फ़र्क़
डॉ. पद्मावती
“किस सोच में डूबे हैं पंडित जी?” मिश्रा ने आते ही कुर्सी खींची। “वैसे आप लोगों को इस आवारा कुत्ते का कुछ इलाज करना ही चाहिए। जब देखो किसी न किसी पर भौंकता रहता है . . . मैं भी बच-बच कर आया हूँ।”
“आप तो जानते हैं फिर भी पूछ रहे हैं?” शर्मा जी ने चाय का प्याला उनकी ओर बढ़ाया पर नज़रें सड़क पर ही लगी रही . . . उस पर जो अब हल्के से दुम हिलाता कातर निगाहों से उनकी ओर देख रहा था।
“आप रपट क्यों नहीं करवा देते? क्यों छोड़ दिया ऐसे धोखेबाज़ को?”
“मिश्रा जी, घर में बेटे की तरह था। कैसे करता रपट? अपनी ही इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाती। ग़म तो इस बात का है कि ज़रूरत थी, तो माँग लेता . . . मैं भी इनकार न करता है, लेकिन ये हरकत दिल दुखा गई।”
उनका सबसे विश्वासपात्र नौकर, जिसको बेटे की तरह चाहा था, दुकान में घपला करके उन्हें सदा के लिए छोड़कर जा चुका था। आख़िर पचास हज़ार का मामला था। पूछताछ की, तो जवाब न दे पाया और बिना कहे भाग गया। कितने सालों से उनके पास काम कर रहा था। उसके पूरे परिवार का भरण-पोषण शर्मा जी करते थे। पर पैसे का लालच है संबंधों पर भारी पड़ गया। एक ही दिन में सब समाप्त।
न जाने क्या हुआ, तब तक चुप खड़ा कुत्ता फिर से अचानक भौंकने लगा। भूखा था . . . शायद कुछ मिलने की आस में। पूरी गली उससे ख़ौफ़ खाती थी। एक शर्मा जी थे जो उसे कभी-कभार रोटी दूध दे देते थे।
“आप बैठिए मैं अभी आया,” शर्मा जी उठे और रोटी दूध का कटोरा ले चले कुत्ते को खिलाने।
“अरे सँभल कर साहब, काट लेगा। बड़ा ही बददिमाग़ है। ध्यान से . . . मुझे तो उसकी सूरत से ही डर लगता है,” मिश्रा जी सहम से गए।
“हाँ, हाँ भई . . . कोई डर नहीं।” शर्मा जी ने कुत्ते को पुचकारते धीरे से कहा, “कुत्ता है सा’ब, समझता है। रोटी दिए हाथ को कभी नहीं काटता। जानवर जो ठहरा।”
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रोटी दिए हाथ को काटता नहीं सुंदर संदेश देती लघु कथा।
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