अपराधी कौन
डॉ. पद्मावती
“आज सर्दी ज़्यादा है भई, हड्डियाँ कँपा रही है। उफ़! ख़ैर कल जो चार लोगों को पकड़कर लाए थे, कुछ पता चला उनसे?” इंस्पेक्टर शर्मा ने जीप के अंदर आकर दरवाज़ा बंद करते हाथ रगड़ते हुए पूछा।
“नहीं साहिब, उन्हें कुछ नहीं पता। लगता है वे लोग अपराधी नहीं है।”
“कैसे कह सकते हो वागले? ये लोग जीते ही अपराध की दुनिया में हैं। पैसे के लिए कुछ भी कर सकते हैं।”
“नहीं साब! मार मार के अधमरा कर दिया था। लेकिन लगता है ये लोग अपराधी नहीं हैं। हमसे कुछ ग़लत हुआ है,” वागले गंभीर था। चेहरे पर अपराध बोध।
शर्मा ने उड़ती नज़र वागले पर डाली और ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
ठंडी धुँध की रात क़हर ढा रही थी। सड़क पर यातायात कम था। सर्दी के कारण सभी घर में दुबक गए थे। अचानक उनकी नज़र रुकी। गली के छोर पर कुछ लोग बैठे आग सेंक रहे थे।
इन्सपेक्टर शर्मा ने गाड़ी को ब्रेक लगाने का इशारा किया।
गाड़ी रुकी।
“वागले, जाओ उन लोगों से पूछताछ करो। अपराध इसी मोहल्ले में हुआ है। कुछ सुराग़ मिल सकता है। सीधे न माने तो उँगली टेढ़ी करो,” कठोर स्वर में आदेश था।
“माफ़ करें साब। एक बार फिर सोचिए। दोबारा ग़लती होगी। कल हम यह अपराध कर चुके हैं। हम पुलिस वाले तो चेहरा देख कर ही सूँघ लेते है। और तो और, उस कुत्ते को देखा? कितने विश्वास से उनके साथ बैठ गर्मी ले रहा है। अरे साब, उन्हें कुत्ता भी जानवर नहीं लग रहा और हमें आजकल ग़रीब इन्सान इन्सान ही नहीं लग रहा।”
इन्सपेक्टर शर्मा की भावशून्य निगाहें उस श्वान पर पड़ी। उसने ड्राइवर को इशारा किया।
गाड़ी धूल उड़ाती आगे निकल गई।
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