शुद्धि स्नान 

01-07-2022

शुद्धि स्नान 

डॉ. पद्मावती (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

फ़ोन की घंटी घड़घड़ाई तो अमिता भाग कर गई और फ़ोन को सॉकेट से निकाला जो चार्ज हो रहा था। देखा बड़ी दीदी का कॉल आ रहा था। अब इस समय? आश्चर्य हुआ। अभी दोपहर को इतनी लंबी बात हुई थी तो फिर अचानक . . . अब फिर से क्यों? दीदी कभी तो इस तरह नहीं करती? कौन सी आवश्यकता आ गई थी? नियत दिनचर्या थी सभी बहनों से बारी-बारी बात हो जाती थी। फिर अचानक अब क्यों? 
“क्या हुआ दीदी?” 

“अरे . . . अभी संदेश मिला है, छोटे चाचा जी नहीं रहे। शुद्धि स्नान करना है तुझे भी। इसीलिए बता रही हूँ। मँझली को भी अभी बताना है। मैं फिर एक घंटे में करूँगी तब तक तुम स्नान वग़ैरह करके निपट जाना। ठीक है।”

“पर दीदी, लेकिन . . . ”

“लेकिन वेकिन कुछ नहीं, समझी . . . जैसा कह रही हूँ वैसा कर . . . समझी . . . आगे तेरी इच्छा।” 

 फ़ोन कट गया। अमिता की आँखों में पानी उतर आया। अपने चाचा के लिए नहीं . . . बाबूजी के लिए। 

चाचा . . . क्या रिश्ता था? क्या था? न . . . जो भी था केवल माँ की मुँह ज़ुबानी था। माँ को ही बोलते सुना था। बाबूजी ने तो कभी एक शब्द भी अपने मुँह से न निकाला था। कभी भी नहीं। जब तक जीवित थे एक कटु शब्द भी अपने भाई के प्रति उनकी ज़बान से न निकला था। माँ थी कि अपनी निसहायता और लाचारी में कभी भी कुछ न कुछ कह देती थी और बाबूजी की डाँट की शिकार बन जाती थी। उस दिन बाबूजी बड़ा ग़ुस्सा करते . . . दोनों एक दूसरे से नाराज़ . . . बोलती बंद हो जाती फिर कुछ दिन लगते दोनों को सामान्य होने में। अपना घर! हाँ अपनी छ्त का सपना था बाबूजी का जो जीते जी कभी पूरा न हो सका था। सरकारी नौकरी भले ही की थी, . . . पर थे तो लड़कियों के पिता . . . दहेज़ जुटाने के लिए की गई बचत उनकी सारी जमा पूँजी थी और फिर . . . ‘बाद’ की चिंता। बाद यानी . . . सेवा निवृत्ति के बाद कौन खिलाएगा? इसी उधेड़बुन में सारा जीवन गुज़रा और अपने लिए एक छत का जुगाड़ भी न कर सके। लेकिन हमेशा मलाल था कि अपनों ने ही उन्हें बेघर कर दिया था। और उसने . . . जिस पर पूरा विश्वास था। यह दुख जीवन भर रहा। अपना अधिकार छीन लिया गया। आस मन में लिए ही स्वर्ग सिधार गए। 

अमिता सोफ़े पर धँस गई। कुछ पल शून्य में ताकती रही। धीरे से उठी और अलमारी की ओर चल पड़ी। अंदर कपड़ों की तह के नीचे से माँ बाबूजी की तस्वीर निकाली और उसे ध्यान से देखने लगी। कानों में माँ के शब्द गूँजने लगे। 

कितनी बार माँ सुना चुकी थी यह कहानी। याद नहीं . . . शायद अनगिनत बार। छोटा-सा गाँव दादा जी का . . . गाँव में बड़ी सी कोठी हुआ करती थी। उनका घर ही पक्का मकान था वहाँ पूरे गाँव में। बिजली भी न थी उस समय। गाँव के सबसे सम्पन्न व्यक्ति थे दादाजी। छत एक . . . लेकिन तीन भागों में विभाजित कोठी। बड़े मनोयोग से बनाई गई थी अपने तीनों बेटों के लिए। बड़े में उनकी जान बसती थी। बड़ा बेटा यानी बाबूजी। पूर्वी भाग सबसे बड़े बेटे का, मँझला भाग मँझले चाचा का और दक्षिणी भाग यानी तीसरा भाग छोटे या आख़िरी बेटे का। बाबूजी सब की आँख का तारा थे। सौम्य . . . धर्मनिष्ठ और शांत स्वभाव के। गंभीर मुद्रा और मितभाषी। भाइयों में जान बसती थी उनकी। और भाई भी ऐसे कि कहने को जाएँ तो लक्ष्मण की भातृ-भक्ति भी कम पड़ जाए उनके सामने। इतने आज्ञाकारी कि पूछो मत। बड़े भाई के सामने आँख उठाकर बात भी न करते थे। मुँह में जैसे ज़बान ही न थी। कभी भी भाई की आज्ञा का उल्लंघन न किया था। दादा खेतिहर किसान थे उनके मृत्योपरांत दादी ने ही सब सँभाला था। तीनों को उस ज़माने में पढ़ाया लिखाया . . . क़ाबिल बनाया। बाबूजी सरकारी नौकरी में लग गए और शहर चले गए। दूसरा भी शहर में ही बस गया था और उसने अपना घर भी ख़रीद लिया था। छोटा वहीं गाँव में ही रह गया था। जब तक दादी जीवित थी, हमेशा यही रट लगाए रहती थी घर का बँटवारा हो जाए पर वे तो बाबूजी थे जिन्होंने उस बात को तवज्जोह न दी थी उस समय। भाइयों पर पूरा विश्वास जो था। 

उनकी आज्ञा के बिना तो पत्ता भी न हिलता था उस घर में। तो क्या फ़िक्र। लेकिन दादी को बड़ी चिंता होती थी, दुनिया देखी थी उन्होंने . . . अच्छों-अच्छों की नीयत को बदलते देखा था . . . अनुभव था . . . पर बाबूजी ने एक न सुनी। माँ को भी हमेशा वही डर सताता था। हुआ भी वही। 

दादी का तेरवां दिन था। सब कर्म अनुष्ठान पूरे हो चुके थे। बाबूजी और मँझले चाचा जाने की तैयारी में थे। माँ को वह दिन कितनी अच्छी तरह से याद था। कैसे भूल सकती थी? दालान में बैठक लगी थी। तीनो भाई बैठे हुए थे। बाबूजी सर झुकाए हुए सोच मग्न थे। 

हठात्‌ छोटे ने कहा, “भैय्या आपसे एक बात कहनी है। बात घर की है। मैंने कल छोटे भैया से बात कर ली है। वे अपना हिस्सा मेरे नाम कर रहे हैं। उन्हें यह घर नहीं चाहिए। और मैं चाहता हूँ कि आप भी अपना हिस्सा मेरे नाम कर दें और उसकी क़ीमत मैं दे दूँगा। या चाहें तो पूरा घर लेकर हमें अपने-अपने हिस्सों की क़ीमत दे दें। घर का बँटवारा नहीं होगा। कोई एक ही इस घर का मालिक होगा। आप या मैं? आगे आप निर्णय कर लें। पूरा घर चाहिए या अपने हिस्से की क़ीमत। आपकी जैसी इच्छा।” 

बाबूजी को कानों पर विश्वास न आया। अवाक्‌ हो गए। पता न चला क्या जवाब दें। उनकी इतनी हैसियत न थी कि पूरा घर ख़रीद लें। फिर क्या आवश्यकता थी? उनका अपना हिस्सा था . . . अधिकार था। यह कैसा प्रस्ताव था? उन्होंने आश्चर्य से मँझले की ओर देखा . . . शायद उनकी माध्यमिकता के लिए पर . . . वे चुप थे। उनका अपना घर था शहर में। सो वे कुछ न बोले न छोटे को डाँटा-डपटा। 

बाबूजी सकते में आ गए पर अपने को सँभाला। केवल इतना ही कहा, “छोटे, मैं ठहरा लड़कियों का पिता। और लड़कियाँ होतीं ही पराया धन हैं। उनकी शादियों के बाद हम दम्पति जब तक जीवित हैं . . . इस घर में रहेंगे फिर बाद में तुम्हारे ही नाम कर जाएँगे। तुम्हारी भावज मेरी आज्ञा कभी न टालेगी। मेरी बात पर विश्वास रख। हमारे बाद यह घर तुम्हारा ही होगा।” 

“न भैया . . . भविष्य की कौन जाने . . . जो भी फ़ैसला लेना है अभी लेना होगा। आपको अभी यह घर मेरे नाम करना पड़ेगा।” 

माँ पर्दे के पीछे से सब सुन रही थी। बाहर निकल कर सामने आईं पर बाबूजी की अंगार उगलती आँखों ने उनके पाँव बाँध दिए। ज़बान पर ताला लग गया। 

बाबूजी ने अपने जीवन में कभी भी किसी को जवाब न दिया था तो आज अपने ही छोटे भाई को क्योंकर कहते? हस्ताक्षर किए और चलते बने। 

माँ ने बताया था . . . बाद में बाबूजी ने छोटे को कितने पत्र लिखे थे . . . अपनी असहायता बयान की थी। कितना समझाया था। कितनी मिन्नतें की थीं पर वह टस से मस न हुआ था। और तो और उसने किसी से कोई रिश्ता भी न रखा था। सब ख़त्म हो गया था। बाबूजी को इसका बहुत मलाल था। वे अपने लिए पूरी ज़िन्दगी अपनी एक छत न खड़ी कर पाए थे। लड़कियों का विवाह प्राथमिकता थी तो अपनी इच्छाओं को तो उन्होंने मार ही लिया था। अपने अंतिम समय पर उन्होंने माँ से अपनी ग़लती की कई बार क्षमा माँगी थी लेकिन किया क्या जा सकता था? अर्ध चेतन अवस्था में भी उनके होंठों पर यही बोल थे। और फिर एक दिन चले गए। किराये का घर था . . . उनकी मृत देह बाहर आँगन में लिटाई गई थी . . . छोटा भाई आया था . . . औपचारिकता निभाने . . . बाबूजी का अंतिम दर्शन किया . . . भावज से आँख न मिला सका और उलटे पाँव लौट गया था। आज तीस वर्ष हो गए बाबूजी को गए। अब तो माँ भी चली गई। पर रह गई तो केवल उनकी आस! एक ‘अपने घर’ की। 

फ़ोन की घंटी बजी। अमिता की तंद्रा टूटी। दीदी का ही फ़ोन था। पूछ-ताछ के लिए। उसने रिसीवर थामा, “हाँ दीदी कहो।” 

“क्या . . . हो गया सब?” 

“क्या दीदी?” 

“अरे कहा था न, शुद्धि स्नान नहीं किया क्या?” दीदी का स्वर कठोर था। 

“न दीदी। तीस साल पहले मरे व्यक्ति का अब शुद्धि स्नान? चाचा तो मेरी नज़र में उसी दिन मर गए थे जिस दिन बाबूजी को देखने आए वे बाहर से बाहर ही चले गए थे। उनका आज पार्थिव देह मरा होगा, मेरी नज़र में तो बहुत पहले ही मर गए थे। और इतने साल बाद शुद्धि स्नान का क्या औचित्य।” 

“नहीं पगली . . .” 

अमिता आगे कुछ सुन न सकी उसने फ़ोन काट दिया . . . आँखों से आँसू निकले और माँ बाबूजी की तस्वीर भिगो गए। 

5 टिप्पणियाँ

  • बंटवारे की समस्या से अनेक परिवार टूटे हैं। ऐसी स्थितियों में भी सस्कारों को बनाए रखना चाहते है पुरानी विचारधारा के लोग। सही चित्रण। बधाई!

  • 1 Jul, 2022 05:56 PM

    व्यथा और.वेदना का तीव्र संप्रेषण , बधाई। मुझे इसमें अपने पिता की कहानी.दीखाई दी,तीन भाइयों मे सबसे बड़े,चार बेटियों ओर दो बेटों के पिता उनके शब्दों में,'भारी नाव के खिवैया,मातृ बाल्यकाल,पितृहीन केशोर्य । अति भाव पूर्ण!!!@

  • आज के समय का कटु सत्य लिखा है आपने...स्वार्थ में डूबे हुए रिश्ते नाते आज हर घर की सच्चाई बन चुके हैं। संवेदनशील कथ्य और भाव सम्प्रेषण की सहजता के साथ ही साथ प्रवाहपूर्ण भाषा शैली पाठक के हृदय पर अमिट छाप छोड़ने में सक्षम है। बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएँ!

  • नमस्कार मेडम बहुत ही मार्मिक कहानी ही नही यही आज की हकीक़त है।आज रिश्ते नाते मे बडो का त्याग सम्मान का कोई मोल नही रह गया।मूल्य खण्डित हो गए।स्वार्थ हावी हो गया।यह भी न सोचा बडा भाई पिता के समान होता है।बडी भाभी मां।परंपरा और संस्कार ने रिश्तो संकीर्ण और बोना कर दिया।आज लगभग यह हर घर की कहानी बन चुकी है।शीर्षक बहुत सटीक है कथावस्तु से मेल खाती है।अमीता का शुद्धि स्नान न करना एकदम सही है।जो रिश्ते बरसो दिल से टूट गए उसका निभाना जायज नही।आपको बहुत साधुवाद

  • 27 Jun, 2022 06:40 PM

    संबधो को अनदेखा कर स्वार्थ पर टिका रिश्ता कभी मन में नहीं टिक सकता मन चंगा तो कठोती में गंगा । लेखिका ने वेदना और संवेदना को बहुत सुंदर रूप मे रखा है

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