरल इस विषय में कहता है कि जिस राजा में उपकार, उदारता, सत्यनिष्ठा और दान जैसे गुण उपस्थित होते हैं, वह राजा सूर्य के समान चमकता है। ‘प्रजाप्रिय राजा’ लेख कॉर्पोरेटियों की दान-दक्षिणा के आँकड़ों का ब्योरेवार विवरण देता है जहाँ पाठक यह पढ़ कर चौंक जाता है कि 2022-23 वित्तीय वर्ष में अज़ीम प्रेमजी ने 1,774करोड़ रुपये का दान दिया था और वहीं एच सी एल टेक्नोलोजीस के चेयरमैन शिन नादर ने 2,042/ करोड़ रुपए दान दे कर भारत के सबसे ‘उदार उद्यमी’ का ख़िताब हासिल कर लिया था।
‘साहस ज़रूरी है’ में लेखक स्विग्गी स्टार्टअप की उद्यमिता की सफलता की कहानी सुनाता है। ‘चींटी हाथी से कैसे जीते’ लेख में बाज़ार तंत्र के अर्थ शास्त्र को उस रणनीति से समझाने का प्रयास किया है जहाँ जन-आर्थिकी को ध्यान में रखकर बड़े-बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान अपने उत्पाद की खपत बढ़ाने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेने के साथ-साथ उपभोक्ता मनोविज्ञान से भी सामंजस्य बिठाने का जो उपक्रम करते हैं वही उनके व्यवसाय की सफलता का असली रहस्य है। जो जितना आमजन तक पहुँचेगा, वह उतनी सफलता पाएगा। यहाँ उदाहरण दिया गया है ‘वेलवेट कम्पनी’ का जिसने सत्तर के दशक में बाज़ार में एक रुपए का शैम्पू पैकेट बनाकर ऐसा नवाचार उपस्थित किया था जिसने इस जगत में क्रांति ला दी थी और बड़ी-बड़ी शैंपू कम्पनियों के वर्चस्व ख़तरे में पड़ गए थे। तो कॉर्पोरेट तंत्र की नीति निर्धारकों के चार महत्त्वपूर्ण कारकों पर दृष्टिपात करते हुए कहा गया है कि उदारता, दयालुता, ईमानदारी के साथ-साथ उपभोक्ता मनोविज्ञान से सामंजस्य संगठन की सफलता का महत्त्वपूर्ण कारक माना जा सकता है।
लेखक का भाषा पर असाधारण अधिकार प्रवाहमयी आकर्षक शैली, कथ्य संप्रेषण की अद्भुत प्रतिभा तिरुकुरल के ज्ञान को उन्नत फलक पर आरूढ़ कर देती है जिसका अनुप्रयोग कर हर व्यक्ति अपने जीवन में और कार्य-क्षेत्र में सफल हो सकता है। कॉर्पोरेट जगत में प्रबंधन के विभिन्न बिंदुओं को समेढटते उनका समष्टिगत समाधान श्लाघनीय है। यह पुस्तक प्रबंधन तंत्र से संबंधित उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और गहन अध्ययन का परिचय तो देता है साथ-साथ उनकी शोध मनोवृत्ति को भी उजागर करता है। पुस्तक में वर्णित निबंधों में कुशल शब्द और भाव संयोजन से निर्मित विश्लेषणात्मक रचनाधर्मिता पाठक की चिंतन धारा पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। प्रांजल सरल बोधगम्य भाषा ने स्वानुभवों की अभिव्यक्ति को विलक्षणता प्रदान की है। परिपक्व पाठकों के लिए पुस्तक संग्रहणीय है।
समीक्षक
डॉ. पद्मावती, सह-आचार्य, चेन्नई, तमिलनाडु।
Mail id: padma.pandyaram@gmail.com
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