अपने हिस्से का चाँद
डॉ. पद्मावती
“सुनो कल हमारी 45वीं वैवाहिक वर्षगाँठ है। पैंतालीस वर्ष हो गए हमारे विवाह को। क्या दोगे मुझे?” मीरा पार्क की बेंच पर पसर गई।
“साथ रह रहे हैं और एक दूसरे को झेल रहे हैं। और क्या चाहिए मोहतरमा? पूरी ज़िंदगी तो ले ली अब और क्या प्राण लेना चाहती हो प्रिये?” शरारत होंठों पर नाच रही थी उसके।
“अच्छा? पहले याद है मेरे लिए सफ़ेद गुलाब लाया करते थे,” राजेश की चुहल से मीरा सकपका गई।
“हाँ हाँ बड़ी शांतिप्रिय जो दिखती थी तब और इसी भ्रम में तो आ गया था मैं। पर थी नहीं तुम।”
“अच्छा?” बहुत अच्छे! और वो कोट याद है जब हम पहली बार ऊटी गए थे तो मेरे लिए कितना ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक जैकेट ख़रीद लाए थे . . . वो भी सफ़ेद ही रंग की,” उसने भी चुटकी ले ली।
“मैं कहाँ लाया था तुम्हारे लिए? मैं तो अपने लिए लाया था पर तुम्हारी रोनी सूरत देखकर तुम्हें पहना दी।”
“ओ हो। अच्छा तो लड़कियों की जैकेट पहना करते थे ना? क्यों सफ़ेद झूठ बोल रहे हो। छोड़ो भी ना। और वो कोरोना के समय जब मैं संक्रमित हुई थी तो 24 घंटे मेरे सर के ऊपर सवार रहा करते थे। डॉक्टर के कितना मना करने पर भी मेरे पास रह रहकर ख़ुद भी संक्रमित हो गए थे। उसे क्या कहेंगे? अरे बातें न बनाओ।”
“मेरे लिए और कोई उपाय कहाँ था? खाना जो बनाना नहीं आता था और अकेले घर में बोरियत। इसलिए।”
“अच्छा। ये तो भगवान का शुक्र है कि तीसरे लहर में संक्रमित हो गयी थी तो ज़िंदा आज भी बचे हुए हैं। चलो ठीक है भई मान गए तुम्हें मुझसे प्यार नहीं। केवल निर्वाह हो रहा है इतने सालों से। चलिए, चलते हैं घर। आज अमावस की रात है। चाँद ऊपर नहीं है। काली रात में चलना मुश्किल हो जाएगा। मुझे दिखाई कम देने लगा है।”
“कोई बात नहीं मोहतरमा। चाँद ऊपर नहीं है तो क्या हुआ? है तो मेरे बग़ल में जिसने मेरे जीवन को रोशन कर दिया आज वो रास्ता भी दिखा देगा।” मुस्कुराते हुए राजेश ने मीरा हाथ कसकर पकड़ा और दोनों धीरे-धीरे गेट की ओर चलने लगे। रात आज बिना चाँद के ही चमक रही थी।
1 टिप्पणियाँ
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आयु के साथ परिपक्व होते दाम्पत्य संबंध पर प्रभावशाली लघु कहानी। बहुत बहुत बधाई लेखिका डा पद्मावती जी के परिपक्व लेखन को
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