जंग

डॉ. पद्मावती (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

चाँद थककर सो गया था बादलों की ओट में कुछ क्षणों के लिए . . .। पर आकाश जगमगा रहा था, टिमटिमाते अनगिनत सितारों से। चमक ऐसी लुभावनी जितनी भारतीय सेना आधुनिक हथियारों लैस जगमगा रही थी . . . पूरी तैयारी के साथ . . . पूरे जोश से। 

नीचे ज़मीन पर घुप्प अँधेरा . . . इतना कि हाथ को हाथ न सूझे। सिपाही अपनी-अपनी पोज़ीशन पर तैनात थे। कैप्टन अमरेंद्र की आँखें सूक्ष्मता से स्थिति का जायज़ा ले रहीं थीं। 

“सिपाहियो . . . आगे ट्रेंच,” कैप्टन की धीमी फुसफुसाहट,” अंदर जाना है . . . झुककर . . . टुकड़ी अंदर। सब तैयार? जय भारत माता की!” 

धीरे-धीरे सभी सिपाही अंदर अपने हथियार की नोक तानकर झुक गए। 

“जय भारत माता की . . . यस कैप्टन सब तैयार।” 

अंधकार को चीरती गोलियों की आवाज़ें। आग उगलता बारूद। दिल दहलाते शोले। धरती काँप-सी जा रही थी। 

“सूबेदार . . . वीरेंद्र सिंग . . . तुम मुझे कवर दो। कमॉन क्विक . . .” कैप्टन तेज़ी से आगे बढ़े। 

“क्षमा सर . . . मैं आगे रहूँगा सरजी।” 

“पागल न बनो . . . ऑर्डर इज़ ऑर्डर . . . यहाँ जान नहीं दुश्मन हमारा लक्ष्य है।” 

“पर आप इस टुकडी के लिए उतने ही ज़रूरी हो सर। लक्ष्य वही रहेगा। थोड़ी सी अदला-बदली। मैं आगे और आप कवर करेंगे।” 

“नो। सज़ा हो सकती है तुम्हें ऑर्डर न मानने के जुर्म में। कैप्टन मैं हूँ या तुम?” 

“सर! आपकी आज्ञा सर आँखों पर लेकिन मैं आगे।” 

सूबेदार वीरू कैप्टन के आगे हो आया और हथियार सँभाला। 

दोनों ओर से वार . . . नेहले पर देहला . . . घात-प्रतिघात . . . वातावरण थर्राने लगा। भयभीत और अप्रत्याशित . . .। 

इतने में बिजली सी सनसनाती गोली आई और वीरू के सीने पर लगी। वह ख़ून से लथपथ लेकिन, न वार करना छोड़ा न पीछे ही हटा। पर अगले ही क्षण दर्द से छटपटाता कटे वृक्ष की भाँति ज़मीन पर गिर पड़ा। 

“सुखना . . . अ . . . अ।” कैप्टन की चीख गूँज उठी। “वीरू घायल हो गया . . . उसे ट्रेंच के अंदर . . .” 

चारों और ख़ून का फव्वारा। धरती ख़ून से रंग गई . . . और . . . और . . . शन्नो चीख मारकर उठ बैठी। 

पूरा बदन पसीने से लथपथ। हड़बड़ी में उसने बाहर देखा . . . रात गुम होने की कगार पर थी। चारों ओर हल्की चम्पई रोशनी। “उफ़ . . . सुबह का सपना? सुबह का सपना सच होता है। ईश्वर न करे यह सच हो।” दर्द में उसके मुँह से सिसकारी निकल गई। आजकल इसी तरह के भयानक सपने आ रहे थे। 

अचानक फोन की घंटी बजी। रीढ़ की हड्डी में ठंडी सी सिरहन दौड़ आई। गर्भ में शिशु भी अकड़ गया। भंयकर पीड़ा होने लगी। पूरे नौ महीने का गर्भ . . . अब तो प्रसव कभी भी हो सकता था . . . इसीलिए आजकल नींद कहाँ आती थी? 

फोन लगातार बज रहा था पर उठाने की हिम्मत कहाँ थी? रूह तक फड़फड़ा रही थी। 

अपनी कँपकँपी पर क़ाबू पाकर बड़ी मुश्किल से उसने अपने बदन को घसीटा और फोन उठाया। 

“भाभी,” वहाँ से आवाज़ आई।” मैं सुखना . . . जंग ख़त्म हो गई है . . . हमारी फ़तह हुई।” 

उसे लगा सुखना की आवाज़ जैसे दूर से आ रही हो। आँखें मुँदी जा रहीं थीं। 

‘वो कैसे हैं भय्या?’ पूछना चाहा पर मुँह से बोल न निकले। बस होंठ काँप कर रह गए। कुछ अपशकुन सुनने की आशंका दिल की धड़कन तेज़ किए जा रही थी। 

उस तरफ़ से बस हाँफने की आवाज़ सुन कर वह समझ गया। देर न करते हुए जल्दी से बोला, “भाभी . . . आपका फ़ौलादी शेर एकदम चंगा है . . . बस थोड़ा-सा घायल हो गया है। गोली ठीक सीने पर लगी पर वो तो शेर है न . . . और रक्षा कवच के कारण जान बच गई। आपका होने वाला बच्चा क़िस्मत वाला है . . . क़िस्मत वाला। बस एक दो दिन। ठीक होते ही बात करेगा आपका शेर। और हाँ, दोनों साथ आएँगे . . . जब छोटा शेर आ जाएगा। अब फोटो खींचने का ज़िम्मा भी तो मेरा। चाचा जो हूँ। चिंता न करना। रखता हूँ . . . जय माता दी।” 

फोन कब कट गया पता ही न चला पर शन्नो अब भी उसे चिपटाए माथे से लगाए हाँफ रही थी। अंदर बंद रुलाई अब और न रुक सकी। बाँध तोड़कर उफनती बाहर आ गई। आँसुओं से मुँह तरबतर हो गया। वह तेज़-तेज़ रोए जा रही थी। आँसू थे कि रुक ही न रहे थे। एक ही धुन . . . एक ही नाम . . . वीरू . . . वीरू . . . वीरू . . .। उसका रोम-रोम वीरू बन गया। पेट को सहलाती उसका नाम जपे जा रही थी और . . . और . . . बीच-बीच में अपनी हथेलियों को चूमे जा रही थी। 

इन्हीं हथेलियों में . . . हाँ . . . इन्हीं हथेलियों में वह अपना चेहरा छुपा लेता था . . . हमेशा . . . प्यार से। 

 न अश्रु ही थमे और न ही होंठ . . . 

 भ्रम था या सच? जो भी था उसे जिला गया। 

एक बार फिर मन दोहराने लगा . . . वीरू के शब्द जो जाते वक़्त उसने उससे कहे थे, “शन्नो . . . समझो जंग में अगर मुझे कुछ हो गया तो . . . तुम्हें मेरा सपना पूरा करना है . . . लड़का हो या लड़की . . .। मेरा बच्चा बड़ा होकर सेना में ही जाएगा . . . समझी। लड़की हुई तो डॉक्टर बनेगी और घायलों की सेवा करेगी। और हाँ . . . मैं जानता हूँ लड़की ही होगी।” और फिर झुककर फूला हुआ पेट चूम लिया था उसने। 

याद आ रहा था . . . एक एक शब्द . . . एक एक अक्षर। कुछ ही क्षण तो थे वे . . . पर अविस्मरणीय! उन क्षणों की स्मृति में एक जीवन बिताया जा सकता था . . . हाँ . . . पूरा एक जीवन। 

“शुभ-शुभ बोलो जी,” शन्नो ने और कुछ कहने से पहले ही उसके होंठों पर उँगली रख दी थी।

“जो तुम चाहो वैसा ही होगा। विश्वास करो। पर अब कभी ऐसे अपशकुन न बोलना। मेरी प्रतीक्षा ढाल बनकर तुम्हारी रक्षा करेगी . . . तुम्हें कुछ न होगा जी,” उसने उसे कसकर चिपटा लिया था और . . . उसकी जकड़ में पिघल गई थी वह कुछ क्षणों के लिए ही सही। 

वही . . . वही आख़िरी बार था। और . . . फिर . . . फिर तो वह चला गया था। 

‘कितनी बार तुझे समझा चुकी कि पहली जचगी माँ के घर होवे है, पर इस सूबेदारनी को समझ ही नहीं आवे।’ 

उसकी तंद्रा टूटी। सामने सासु माँ दूध लिए खड़ी थी। 

“वीरू बोल कर गया है कि मेरी घरवाली का ख़्याल रखना। अब कुछ उलट-सीध हो जाए तो मैं किसी को मुँह दिखाने को न रहूँगी। पर ये माने तो न। रात भर चिल्लाती रही। न जाने क्या देखती है सपने में? चिंता न कर बहू . . . मेरा वीरू शेर है शेर,।” बूढ़ी कमला केसर डाला दूध का कटोरा थमाते बोली। 

शन्नो क्षण में दूध गटक गई। “हाँ माँ . . . पर अब ख़ाली दूध से काम न चलेगा। तेरी पोती तो पेट में ही परेड करे है। कुछ और भी खिला दे . . . बड़ी भूख लागे है . . . तेरे शेर की लाड़ली भी भूखी है,” वह रोते-रोते हँस पड़ी। 

सूरज क्षितिज पर आ गया . . . एक बार फिर अँधेरे को कुचल कर, जीत का तिरंगा फैलाता हुआ। 

आज बहुत दिनों के बाद सूबेदार का आँगन हँसी की किलकारियों से गूँज रहा था। 

2 टिप्पणियाँ

  • 2 Oct, 2023 08:22 AM

    हमारे परिवार ने ऐसे दिन खूब देखें हैं। बस इसी तरह बच निकले हैं। यथार्थ का दिल छूता चित्रण! बधाई पद्मावती जी!

  • 25 Sep, 2023 10:48 PM

    प्रिय सखी व सम्मानीय लेखिका पद्मा जी को साधुवाद , हमारे सैनिकों की जीवनसंगिनियों के अलिखित , अविराम संघर्ष व अजन्मे बच्चे पर पड़ते उसके प्रभाव की झलक दिखाने के लिये । यूं ही नहीं, शहीद सैनिक का बच्चा भी सैनिक बनना चाहता है।

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