कॉफ़ी

डॉ. पद्मावती (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

दिसंबर का महीना। शाम के पाँच बज रहे थे। स्टेशन खचा-खच भरा हुआ था। अलका मद्रास से बेंगलूर कम्पनी की मीटिंग के लिए जा रही थी। वह ट्रेन से बहुत कम यात्रा करती थी लेकिन आज कुछ आवश्यक अनिवार्यताओं के कारण ट्रेन पकड़नी पड़ रही थी। यहाँ की भीड़ ने उसके तनाव को और भी बढ़ा दिया था। उसकी नज़र घड़ी पर और कान गाड़ी के आगमन की घोषणा पर टिके हुए थे। गाड़ी आधा घंटा देर से आ रही थी। बड़ी खीज उत्पन्न हो रही थी उसे। बार-बार वह अपने निर्णय को कोस रही थी कि क्यों उसने ट्रेन से जाने का विचार किया। शोर-शराबे से वह कोसों दूर भागती थी। और आज यहाँ कान फटे जा रहे थे। बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ इस समय यहाँ से सभी शहरों के लिए निकलती हैं। शायद इसी कारण प्लैटफ़ॉर्म पर कहीं भी पाँव रखने की जगह न दिख रही थी। 

असाधारण भीड़। 

लोगों का जैसे रेला निकल रहा हो। सब अपनी अपनी जल्दी में थे। शोर इतना कि एक गज़ की दूरी पर खड़े हुए लोग भी चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहे थे। कुछ यात्री नीचे ज़मीन पर ही चादर बिछाकर वहीं सोए पड़े थे। लोग उनके ऊपर से टाप-टाप कर गिरते-सँभलते दौड़ रहे थे। कोई दायें से निकल जाता तो कोई बाएँ से घिसट कर चला जाता। अजीब सी हड़बड़ी थी। 

किसी को किसी की परवाह नहीं थी। उसे डर लग रहा था कि कहीं ऐन मौक़े पर प्लैटफ़ॉर्म न बदल दिया जाए जैसा कि हर बार होता है . . . हाथ में था तो एक छोटा सा ही बैग लेकिन फिर भी यहाँ से वहाँ भागते हुए जाना . . . लोगों को धक्का देते हुए . . . उफ़ . . . सोच कर ही मन बैठा जा रहा था। 

हाँ . . . एक बात की सुविधा यहाँ थी कि प्लैटफ़ॉर्म तक जाने के लिए सीढ़ियाँ नहीं चढ़नी पड़तीं। सब के सब प्लैटफ़ॉर्म क़तार में खड़े हुए मिलते हैं। और तो और . . . कोढ़ में खाज की तरह बुरी तरह से परेशान कर रही थी मछली की जानलेवा दुर्गंध। सामने की मालगाड़ी में मछलियों के कंटेनर रखे जा रहे थे। उसका जी मिचला रहा था। बड़ी ज़ोर की उबकाई आ रही थी। लगा खाया-पिया अभी सब बाहर निकलेगा। यहाँ खड़ा होना दूभर हो रहा था। वह झल्लाती हुई नाक में रूमाल घुसेड़े . . . खड़े होने की जगह ढूँढ़ रही थी। 

ट्रेन आने में अभी आधा घंटा बाक़ी था। अलका ने सोचा यहाँ खड़े होकर लोगों के धक्के खाने से तो अच्छा है चलकर एक कैपिचिनो पी जाए। सामने क़तार में कई रेस्तरां थे लेकिन देखा . . . वहाँ भी भीड़ थी। लोग भरे हुए थे। बस एक कॉफ़ी हाउस थोड़ा ख़ाली नज़र आया। जान में जान आयी। समय भी काटना था और कॉफ़ी की तो अब सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। फिर तो बाद में तो बेंगलूर में ही कॉफ़ी मिलनी थी . . . ठंड की शाम में कैपिचिनो पीने का मज़ा ही कुछ और होता है। सोच कर ही मन रोमांचित हो गया। ये तो वही जानें जिन्हें कॉफ़ी की लत है। अलका के क़दम तेज़ी से कॉफ़ी हाउस की ओर बढ़ने लगे। 

काउंटर पर पहुँच कर उसने पाँच सौ का नोट रखा . . . कॉफ़ी ख़रीदी और बाक़ी रुपये वापस हाथ में दबोचे कॉफ़ी मशीन की ओर मुड़ी। उसने बड़े से पेपर गिलास में सावधानी से कॉफ़ी भरी और एक कोने में जाकर ऊँची सी कुर्सी खींच ली। बैग रखा और पाँव पसार लिए। कमर सीधी कर चैन की साँस ली। गरम कॉफ़ी को देखकर ही राहत मिल गई थी। गले में दो घूँट जाते ही बड़ा आराम आया। मन शांत हो गया था। गरम कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेते उसकी निगाहें चारों ओर के वातावरण का मुआयना करने लगी। बाहर की हलचल ने कुछ पलों के लिए आंतरिक तनाव भुला दिया था। और अब तो कॉफ़ी की भाप के साथ वह उड़ा चला जा रहा था। सोचा . . . चलो अच्छा किया। वहाँ के शोर से दूर आकर। सच में बहुत राहत महसूस हो रही थी। यही तो मज़ा होता है कॉफ़ी में और कॉफ़ी हाउस में। घूमती हुई उसकी निगाहें दूर एक आकृति पर पड़ीं . . . झुकी हुई सी . . . सर को ढाँपे हुए अपने आप को छिपाते आने–जाने वालों को कातर आँखों से ओर देख रही थी। शायद कोई भिखारिन बुढ़िया थी। 

अलका ने घडी की ओर देखा . . . कहीं कॉफ़ी के चक्कर में देर न हो जाए और ट्रेन न निकल जाए। 

नहीं . . . अभी समय था। आराम से पीने के लिए। उसने राहत की साँस ली। अचानक पीछे से उसकी दाहिनी कोहनी पर ठंडा सा हाथ का दबाव लगा . . . किसी ने उसकी बाँह दबोच ली थी और साथ ही क्षीण सी आवाज़ सुनाई दी . . . ’मुझे भी एक कॉफ़ी ख़रीद दे’। 

अलका ने हड़बड़ाकर पीछे मुड़कर देखा . . . तो उसकी चीख निकल गई। वही आकृति उसके बहुत पास खड़ी थी उसका हाथ दबोचे हुए। उस बुढ़िया की शक्ल ने उसे बुरी तरह डरा दिया। अलका कुर्सी से इतनी ज़ोर से उछली कि उसकी कॉफ़ी छलक कर उसके कपड़ों पर गिरने के साथ-साथ मेज़ पर भी फैल गई। अचानक उस बुढ़िया का इस तरह उसका हाथ पकड़ना उसे चौंका गया था और पकड़ भी ऐसी मज़बूत कि पूछो मत। उसकी नाज़ुक पतली त्वचा पर हाथ के अंगुलियों के निशान उभर आए थे। वैसे उस बुढ़िया ने काफ़ी ज़ोर से पकड़ा था। उसके नाखून भी चुभ गए थे। सब इतनी जल्दी हुआ कि पता ही नहीं चला . . . वह बुढ़िया कब अंदर घुसी . . . कब उसने अलका को देखा . . . और कब उसका हाथ पकड़ा। वह अब भी हाथ पकड़े खड़ी प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे ही देख रही थी। 

ग़ुस्से से अलका के दाँत भिंच गए, भौंहें सिकुड़ गई। नथुने फड़फड़ाने लगे। वह सँभलती हुई उठी और पूरा बल लगाकर उसका हाथ खींच कर झटक दिया। बुढ़िया गिरते-गिरते बची और सामने की दीवार से जा टकराई। बूढ़े हाथों में इतनी ताक़त नहीं थी और अलका ने कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से झटका दिया था। इससे पहले वह उस बुढ़िया पर बरस पड़ती . . . अचानक उसकी दृष्टि उसके मुरझाए से चेहरे पर ठहर गई। ग़ुस्से से निकली भद्दी गाली उसके गले में ही अटक कर रह गई। उसने उस औरत को ध्यान से देखा। वेश-भूषा से वह भिखारिन तो नहीं लग रही थी। कपड़े भी ठीक-ठाक ही थे। लेकिन हाँ! क़िस्मत की मारी अवश्य दिख रही थी। पोपला-सा मुँह, आँखें धँसी हुई, गालों की हड्डियाँ बाहर निकली हुई, झुके हुए कंधे, आधा गंजा सिर . . . हल्की सी शॉल ओढ़े हुए . . . आँखों पर मोटा सा चश्मा जो भार के कारण पतली सी नाक पर झुक गया था। सूखे पत्ते जैसे होंठ लेकिन धारदार पैनी आवाज़। 

बुढ़िया डबडबाई आँखों से बड़बडाने लगी, “अरे . . . कॉफ़ी ही तो माँगी है . . . इतना ग़ुस्सा काहे को करती है . . . कोई तेरा पैसा तो नहीं लूट लिया . . . देख तो कैसे गिरा दिया . . . दो महीने से नहीं पी थी . . . इसलिए तुझे देखा तो लगा तू ख़रीद देगी . . . आस से आ गई . . . भूख लगी थी . . . इतना ग़ुस्सा . . . मत मार . . . रहने दे . . . न . . . न चाहिए।” 

अलका को धक्का सा लगा। उसका दिमाग़ झनझना गया। ऐसा होगा सोचा ही न था। उससे यह अचानक कैसे हो गया? किसी पर हाथ उठाना? वह तो कभी ऊँचे स्वर में किसी को डाँटती तक नहीं थी। और आज अनावश्यक क्रोध . . . इतना ग़ुस्सा . . . उसका यह पाशविक व्यवहार! वह भी एक असहाय बुढ़िया पर? इतना बल प्रयोग? क्या ज़रूरत थी? उफ़! यह क्या कर डाला? 

इससे पहले वह अपनी ग़लती की माफ़़ी माँगती, वह बुढ़िया बिफर कर बोली, “जब तक बुड्ढा ज़िन्दा था . . . मेरे लिए हमेशा ख़रीदता था यहीं से महँगी वाली कॉफ़ी . . . कुली जो था यहीं पर . . . उसे गुज़रे दो महीने हो गए . . . अब और कोई भी तो नहीं है . . . जो मेरी आस पूरी कर ले। अब इस उम्र में कुछ काम भी न हो पाता है . . . फिर भी थोड़ा बहुत जो भी कमा लेती हूँ और खाती हूँ . . . मैं भिखारी नहीं . . . हाँ भिखारी नहीं . . . अपना कमाया खाती हूँ . . . लेकिन . . . महँगी वाली कॉफ़ी न पी उसके जाने के बाद . . . नहीं . . . नहीं . . . इस मुई कॉफ़ी को मन बहुत मचलता है . . . कोई बात नहीं . . . रहने दे . . . न ख़रीद . . . लेकिन धक्का तो न मार . . . अब नहीं माँगूँगी . . . कभी नहीं। आज सुबह से कुछ नहीं खाया, तेरे पास मुट्ठी में रुपये हैं न, क्यों नहीं ख़रीदती? क्या सोच रही है? कोई बात नहीं . . . रहने दे . . . अब न माँगूँगी। किसी से भी नहीं। मैं भिखारी थोड़ी न हूँ। न माँगूँगी।” वह न जाने क्या बड़बड़ाती जाने को मुड़ी। 

अलका ने उसका हाथ पकड़ लिया। बुढ़िया भय से चिल्लाई, ”अरे!अरे . . . न मार . . . न मार। नहीं माँगूँगी। अब माफ़ भी कर . . .। छोड़ दे . . . छोड़ दे मार ही देगी क्या?” 

“चुप . . . चुप . . . चुप . . . तुम यहीं बैठो। बिलकुल चुप। मैं अभी आती हूँ। हिलना मत,” अलका ने कुर्सी खींच कर उसे बैठने का इशारा किया और लपक कर काउन्टर पर गई . . . एक कैपिचिनो ख़रीदी। 

कॉफ़ी गिलास में शक्कर मिलाकर जैसे ही मुड़ने को हुई, तो एक बार फिर उसकी चीख निकलते निकलते बची। 

वह बुढ़िया तो फिर से एकदम उसके पीछे खड़ी थी। न जाने इतनी फ़ुर्ती कहाँ से आ गई थी उस क्षीण शरीर में। उसने अलका के हाथ से गिलास ऐसे अधिकार से झपटा कि वह पिचक गया और गरम कॉफ़ी का गोल झाग उसकी हथेली पर गिर पड़ी . . . 

चट से वह उसे चाट गई और दोनों हाथों से गिलास को पकड़ कर एक कोने में बड़ी-बड़ी फूँकें मारती भद्दी आवाज़ें करती हुई बैठकर कॉफ़ी पीने लगी। 

“हाँ . . . यही ख़रीदता था मेरे लिए . . . यही . . . बड़ी अच्छी लगती है मुझे . . . झाग वाली कॉफ़ी . . . . . .बड़ी अच्छी। बहुत महँगी है न इसलिए . . . पता है वह यहाँ इसी जगह काम करता था सुबह शाम . . . साफ़ सफ़ाई करता था यहीं . . . जब कुली नहीं मिलती थी न तब . . . कहता था यह अमीरों की कॉफ़ी है . . . मोटी कमाई वालों की . . . पर एक बार मुझे पिलाई थी . . . मुझे अच्छी लगी झाग वाली कॉफ़ी . . . तो कहने लगा . . . बूढ़ी . . . यह शौक़ मत पाल . . . यह हमारे लिए नहीं है . . .। मैं भी कम नहीं . . . कहती थी बाबू साहब से माँग ले कभी-कभी . . . यहीं काम करता है न . . . दे देंगे . . . पर कहता था . . . माँगते नहीं है . . . मैं तेरे लिए ख़रीदूँगा रुपये बचाकर . . . अब कितनी महँगी है मैं तो नहीं जानती . . . पर ख़रीदता था मेरे लिए . . . मुझे अच्छी लगती थी न इसलिए।” 

बुढ़िया की आँखों में लाल डोरे तैर गए . . . बड़बड़ा रही थी . . . खो खो कर हँसने लगी . . . अपने बूढ़े को याद कर . . .। आँखों के कोर गीले हो गए थे . . .। फूँक मारते समय उसके पिचके हुए गाल अंदर बाहर हिल रहे थे। पुतलियाँ नचाती हुई उसकी शुष्क आँखें चमक रही थीं। गरम कॉफ़ी की भाप से उसका चश्मा धुँधला हो रहा था लेकिन वह केवल कॉफ़ी को ही देख रही थी . . . ख़ुश हो रही थी . . .मस्ती से पी रही थी। 

कॉफ़ी हाउस का शोर बढ़ रहा था। आस-पास अच्छी खासी चहल-पहल आ गई थी। लेकिन सभी अपने-अपने में व्यस्त। किसी को दूसरे की ओर देखने तक की भी फ़ुरसत कहाँ थी? 

अलका हैरान . . . मंत्रमुग्ध सी बैठी उसे ही देखे जा रही थी। उसने कभी किसी को इस तरह ख़ुश होते नहीं देखा था और वो भी एक कॉफ़ी के लिए . . . वह सोच भी नहीं सकती थी। उसके हाथों में उसकी बची-खुची कॉफ़ी ठंडी हो चुकी थी। वह तो जैसे पीना ही भूल गई थी। 

बुढ़िया ने फुर्र की आवाज़़ से आख़िरी घूँट पिया। गिलास के अन्दर अच्छी तरह से झाँक कर देखा और जब तसल्ली हो गई कि कॉफ़ी ख़त्म हो गई है तो गिलास नीचे रख हथेली के बल धीरे से लड़खड़ाती हुई उठी . . . एक लंबी डकार ली . . . और बिना मुड़े . . . बिना कुछ कहे . .  बिना उसकी ओर देखे निर्लिप्त भाव से . . . धीमे-धीमे क़दम रखती बाहर निकल गई। 

अलका भीगी आँखों से उसे जाते देखती रही . . . चेतना शून्य। कुछ पलों बाद उसकी तंद्रा टूटी। होश आया। घड़ी देखी  . . . निकलने का समय हो गया था। 

बुढ़िया जा चुकी थी। उसका तृप्त होकर बिना कुछ कहे निकल जाना न जाने क्यों अलका के मन को लुभा गया . . .। मीठा सा सुकून दे गया जिसमें उसकी सारी ‘कृतघ्नता’ कपूर की तरह पिघल गई। अच्छा ही हुआ था कि वह उदासीन तटस्थ भाव से निकल गई थी। उसका यूँ चले जाना अलका को एक निरीह असहाय पर ‘महान’ उपकार कर गुजरने की आत्म मुग्धता से मुक्त कर गया था। उसका मन हल्का हो गया। होंठ अनायास मुस्कुराने लगे। 

उसने बैग उठाया। बाहर गाड़ी के प्लैटफ़ार्म की घोषणा हुई . . . प्लैटफ़ॉर्म बदल गया था लेकिन उसे अब ग़ुस्सा नहीं आया। वह तेज़ क़दमों से चलने लगी। मन तरंगित हो रहा था। मच्छी की गंध भी उतनी ज़्यादा बुरी नहीं लग रही थी। शोर कानों को भला लगने लगा था। सबको बचाते हुए मुस्कुराते हुए वह अपने वातानुकूलित डिब्बे के अंदर चढ़ गई। याद आया कि वह तो अपने लिए खाना बँधवाना ही भूल गई थी। महसूस हुआ कि आज शायद उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। उसकी सारी भूख तो बहुत पहले ही स्वतः मिट चुकी थी। और कॉफ़ी . . . कॉफ़ी तो उसने अब तक बहुत बार पी थी लेकिन असली स्वाद तो आज मिला था . . .  ‘बिन पिए’। 

6 टिप्पणियाँ

  • 16 Jan, 2022 03:09 PM

    वाह पद्मावती जी क्या लिखा है अपने ।अब तक तो कॉफी पीकर आनंद लेती थी आज कॉफी पढ़ कर मज़ा आ गया ।बहुत बढ़िया ,बहुत सुंदर

  • 12 Jan, 2022 12:45 PM

    "काॅफी" हृदयस्पर्शी , मर्मस्पर्शी दिल को छु जाने वाली है ,इसमें सजीवता व उत्कृष्ट भाव समाहित है।

  • मेडम काफी सचमुच अच्छी थी। कहानी का ताना बाना बहुत अचछा बुना है।जो काफी नही पीते वे भी पीने के लिए मजबूर हो जाऐगे। भाषा शैली शबदो का चयन सजदे ढंग से किया है।बधाई।

  • 11 Jan, 2022 03:58 PM

    after reading your fantastic story i would like to have a cup of "coffichino" . really impressed.

  • 11 Jan, 2022 09:42 AM

    डॉ पद्मावती जी आप की काफी से आत्मिक आनन्द प्राप्त हुआ। जीवन यात्रा में हम हर मोड़ पर कछ चरित्रों से मिलते हैं परंतु आप उन चरित्रों का कुशल चित्रकार की तरह सजीव चित्रण करती हैं । बहुत बहुत बधाई

  • 11 Jan, 2022 12:43 AM

    पद्मावती जी की लेखनी ने 'कॉफी' के माध्यम से बहुत प्रभावित किया। प्रस्तुतिकरण निसंदेह प्रसंसनीय है। एक लाइन के विषय को बेहतरीन विस्तार से पाठक पूरे समय अपने आपको बंधा महसूस करता है। जो लेखिका के लिये गौरव की बात है। कहानी में कमजोर कड़ी के रूप में ओल्ड लेडी के बारे में पूरी जानकारी न होने से ... वो उच्च कुल की (जैसे लेखिका ने उसके पहनावे,औऱ मंहगी कॉफी के शौक के बारे में बताया)वह उस कुली के साथ कब से जुड़ी,पाठकों को यहाँ कहानी में कुछ छूटता महसूस करता है।बस यहीं लेखिका की भूल पाठक पकड़ लेता।अतः इस गेप को लेखिका सुधार कर अपनी 'कॉफी' को बेस्वाद होने से बचा सकती हैं। शेष बेहतरीन सृजन के लिए हार्दिक बधाई।

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